होली का इतिहास और सालभर स्वथ्य रहने के उपाय क्या हैं ?

24  March 2024

 

 

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता है । वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव भी कहा गया है।

 

वैदिक, प्राचीन एवं विश्वप्रिय उत्सव

 

यह होलिकोत्सव प्राकृतिक, प्राचीन व वैदिक उत्सव है। साथ ही यह आरोग्य, आनंद और आह्लाद प्रदायक उत्सव भी है, जो प्राणिमात्र के राग-द्वेष मिटाकर, दूरी मिटाकर हमें संदेश देता है कि हो… ली… अर्थात् जो हो गया सो हो गया।

यह वैदिक उत्सव है। लाखों वर्ष पहले भगवान रामजी हो गये। उनसे पहले उनके पिता, पितामह, पितामह के पितामह दिलीप राजा और उनके बाद रघु राजा… रघु राजा के राज्य में भी यह महोत्सव मनाया जाता था।

 

होली का प्राचीन इतिहास…

 

पृथ्वी, अप, तेज, वायु एवं आकाश इन पांच तत्त्वों की सहायतावल से देवता के तत्त्व को पृथ्वी पर प्रकट करने के लिए यज्ञ ही एक माध्यम है। जब पृथ्वी पर एक भी स्पंदन नहीं था, उस समय के प्रथम त्रेतायुग में पंचतत्त्वों में विष्णुतत्त्व प्रकट होने का समय आया। तब परमेश्वर द्वारा एक साथ सात ऋषि-मुनियोंको स्वप्नदृष्टांत में यज्ञ के बारे में ज्ञान हुआ । उन्होंने यज्ञ की सिद्धताएं (तैयारियां) आरंभ की। नारदमुनि के मार्गदर्शनानुसार यज्ञ का आरंभ हुआ। मंत्रघोष के साथ सबने विष्णुतत्त्व का आवाहन किया। यज्ञ की ज्वालाओं के साथ यज्ञकुंड में विष्णुतत्त्व प्रकट होने लगा। इससे पृथ्वी पर विद्यमान अनिष्ट शक्तियों को कष्ट होने लगा। उनमें भगदड़ मच गई। उन्हें अपने कष्ट का कारण समझ में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे श्रीविष्णु पूर्ण रूप से प्रकट हुए। ऋषि-मुनियों के साथ वहां उपस्थित सभी भक्तों को श्रीविष्णुजीके दर्शन हुए। उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी। इस प्रकार त्रेतायुग के प्रथम यज्ञ के स्मरणमें होली मनाई जाती है। होली के संदर्भ में शास्त्रों एवं पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं।

 

प्रह्लाद की भक्ति के कारण होली परम्परा शुरू हुई:

 

प्राचीन काल में अत्याचारी राक्षसराज हिरण्यकश्यपु ने तपस्या करके भगवान ब्रह्माजीसे वरदान पा लिया कि, संसार का कोई भी जीव-जन्तु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे न मार सके। न ही वह रात में मरे, न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर में, न बाहर । यहां तक कि कोई शस्त्र भी उसे न मार पाए।

ऐसा वरदान पाकर वह अत्यंत निरंकुश बन बैठा । हिरण्यकश्यपु के यहां प्रह्लाद जैसा परमात्मा में अटूट विश्वास करने वाला भक्त पुत्र पैदा हुआ । प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और उस पर भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि थी।

 

हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को आदेश दिया कि वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति न करे। प्रह्लाद के न मानने पर हिरण्यकश्यपु ने उसे जान से मारने का निश्चय किया । उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन प्रभु-कृपा से वह बचता रहा।

 

हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रहलाद को आग में जलाकर मारने की योजना बनाई।

 

होलिका बालक प्रह्लाद को गोद में उठा जलाकर मारने के उद्देश्य से आग में जा बैठी । लेकिन परिणाम उल्टा ही हुआ । होलिका ही अग्नि में जलकर वहीं भस्म हो गई और भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया । तभी से होली का त्यौहार मनाया जाने लगा ।

 

तत्पश्चात् हिरण्यकश्यपु को मारने के लिए भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में खंभे से प्रगटे और संधिकाल में दरवाजे की चौखट पर बैठकर अत्याचारी हिरण्यकश्यपु को मार डाला।

 

पूरे साल स्वस्थ्य रहने के लिए क्या करें होली पर..??

 

1- होली के बाद 15-20 दिन तक बिना नमक का अथवा कम नमकवाला भोजन करना स्वास्थ्य के लिए हितकारी है ।

 

2- इन दिनों में भुने हुए चने – ‘होला का सेवन शरीर से वात, कफ आदि दोषों का शमन करता है।

 

3- एक महीना इन दिनों सुबह नीम के 20-25 कोमल पत्ते और एक काली मिर्च चबा के खाने से व्यक्ति वर्षभर निरोग रहता है ।

 

4- होली के दिन चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य हुआ था। इन दिनों में हरिनाम कीर्तन करना-कराना चाहिए। नाचना, कूदना-फाँदना चाहिए जिससे जमे हुए कफ की छोटी-मोटी गाँठें भी पिघल जायें और वे ट्यूमर कैंसर का रूप न ले पाएं और कोई दिमाग या कमर का ट्यूमर भी न हो। होली पर नाचने, कूदने-फाँदने से मनुष्य स्वस्थ रहता है।

 

5 – लट्ठी-खेंच कार्यक्रम करना चाहिए, यह बलवर्धक है।

 

6 – होली जले उसकी गर्मी का भी थोड़ा फायदा लेना, लावा का फायदा लेना।

 

7 – मंत्र सिद्धि के लिए होली की रात्रि को भगवान नाम का जप अवश्य करें।

 

हमारे ऋषि-मुनियों ने विविध त्यौहारों द्वारा ऐसी सुंदर व्यवस्था की जिससे हमारे जीवन में आनंद व उत्साह बना रहे।

( स्त्रोत्र : संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित ऋषि प्रसाद पत्रिका से)

 

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