28 September 2024
♻भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक और सामाजिक न्याय की चुनौतियां
♻भारतीय राजनीति में धर्म और जाति की भूमिका हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीतियां अक्सर इन आधारों पर ही तय होती है। विशेष रूप से जब किसी दल को किसी क्षेत्र या राज्य में एकमुश्त अल्पसंख्यक वोट मिलता है,तो यह 20% या उससे अधिक का चुनावी लाभ प्रदान करता है। अगर, इसमें कुछ प्रभावशाली जातियों का समर्थन जुड़ जाए, तो चुनावी जीत की संभावना और भी बढ़ जाती है। ऐसे में उम्मीदवार की जाति को ध्यान में रखकर समीकरण आसानी से बन जाता है।
♻ अल्पसंख्यक वोट बैंक और चुनावी समीकरण
♻जब कोई राजनीतिक दल अल्पसंख्यक वोट बैंक पर निर्भर होता है, तो अन्य समुदायों, विशेष रूप से वंचित हिंदू समुदायों को चुनावी समीकरण से बाहर रखने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में,उन दलों को इन वंचित समूहों तक अपना आधार बढ़ाने की आवश्यकता नहीं महसूस होती। यह न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है बल्कि भारतीय लोकतंत्र में समरसता और विविधता को भी कमजोर करता है।
♻ सामाजिक न्याय और राजनीतिक उदासीनता
♻वंचित समुदायों की अनदेखी की यह प्रवृत्ति कई बार बड़े सामाजिक न्याय के मुद्दों पर भी देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए:
▪- एससी-एसटी कर्मचारियों का डिमोशन।
▪- मंडल कमीशन की सिफारिशों को 1990 तक लागू न करना।
▪- NEET ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी आरक्षण को शामिल न करना।
▪- बाबा साहब अंबेडकर और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने में देरी।
▪- मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की कोशिश।
▪- 2011 में जामिया में एससी और एसटी आरक्षण का समाप्त होना।
♻ये सभी घटनाएं तब घटित हुईं जब सत्ताधारी दल अल्पसंख्यक वोटों पर अधिक निर्भर थे। इसका स्पष्ट अर्थ है कि जब दल को अल्पसंख्यक वोट बैंक से मजबूत समर्थन मिलता है,तो वह सामाजिक न्याय की पहल से दूर हो जाता है और वंचित समुदायों की जरूरतों को नजरंदाज करता है।
♻ विविधता और समरसता का अभाव
♻♻जो राजनीतिक दल अल्पसंख्यक वोट बैंक पर निर्भर नहीं होते, उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा जातियों और समूहों को अपने साथ जोड़ने की ज़रूरत होती है। ऐसा इसलिए नहीं कि वे सामाजिक न्याय के प्रति अधिक जागरूक होते है,बल्कि चुनावी गणित में खुद को संतुलित करने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ता है।अगर, उन्हें अल्पसंख्यक वोट का 20% हिस्सा नहीं मिलता, तो वे केवल विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच समरसता स्थापित कर ही सत्ता तक पहुंच सकते है।
♻ गैर-कांग्रेस सरकारें और सामाजिक न्याय की पहल
♻ इसीलिए,अधिकांश महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय की पहलें गैर-कांग्रेसी सरकारों के तहत ही लागू हुई है। बीजेपी, जनता पार्टी, जनता दल और डीएमके जैसे दलों की सरकारों ने सामाजिक न्याय के विभिन्न कदम उठाए है,जो सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने में मददगार रहे है।
♻अल्पसंख्यक वोट बैंक का राजनीतिक प्रभाव
♻यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत में सबसे बड़े अल्पसंख्यक की जनसंख्या 15% से कम है, लेकिन उनकी एकजुट वोटिंग उन्हें सबसे ताकतवर राजनीतिक दबाव समूह बना देती है। ऐतिहासिक रूप से, जिस दल को अल्पसंख्यक वोट का समर्थन मिला है, वही सत्ता में आया है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का समर्थन जिस पार्टी को जाता है, वही पार्टी सरकार बनाती है। समय-समय पर उन्होंने कांग्रेस, वामपंथ और तृणमूल कांग्रेस का समर्थन किया है और हर बार सत्ता का परिवर्तन हुआ है।
♻भारतीय लोकतंत्र की विकृतियां
♻धार्मिक पहचान के आधार पर अल्पसंख्यकों का एकमुश्त वोट देना भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विकृतियों में से एक है। यह लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के विपरीत है,जहाँ हर समुदाय को समान अधिकार और प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। यह विकृति न केवल राजनीतिक असंतुलन पैदा करती है, बल्कि सामाजिक न्याय और समरसता की धारणा को भी नुकसान पहुंचाती है।
♻ निष्कर्ष
♻भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक और जातिगत समीकरणों की भूमिका ने सामाजिक न्याय और समरसता को कमजोर किया है। ऐसे में,राजनीतिक दलों को सभी समुदायों को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है,ताकि भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सके और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन हो।
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