अंग्रेज़ों का नया साल मनाने में हम भूल गए औरंगजेब के पसीने छुड़ाने वाले वीर का बलिदान दिवस…!!

2 January 2024

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भारतवासियों का टीवी, फिल्में, सीरियल, अखबार, पढ़ाई, झूठे इतिहास आदि द्वारा ऐसा ब्रेनवॉश कर दिया गया है,कि जिन अंग्रेज़ों ने भारत को 200 साल गुलाम बनाकर रखा, देशवासियों को प्रताड़ित किया, देश की संपत्ति लूटकर ले गये…आज उन्हीं के नये साल पर बधाई देते/लेते हैं, जश्न मनाते हैं।

लेकिन जिन क्रांतिकारियों ने इन अंग्रेज़ों को भगाने में और मुगलों के साम्राज्य की नींव तक हिलाने में अपने प्राणों की बलि दे दी और आज जिनके कारण हम इस देश में स्वतंत्रता से श्वास ले रहे हैं, ऐसे योद्धाओं को ही हमने भुला दिया !!

 

भारत माता के ऐसे ही एक वीर सपूत थे गोकुल सिंह, जिन्होंने विशाल मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए थे और औरंगजेब के पसीने छुड़ा दिए थे। उनका आज बलिदान दिवस है। इनका इतिहास पढ़कर आप भी अपने पूर्वजों की वीरता पर गर्व महसूस करेंगे तथा उन विदेशी आक्रांताओं ( मुगलों तथा अंग्रेजों ) की असलियत भली प्रकार से समझ पाएंगे ।

 

सन् 1666 में मुगल शासक या कहें… कुशासक औरंगजेब के अत्याचारों से हिन्दू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटकर उन्हें मुस्लिम बनाया जा रहा था।

औरंगजेब और उसके सैनिक पागल हाथी की तरह हिन्दू जनता को मथते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे।

 

हिंदुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला।

 

गौरतलब है…

सिनसिनी गाँव के सरदार गोकुल सिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इंकार कर दिया, परतन्त्र भारत के इतिहास में वह पहला “असहयोग आन्दोलन” था।

 

दिल्ली के सिंहासन के नाक तले धर्मपरायण हिन्दू वीर योद्धा गोकुल सिंह और उनकी किसान सेना ने आतताई औरंगजेब को हिंदुत्व की ताकत का एहसास दिलाया।

 

मई 1669 में अब्दुन्नवी ने सिहोरा गाँव पर हमला किया। उस समय वीर गोकुल सिंह गाँव में ही थे। भयंकर युद्ध हुआ और इस्लामी शैतान अब्दुन्नवी और उसकी सेना सिहोरा के वीर हिन्दुओं के सामने टिक ना पाई और सारे इस्लामिक पिशाच गाजर-मूली की तरह काट दिए गए।

 

गोकुल सिंह की सेना में जाट, राजपूत, गुर्जर, यादव, मेव, मीणा इत्यादि सभी जातियों के हिन्दू थे। इस विजय ने मृतप्राय हिन्दू समाज में नए प्राण फूँक दिए थे।

 

इसके बाद पाँच माह (5 महीनों ) तक भयंकर युद्ध होते रहे। मुगलों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए। क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के दिलो-दिमाग पर गोकुलसिंह की वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ़ शिक़न खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। गोकुल सिंह ने औरंगेजब का प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा कि औरंगजेब कौन होता है,हमें माफ़ करने वाला… माफ़ी तो उसे हम हिन्दुओं से मांगनी चाहिए क्योंकि उसने अकारण ही हिन्दू धर्म का बहुत अपमान किया है।

 

अब औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को दिल्ली से चलकर खुद मथुरा आया गोकुल सिंह से लड़ने के लिए। औरंगजेब ने मथुरा में अपनी छावनी बनाई और अपने सेनापति होशयार खाँ को एक मजबूत एवं विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा।

 

आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ 1669 सितंबर के अंतिम सप्ताह में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे। यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरते हुए आगे बढ़ने लगी। गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों की बनिस्पत विशाल स्तर का था, जिसमें बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश। इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है।

 

औरंगजेब की तोपों, धर्नुधरों, हाथियों से सुसज्जित तीन लाख (3 लाख) सैनिकों की विशाल सेना और गोकुल सिंह के किसानों की बीस हजार (20 हजार) की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ गया।

चार दिन तक भयंकर युद्ध चलता रहा और गोकुल सिंह की छोटी सी अवैतनिक सेना अपने बेढ़ंगे व घरेलू हथियारों के बल पर ही अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित और प्रशिक्षित मुगल सेना पर भारी पड़ रही थी।

 

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं,जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो। हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला।

 

इस लड़ाई में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं, बल्कि उनकी स्त्रियों ने भी पराक्रम दिखाया।

 

चार दिन के युद्ध के बाद भी जब गोकुल की सेना युद्ध जीतती हुई प्रतीत हो रही थी,तभी हसन अली खान के नेतृत्व में एक नई विशाल मुगलिया टुकड़ी आ गई और इस टुकड़ी के आते ही गोकुल सिंह की सेना हारने लगी। युद्ध में अपनी सेना को हारता देख हजारों हिन्दू नारियाँ जौहर की पवित्र अग्नि में खाक हो गईं।

 

गोकुल सिंह और उनके ताऊ उदय सिंह को सात हजार साथियों सहित बंदी बनाकर आगरा में औरंगजेब के सामने लाया गया। औरंगजेब ने कहा “जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो और रसूल के बताए रास्ते पर चलो। बोलो क्या इरादा है…! इस्लाम या मौत ?”

 

अधिसंख्य धर्म-परायण हिन्दुओं ने एक सुर में कहा- “औरंगजेब, अगर तेरे खुदा और रसूल मोहम्मद का रास्ता वही है,जिस पर तू चल रहा है। तो धिक्कार है तुझे, हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना।”

 

इतना सुनते ही औरंगजेब के संकेत से गोकुल सिंह की बलशाली भुजा पर जल्लाद का बरछा चला।

 

गोकुल सिंह ने एक नजर अपने भुजाविहीन रक्तरंजित कंधे पर डाली और फिर पूरे आत्मविश्वास व स्वाभिमान भरे स्वर में दहाड़ते हुए जल्लाद की ओर देखा और कहा दूसरा वार करो।

 

दूसरा बरछा चलते ही वहाँ खड़ी जनता आर्तनाद कर उठी और फिर गोकुल सिंह के शरीर के एक-एक जोड़ काटे गए। गोकुल सिंह का सिर जब कटकर धरती माता की गोद में गिरा तो मथुरा में केशवरायजी का मंदिर भी भरभराकर गिर गया। यही हाल उदय सिंह और बाकि साथियों का भी किया गया। उनके छोटे- छोटे बच्चों को जबरन मुसलमान बना दिया गया।

 

1 जनवरी 1670 ईसवी का ही भयानक दिन था वह।

 

ऐसे अप्रतिम वीर का कोई भी इतिहास नहीं पढ़ाया गया और न ही कहीं कोई सम्मान ही दिया गया। न ही उनके नाम पर कोई विश्वविद्यालय है और न कोई केन्द्रीय या राजकीय परियोजना।

हाय ! कितना एहसान फरामोश, कृतघ्न है हिंदू समाज !??

 

कैसे वीर हुए इस धरा पर, जिन्होंने धर्म के लिए प्राण न्यौछावर कर दिये, पर इस्लाम नहीं अपनाया।

 

गोकुलसिंह सिर्फ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीन लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी। बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुगल-सत्ता, दीनतापूर्वक सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़गिड़ाई थी।

 

शर्म आनी चाहिए हमें ! कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज़ के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके।

 

शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। केवल जाट पुरूष ही नहीं बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं।

दुर्भाग्य की बात है, कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकड़ों ( मुगलों के ) पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया।

 

1669 की क्रान्ति के जननायक, परतंत्र भारत में असहयोग आन्दोलन के जन्मदाता, राष्ट्रधर्म रक्षक वीर गोकुल सिंहजी और उनके सात हजार क्रान्तिकारी साथियों के बलिदान दिवस पर आज 1जनवरी पर उनको शत-शत नमन।

 

कैसे वीर थे वो अलबेले, कैसी अमर है उनकी कहानी,

सरदार गोकुल सिंह जी की, आओ याद करें कुर्बानी ।।

 

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