1 Jun 2018
दलितों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण करा रही ईसाई मिशनरी उनके साथ बेहद बुरा सलूक कर रही हैं। ईसाई बन चुके दलितों के एक संगठन ने संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिखकर अपने साथ भेदभाव की शिकायत की है। उनकी ये शिकायत वेटिकन के खिलाफ भी है। इन लोगों की शिकायत है कि सामाजिक भेदभाव से छुटकारा दिलाने के नाम पर मिशनरियों ने उन्हें ईसाई तो बना लिया, लेकिन यहां भी उनके साथ अछूतों जैसा बर्ताव हो रहा है। कई चर्च में दलित ईसाइयों के घुसने पर भी एक तरह से पाबंदी लगी हुई है। नाराजगी इस बात से है कि ईसाइयों की सर्वोच्च संस्था वेटिकन इस भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ नहीं कर रही। दिल्ली में यूएन के दफ्तर के जरिए ये शिकायत कुछ वक्त पहले भेजी गई है। कुछ वक्त पहले न्यूज़लूज़ पर हमने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज की खबर बताई थी, जहां प्रिंसिपल की भर्ती के लिए निकले विज्ञापन में साफ कहा गया था कि कैंडिडेट मारथोमा सीरियन चर्च का होना चाहिए।
Millions of Dalit families are repenting after adopting Christianity |
‘ईसाई धर्म में ज्यादा भेदभाव’
दलित क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (डीसीएलएम) और मानवाधिकार संस्था विदुथलाई तमिल पुलिगल काची ने कहा है कि “वेटिकन और इंडियन कैथोलिक चर्च भारतीय दलित ईसाइयों को तुच्छ नज़र से देखते हैं। हर जगह उन ईसाइयों को प्राथमिकता दी जाती है जो उनकी नजर में उच्च वर्ग के हैं। यह भेदभाव धार्मिक, शैक्षिक और प्रशासनिक सभी क्षेत्रों में हो रहा है।” दलित ईसाइयों के संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र से फरियाद की है कि वो वेटिकन पर इस बात का दबाव डालें ताकि वो भारतीय दलितों के साथ दोहरा रवैया छोड़ें। पिछले कुछ दशकों में लाखों की संख्या में दलितों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, लेकिन इनमें से ज्यादातर खुद को ठगा महसूस करते हैं क्योंकि अब उनकी सामाजिक स्थिति पहले से बदतर है। ऐसी घटनाएं मीडिया में भी नहीं आने पातीं। इसके उलट हिंदू धर्म में हो रहे सुधारों के कारण जाति-पाति के आधार पर भेदभाव काफी हद तक कम हुआ है।
‘दलितों के लिए अलग कब्रिस्तान’
दलित ईसाई संगठनों की कई शिकायतें हैं, लेकिन इनमें सबसे गंभीर हैं वो सामाजिक भेदभाव जिनके नाम पर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए उकसाया गया था। दलित ईसाई संगठनों के मुताबिक ज्यादातर जगहों पर कैथोलिक ईसाई पसंद नहीं करते कि उनके सेमेंटरीज़ (यानी कब्रिस्तानों) में दलित ईसाइयों को दफनाया जाए। वो उन्हें कमतर मानते हैं लिहाजा उनकी जगह कोई सुनसान कोना या अलग जगह होती है।यहां तक कि कई चर्च में भी दलित जाति के ईसाइयों के बैठने की जगह अलग और पीछे होती है। क्रिसमस पर निकलने वाली शोभा यात्राएं दलित ईसाइयों के मोहल्लों में नहीं जातीं। दलित ईसाइयों को पढ़ा-लिखा होने के बावजूद ज्यादातर सहायक, ड्राइवर या इससे भी निचले दर्जे की नौकरियां दी जाती हैं। इसकी शिकायत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया से भी की जा चुकी है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। क्योंकि इस पर खुद को प्योर ब्लड का बताने वाले ईसाइयों का कब्जा है। इस भेदभाव का नतीजा है कि एक पीढ़ी पहले धर्मांतरण करने वाले कई दलित परिवार वापस सनातन धर्म अपनाने की सोच रहे हैं। अकेले केरल में पिछले एक दशक में 100 के करीब परिवार वापस हिंदू धर्म अपना चुके हैं।
दलित ईसाइयों पर कुछ तथ्य:
देश में कुल कैथोलिक ईसाई आबादी का 70 फीसदी दलित जातियों से धर्मांतरण करने वाले लोग हैं। लेकिन चर्च में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ 4 से 5 फीसदी है।पादरी और बिशप जैसे पदों के लिए दलित ईसाइयों का चुना जाना लगभग नामुमकिन है। अगर कोई बनता भी है तो उन इलाकों के लिए जहां उच्च वर्ग के पादरी जाना पसंद नहीं करते।देश भर में 200 से ज्यादा सक्रिय बिशप में से सिर्फ 9 दलित समुदाय से आते हैं।ज्यादातर दलित ईसाई परिवार पहले की तरह आपस में ही शादी-ब्याह करते हैं, क्योंकि कोई भी कुलीन ईसाई परिवार उनसे पारिवारिक रिश्ता नहीं रखता।
स्त्रोत : सोशल मीडिया
हिन्दुओं से दूर करने का मिशनरियां षड्यंत्र कर रहे है, अतः हिन्दू सावधान रहें ।
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राजा हरिसिंह ने स्वतंत्र भारत के साथ अनुबंध करने के पूर्व अर्थात 16 मार्च 1946 को महाराजा गुलाबसिंह एवं तत्कालीन भारतीय ब्रिटिश शासन में अमृतसर अनुबंध हुआ । यह अनुबंध तो एक प्रकार से विक्रय का ही अनुबंध था । यह अनुबंध कश्मीरी लोगों का अनादर था । उसके कारण यह अनुबंध ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन का मुख्य विषय बन गया था। (इसका संदर्भ जम्मू-कश्मीर स्वायत्त समिति के अप्रैल 1999 के ब्यौरे में आता है।
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