5 January 2024
सिक्ख समुदाय के दसवें धर्म-गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म पौष सुदी सप्तमी संवत 1723 को हुआ था । उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था।
उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को वे गुरू बने । वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक संत थे।
सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की । जो सिक्खों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
गुरू गोविन्द सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया।
उन्होंने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाड़ियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े । धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलंगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं ।
गुरु गोविंद सिंह जो विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
खालसा पंथ की स्थापना :
गुरु गोविंद सिंह जी का नेतृत्व सिक्ख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया रंग ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो कि सिक्ख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।
सिक्ख समुदाय की एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा – कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राजी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पूछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राजी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छटवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने क शब्द के पांच महत्व खालसा के लिए समझाये और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्छा।
यह कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह ने कुल चौदह युद्ध लड़े परन्तु कभी भी किसी पूजा के स्थल के लोगों को ना ही बंदी बनाया ना क्षतिग्रस्त किया।
भंगानी का युद्ध Battle of Bhangani (1688)नादौन का युद्ध
Battle of Nadaun (1691)गुलेर का युद्ध
Battle of Guler (1696)आनंदपुर का पहला युद्ध
First Battle of Anandpur (1700)आनंदपुर साहिब का युद्ध
Battle of Anandpur Sahib (1701) निर्मोहगढ़ का युद्ध
Battle of Nirmohgarh (1702) बसोली का युद्ध
Battle of Basoli (1702) आनंदपुर का युद्ध
Battle of Anandpur (1704) सरसा का युद्ध
Battle of Sarsa (1704) चमकौर का युद्ध
Battle of Chamkaur (1704) मुक्तसर का युद्ध Battle of Muktsar (1705)
परिवार के लोगों की मृत्यु :
कहा जाता है कि सरहिन्द के मुस्लिम गवर्नर ने गुरु गोविंद सिंह की माता और दो पुत्रो॔ को बंदी बना लिया था। जब उनके दोनों पुत्रों ने इस्लाम धर्म को कुबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें दीवार में जिन्दा चुनवा दिया गया। अपने पोतों के मृत्यु के दुःख को ना सह सकने के कारण माता गुजरी भी ज्यादा दिन तक जीवित ना रह सकी और जल्द ही उनकी मृत्यु हो गयी। मुगल सेना के साथ युद्ध करते हुए 1704 में उनके दोनों बड़े बेटों ने धीर गति पाई थी।
ज़फ़रनामा :
गुरु गोविंद सिंह ने जब देखा कि मुगल सेना ने धोखे और क्रूरता से उनके पुत्रों की हत्या कर दी है तो हथियार डाल देने के बजाय उन्होंने औरंगजेब को एक ज़फ़रनामा (विजय की चिट्ठी) लिखी, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई सन् 1705 में ‘मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। मुक्तसर को पंजाब में दोबारा गुरु जी ने मिलाया और आदि ग्रन्थ (Aadi Granth) के नए अध्याय को बनाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया, जो पांचवें सिख गुरु अर्जुन देव जी द्वारा संकलित किया गया था।
उन्होंने अपने लेखन का एक संग्रह बनाया , जिसको नाम दिया दसम ग्रन्थ Dasam Granth और अपनी स्वयं की आत्मकथा जिसका नाम रखा बिचित्र नाटक ( Bicitra Natak )
अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर उनको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था।
हैरानी की बात है, कि जो सब कुछ ( लौकिक संपत्ति, पुत्र,परिवार ) लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्तनामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।
अन्तिम समय :
औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया और 7अक्टूबर, 1708 को गुरुजी (गुरु गोविन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय में सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी की शहीदी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया, बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, उन्होंने सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।
गुरु गोविंद सिंह का नारा था : ‘चिड़ियों से मैं बाज़ लड़ाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं ।
जिनका एक-एक सिपाही मुगलों को धूल चटा देता था, जिनका नाम सुनते ही औरंगजेब के पसीने छूटने लगते थे, उन गुरु गोविंद सिंह जी को प्राणों से प्यारा था धर्म।
धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गए , ऐसे गुरु गोविंद सिंह जी को शत्- शत् नमन
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