आस्था,विश्वास,मान-मन्नत का पर्व गणगौर

10 April 2024

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यह पर्व राजा धनियार व रणुबाई (रथ) के गृहस्थ प्रेम और भगवान शिव-माता पार्वती के पूजन से जुड़ा है।

 

जवारे बोने के साथ होती है पर्व की शुरुआत

 

चैत्र कृष्ण एकादशी को माता की बाड़ी में जवारे बोने के साथ गणगौर पर्व की शुरुआत होती हैं।

 

गणगौरी तीज से पर्व की छटा 11अप्रैल चैत्र शुक्ल सुदी तीज को माता की बाड़ी में जवारों का दर्शन-पूजन करने सुबह से ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती हैं। माता की मुख्य बाड़ी से ज्वारों को श्रृंगारित काष्ठ प्रतिमाओं में रखकर चल समारोह के साथ घर लाया जाता हैं। इसके बाद गणगौर माता के गीत गूंजने लगते हैं।

 

रात में डांडिया नृत्य,मटकी नृत्य, भक्ति गीत, लोकगीत के साथ पर्व मनाया जाता हैं।

 

माँ रणुबाई और धनियार राजा का भव्य नृत्य होता है, जिससे देखने के लिए श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ता हैं।

 

गणगौर विशेष रूप से राजस्थान और मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ के भागों में धूमधाम से मनाया जाता है। कुँवारी लड़कियां अपने भावी पति और विवाहित स्त्रियां अपने पतियों की सम्रद्धि के लिए ये पूजा अर्चना करती हैं।

 

होलिका दहन के दुसरे दिन से प्रारम्भ होने वाला ये त्यौहार पूरे 16 दिनों तक है। महिलाएं मंगल गीत गाते हुए अपने पीहर और ससुराल के अच्छे भविष्य की कामना करती हैं। अपने पति के दीर्घायु होने की कामना करते हुए कई गीत गाती हैं जिसमे अपने परिजनों का नाम लिया जाता है।

 

चैत्र माह की तीज को मनाया जाने वाला यह महापर्व एक महोत्सव रूप में संपूर्ण मध्यप्रदेश निमाड़-मालवांचल में अपनी अनूठी छटा बिखेरता है। इसके साथ ही चैत्र माह में राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में महाकाली, महागौरी एवं महासरस्वती अलग-अलग रूपों में नवरात्रि में पूजा की जाती हैं।

 

पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है गणगौर का त्योहार। चैत्र गणगौर पर्व गणगौर दशमी से अथवा एकादशी से प्रारंभ होता है, जहां माता की बाड़ी यानी जवारे बोए जाने वाला स्थान पर नित्य आठ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। यह गीत कन्याओं, महिलाओं, पुरुषों, बालकों के लिए शिक्षाप्रद होते हैं।

 

सर्वप्रथम होलिका दहन के स्थान से होली की जली राख से बिना थापे बने कंडे (खड़े) एवं पांच कंकर की गौरा माता घर लाते हैं। यह तभी निश्चित कर लिया जाता है कि कितने रथ तैयार होंगे।

 

उसी अनुरूप छोटी-छोटी टोकरियों (कुरकई) में चार देवियों के स्वरूप चार में गेहूं के जवारे एवं बच्चों के स्वरूप छोटे-छोटे दीपकों में सरावले बोए जाते हैं। एक बड़े टोकने में मूलई राजा बोए जाते हैं।

 

चारों देवियों एवं सरावले व मूलई राजा के जवारों का नित्य अति शुद्धता पूर्व पूजन एवं सिंचन जिस कमरे में किया जाता है उसे माता की कोठरी कहते हैं। इसी माताजी की वाड़ी में प्रतिदिन शाम को कई स्त्रियां धार्मिक भावना से चारों माता के विष्णु राजा की पत्नी लक्ष्मी, ब्रह्माजी की सइतबाई, शंकरजी की गउरबाई एवं चंद्रमाजी की रोयेणबाई के गीत मंगल गान के रूप में गाए जाते हैं।

 

तंबोल यानी गुड़, चने, जुवार, मक्के की धानी, मूंगफली) बांटी जाती है।

 

फिर गणगौर का प्रसिद्ध गीत गाते हैं –

 

पीयर को पेलो जड़ाव की टीकी,

 

मेण की पाटी पड़ाड़ वो चंदा…

 

कसी भरी लाऊं यमुना को पाणी…

 

हारी रणुबाई का अंगणा म ताड़ को झाड़।

 

ताड़ को झाड़ ओम म्हारी

 

देवि को र्यवास।

 

रनूबाई रनू बाई, खोलो किवाड़ी…।

 

पूजन थाल लई उभी दरवाजा

 

पूजण वाली काई काई मांग…

 

अपने परिवार की सुख-समृद्धि हेतु भक्त इस तरह से विनती कर वरदान मांग लेते हैं। माता के विसर्जन से पूर्व जो लोग माता के रथ लाते हैं, अपने घर सुंदर रथ श्रृंगार कर वाड़ी पूजन के पश्चात घर ले जाते हैं।

 

सायंकाल सभी रथों को खुशी प्रकट करने हेतु झालरिया गीत गाए जाते हैं। नौवें दिन माता की मान-मनौती वाले परिवार रथ बौड़ाकर या पंचायत द्वारा माता को पावणी (अतिथि) लाते हैं।

 

कुल मिलाकर यह संदेश दिया जाता है कि बहन, बेटी को नवमें दिन ससुराल नहीं भेजना चाहिए। दसवें दिन पुनः सपरिवार भोजन प्रसादी आयोजन होता है।

 

माता का बुचका यानी जिसमें माताजी की समस्त श्रृंगार सामग्री, प्रसाद, भोग एवं आवश्यक वस्तुएं श्रीफल आदि बांध कर पीली चुनरी ओढ़ाकर हंसी-खुशी विदा किया जाता है। यही परंपरा सतत चली आ रही है।

 

आप सभी को गणगौर पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाएं…

 

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