09 दिसंबर 2018
भारत की वीरांगना का इतिहास अगर आज की नारियों, बालिकाओं को पढ़ाया जाता तो यकीनन उन्हें ताराबाई बनने की प्रेरणा मिलती । साथ ही अगर इनके गौरवशाली इतिहास को पुरुष पढ़ते तो किसी नारी की तरफ कुदृष्टि करने की हिम्मत न करते, लेकिन कलम हमेशा उनके हाथों में रही जो क्रूर मतान्ध औरंगज़ेब के गुणगान को लिखती रही और इतिहासकार वो सम्मानित रहे जो आज कल अपनी सेल्फी ले कर शान से कहते हैं कि वो गौ मांस खा रहे हैं । कल्पना कीजिये कि क्या ऐसे लोगों के हाथों में इतिहास सुरक्षित रहा होगा और कम से कम हिन्दू वीर या वीरांगनाओं को उचित स्थान या उचित सम्मान मिला रहा होगा ? अरे जिन्होंने स्वयं हिंदवी सम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज को उचित स्थान नही दिया उनसे उनकी बहू के लिए स्थान या सम्मान की आशा निरर्थक है ।
Aurangzeb could not go back due to the bravery of Veerangana Tarabai |
भारत के इतिहास की पुस्तकों में अधिकांशतः हिन्दू राजाओं-रानियों एवं योद्धाओं को “पराजित” अथवा युद्धरत ही दर्शाया गया है । विजेता हिन्दू योद्धाओं के साम्राज्य, उनकी युद्ध रणनीति, उनके कौशल का उल्लेख या तो पुस्तकों में है ही नहीं अथवा बहुत ही कम किया गया है । ज़ाहिर है कि यह जानबूझकर एवं व्यवस्थित रूप से इतिहास को विकृत करने का एक सोचा-समझा दुष्कृत्य है । जिस समय औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में भी अपने पैर जमा चुका था, उसकी इच्छा थी कि पश्चिमी भारत को भी जीतकर वह मुग़ल साम्राज्य को अखिल भारतीय बना दे । परन्तु उसके इस सपने को तोड़ने वाला योद्धा कोई और नहीं, बल्कि एक महिला थी, जिसका नाम था “ताराबाई” । ताराबाई के बारे में इतिहास की पुस्तकों में अधिक उल्लेख नहीं है, क्योंकि वास्तव में उसने छत्रपति शिवाजी की तरह कोई साम्राज्य खड़ा नहीं किया, परन्तु इस बात का श्रेय उसे अवश्य दिया जाएगा कि यदि ताराबाई नहीं होतीं तो न सिर्फ हिन्दू व मराठा साम्राज्य का इतिहास, बल्कि औरंगज़ेब द्वारा स्थापित मुग़ल साम्राज्य के बाद आधुनिक भारत का इतिहास भी कुछ और ही होता ।
जिस समय मराठा साम्राज्य पश्चिमी भारत में लगातार कमज़ोर होता जा रहा था तथा औरंगजेब मराठाओं के किले-दर-किले पर अपना कब्ज़ा करता जा रहा था, उस समय ताराबाई (1675-1761) ने सारे सूत्र अपने हाथों में लेते हुए न सिर्फ मराठा साम्राज्य को खण्ड-खण्ड होने से बचाया, बल्कि औरंगज़ेब को हार मानने पर मजबूर कर दिया । छत्रपति शिवाजी के प्रमुख सेनापति हम्बीर राव मोहिते की कन्या ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ, ताराबाई ने अपने पूरे जीवनकाल में मराठा साम्राज्य में शिवाजी के राज्याभिषेक से लेकर सन 1700 में औरंगजेब के हाथों कमज़ोर किए जाने तथा उसके बाद पुनः जोरदार वापसी करते हुए सन 1760 में लगभग पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य की पताका फहराते देखा और अंत में सन 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के हाथों मराठों की भीषण पराजय भी देखी । ताराबाई का विवाह आठ वर्ष की आयु में शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम के साथ किया गया । छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक के कुछ वर्ष बाद ही 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई । यह खबर मिलते ही क्रूर औरंगज़ेब बहुत खुश हो गया । शिवाजी ने औरंगज़ेब को बहुत नुकसान पहुँचाया था, इसलिए औरंगज़ेब चिढ़कर उन्हें “पहाड़ी चूहा” कहकर बुलाता था । आगरा के किले से शिवाजी द्वारा चालाकी से फलों की टोकरी में बैठकर भाग निकलने को औरंगज़ेब अपनी भीषण पराजय मानता था, वह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया । इसलिए शिवाजी की मौत के पश्चात उसने सोचा कि अब यह सही मौका है जब दक्षिण में अपना आधार बनाकर समूचे पश्चिम भारत पर साम्राज्य स्थापित कर लिया जाए ।
छत्रपति शिवाजी महराज के बलिदान के पश्चात उनके पुत्र संभाजी राजा बने और उन्होंने बीजापुर सहित मुगलों के अन्य ठिकानों पर हमले जारी रखे । 1682 में औरंगजेब ने दक्षिण में अपना ठिकाना बनाया, ताकि वहीं रहकर वह फ़ौज पर नियंत्रण रख सके और पूरे भारत पर साम्राज्य का सपना सच कर सके । उस बेचारे को क्या पता था कि अगले 25 साल वह दिल्ली वापस नहीं लौट सकेगा और दक्षिण भारत फतह करने का सपना उसकी मृत्यु के साथ ही दफ़न हो जाएगा । हालाँकि औरंगजेब की शुरुआत तो अच्छी हुई थी, और उसने 1686 और 1687 में बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर अपना कब्ज़ा कर लिया था । इसके बाद उसने अपनी सारी शक्ति मराठाओं के खिलाफ झोंक दी, जो उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे ।
मुगलों की भारीभरकम सेना की पूरी शक्ति के आगे धीरे-धीरे मराठों के हाथों से एक-एक करके किले निकलने लगे और मराठों ने ऊँचे किलों और घने जंगलों को अपना ठिकाना बना लिया । औरंगजेब ने विपक्षी सेना में रिश्वत बाँटने का खेल शुरू किया और गद्दारों की वजह से संभाजी महाराज को संगमेश्वर के जंगलों के 1689 में औरंगजेब ने पकड़ लिया । औरंगजेब ने संभाजी से इस्लाम कबूल करने को कहा, संभाजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दे तो वह इस्लाम कबूल कर लेंगे, यह सुनकर औरंगजेब आगबबूला हो उठा । उसने संभाजी की जीभ काट दी और आँखें फोड़ दीं, संभाजी को अत्यधिक यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने अंत तक इस्लाम कबूल नहीं किया और फिर औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर दी ।
औरंगजेब लगातार किले फतह करता जा रहा था । संभाजी का दुधमुंहे बच्चा “शिवाजी द्वितीय” अब आधिकारिक रूप से मराठा राज्य का उत्तराधिकारी था । औरंगजेब ने इस बच्चे का अपहरण करके उसे अपने हरम में रखने का फैसला किया ताकि भविष्य में सौदेबाजी की जा सके । चूँकि औरंगजेब “शिवाजी” नाम से ही चिढता था, इसलिए उसने इस बच्चे का नाम बदलकर शाहू रख दिया और अपनी पुत्री जीनतुन्निसा को सौंप दिया कि वह उसका पालन-पोषण करे । औरंगजेब यह सोचकर बेहद खुश था कि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है और बस अब उसकी विजय निश्चित ही है । लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया ।
संभाजी की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद संभाजी का छोटा भाई राजाराम अर्थात ताराबाई के पति ने मराठा साम्राज्य के सूत्र अपने हाथ में लिए । उन्होंने महसूस किया कि इस क्षेत्र में रहकर मुगलों की इतनी बड़ी सेना से लगातार युद्ध करना संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने पिता शिवाजी से प्रेरणा लेकर, अपने विश्वस्त साथियों के साथ लिंगायत धार्मिक समूह का भेष बदला और गाते-बजाते आराम से सुदूर दक्षिण में जिंजी के किले में अपना डेरा डाल दिया । इसके बाद चमत्कारिक रूप से राजाराम ने जिंजी के किले से ही मुगलों के खिलाफ जमकर गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत की । उस समय उनके सेनापति थे रामचंद्र नीलकंठ । राजाराम की सेना ने छिपकर वार करते हुए एक वर्ष के अंदर मुगलों की सेना के दस हजार सैनिक मार गिराए और उनका लाखों रूपए खर्च करा दिया । औरंगज़ेब बुरी तरह परेशान हो उठा । दक्षिण की रियासतों से औरंगज़ेब को मिलने वाली राजस्व की रकम सिर्फ दस प्रतिशत ही रह गई थी, क्योंकि राजाराम की सफलता को देखते हुए बहुत सी रियासतों ने उस गुरिल्ला युद्ध में राजाराम का साथ देने का फैसला किया । औरंगज़ेब के जनरल जुल्फिकार अली खान ने जिंजी के इस किले को चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु पता नहीं किन गुप्त मार्गों से फिर भी राजाराम अपना गुरिल्ला युद्ध लगातार जारी रखे हुए थे । यह सिलसिला लगभग आठ वर्ष तक चला । अंततः औरंगज़ेब का धैर्य जवाब दे गया और उसने जुल्फिकार से कह दिया कि यदि उसने जिंजी के किले पर विजय हासिल नहीं की तो गंभीर परिणाम होंगे । जुल्फिकार ने नई योजना बनाकर किले तक पहुँचने वाले अन्न और पानी को रोक दिया । राजाराम ने जुल्फिकार से एक समझौता किया कि यदि वह उन्हें और उनके परिजनों को सुरक्षित जाने दे तो वे जिंजी का किला समर्पण कर देंगे । ऐसा ही किया गया और राजाराम 1697 में अपने समस्त कुनबे और विश्वस्तों के साथ पुनः महाराष्ट्र पहुँचे और उन्होंने सातारा को अपनी राजधानी बनाया ।
82 वर्ष की आयु तक पहुँच चुका औरंगज़ेब दक्षिण भारत में बुरी तरह उलझ गया था और थक भी गया था । अंततः सन 1700 में उसे यह खबर मिली की किसी बीमारी के कारण राजाराम की मृत्यु हो गई है । अब मराठाओं के पास राज्याभिषेक के नाम पर सिर्फ विधवाएँ और दो छोटे-छोटे बच्चे ही बचे थे । औरंगजेब पुनः प्रसन्न हुआ कि चलो अंततः मराठा साम्राज्य समाप्त होने को है । लेकिन वह फिर से गलत साबित हुआ… क्योंकि 25 वर्षीय रानी ताराबाई ने सत्ता के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए और अपने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को राजा घोषित कर दिया । अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए ताराबाई ने मराठा सरदारों को साम-दाम-दण्ड-भेद सभी पद्धतियाँ अपनाते हुए अपनी तरफ मिलाया और राजाराम की दूसरी रानी राजसबाई को जेल में डाल दिया । मुग़ल इतिहासकार खफी खान लिखते हैं – “राजाराम के साथ रहकर ताराबाई भी गुरिल्ला युद्ध और सेना की रणनीतियों से खासी परिचित हो गई थीं और उन्होंने अपनी बहादुरी से कई मराठा सरदारों को प्रभावित भी किया था” ।
अगले सात वर्ष में, अर्थात सन 1700 से 1707 तक ताराबाई ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली बादशाह अर्थात औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा । वह लगातार आक्रमण करतीं, अपनी सेना को उत्साहित करतीं और किले बदलती रहतीं । ताराबाई ने भी औरंगजेब की रिश्वत तकनीक अपना ली और विरोधी सेनाओं के कई गुप्त राज़ मालूम कर लिए । धीरे-धीरे ताराबाई ने अपनी सेना और जनता का विश्वास अर्जित कर लिया । औरंगजेब जो कि थक चुका था, उसके सामने मराठों की शक्ति पुनः दिनोंदिन बढ़ने लगी थी ।
ताराबाई ने औरंगजेब को जिस रणनीति से सबसे अधिक चौंकाया और तकलीफ दी, वह थी गैर-मराठा क्षेत्रों में घुसपैठ । चूँकि औरंगजेब का सारा ध्यान दक्षिण और पश्चिमी घाटों पर लगा था, इसलिए मालवा और गुजरात में उसकी सेनाएँ कमज़ोर हो गई थीं । ताराबाई ने सूरत की तरफ से मुगलों के क्षेत्रों पर आक्रमण करना शुरू किया और धीरे-धीरे (आज के पश्चिमी मप्र) आगे बढ़ते हुए कई स्थानों पर अपनी वसूली चौकियां स्थापित कर लीं । ताराबाई ने इन सभी क्षेत्रों में अपने कमाण्डर स्थापित कर दिए और उन्हें सुबेदार, कमाविजदार, राहदार, चिटणीस जैसे विभिन्न पदानुक्रम में व्यवस्थित भी किया ।
मराठाओं को खत्म नहीं कर पाने की कसक लिए हुए सन 1707 में 89 की आयु में औरंगजेब की मृत्यु हुई । वह बुरी तरह टूट और थक चुका था, अंतिम समय पर उसने औरंगाबाद में अपना ठिकाना बनाने का फैसला किया, जहाँ उसकी मौत भी हुई और आखिरकार अंत तक वह दिल्ली नहीं लौट सका । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए पुत्र शाहू को मुक्त कर दिया, ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके । यह पता चलते ही रानी ताराबाई ने शाहू को “गद्दार” घोषित कर दिया । ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को यह बताया कि इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री द्वारा पाले जाने के कारण शाहू अब मुस्लिम बन चुका है, और वह मराठा साम्राज्य का राजा बनने लायक नहीं है । रानी ताराबाई के इस दावे की पुष्टि खुद शाहू ने की, जब वह औरंगजेब को श्रद्धांजलि अर्पित करने नंगे पैरों उसकी कब्र पर गया । ताराबाई के कई प्रयासों के बावजूद शाहू मुग़ल सेनाओं के समर्थन से लगातार जीतता गया और सन 1708 में उसने सातारा पर कब्ज़ा किया, जहाँ उसे राजा घोषित करना पड़ा, क्योंकि उसे मुगलों का भी समर्थन हासिल था ।
ताराबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं, उन्होंने अगले कुछ वर्ष के लिए अपने मराठा राज्य की नई राजधानी पन्हाला में स्थानांतरित कर दी । अगले पाँच-छह वर्ष शाहू और ताराबाई के बीच लगातार युद्ध चलते रहे । मजे की बात यह कि इन दोनों ने ही दक्षिण में मुगलों के किलों और उनके राजस्व वसूली को निशाना बनाया और चौथ वसूली की । आखिरकार शाहू भी ताराबाई से लड़ते-लड़ते थक गया और उसने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना “पेशवा” (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया । बाजीराव पेशवा के नाम से मशहूर यह योद्धा युद्ध तकनीक और रणनीतियों का जबरदस्त ज्ञाता था । बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर 1714 में ताराबाई को पराजित किया तथा उसे उसके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया, जहाँ ताराबाई और अगले 16 वर्ष कैद रही ।
1730 तक ताराबाई पन्हाला में कैद रही, लेकिन इतने वर्षों के पश्चात शाहू जो कि अब छत्रपति शाहूजी महाराज कहलाते थे उन्होंने विवादों को खत्म करते हुए सभी को क्षमादान करने का निर्णय लिया ताकि परिवार को एकत्रित रखा जा सके । हालाँकि उन्होंने ताराबाई के इतिहास को देखते हुए उन्हें सातारा में नजरबन्द रखा, लेकिन संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर में छोटी सी रियासत देकर उन्हें वहाँ शान्ति से रहने के लिए भेज दिया । बालाजी विश्वनाथ उर्फ बाजीराव पेशवा प्रथम और द्वितीय की मदद से शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को समूचे उत्तर भारत तक फैलाया । 1748 में शाहूजी अत्यधिक बीमार पड़े और लगभग मृत्यु शैय्या पर ही थे, उस समय ताराबाई 73 वर्ष की हो चुकी थीं लेकिन उनके दिमाग में मराठा साम्राज्य की रक्षा और सत्ता समीकरण घूम रहे थे । शाहूजी महाराज के बाद कौन?? यह सवाल ताराबाई के दिमाग में घूम रहा था । वह पेशवाओं को अपना साम्राज्य इतनी आसानी से देना नहीं चाहती थीं । तब ताराबाई ने एक फर्जी कहानी गढी और लोगों से बताया कि उसका एक पोता भी है, जिसे शाहूजी महाराज के डर से उसके बेटे ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गोद दे दिया था, उसका नाम रामराजा है और अब वह 22 साल का हो चुका है, उसका राज्याभिषेक होना चाहिए । ताराबाई मजबूती से अपनी यह बात शाहूजी को मनवाने में सफल हो गईं और इस तरह 1750 में उस नकली राजकुमार रामराजा के बहाने ताराबाई पुनः मराठा साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई । रामाराजा को उसने कभी भी स्वतन्त्र रूप से काम नहीं करने दिया और सदैव परदे के पीछे से सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखे ।
इस बीच मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था । इतना बड़ा साम्राज्य संभालना ताराबाई और रामराजा के बस की बात नहीं थी, हालाँकि गायकवाड़, भोसले, शिंदे, होलकर जैसे कई सेनापति इसे संभालते थे, परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी । अंततः ताराबाई को पेशवाओं से समझौता करना पड़ा । मराठा सेनापति, सूबेदार, और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे अतः ताराबाई को सातारा पर ही संतुष्ट होना पड़ा और मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई । ताराबाई 1761 तक जीवित रही । जब उन्होंने अब्दाली के हाथों पानीपत के युद्ध में लगभग दो लाख मराठों को मरते देखा तब उस धक्के को वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और अंततः 86 की आयु में ताराबाई का निधन हुआ । परन्तु इतिहास गवाह है कि यदि 1701 में ताराबाई ने सत्ता और मराठा योद्धाओं के सूत्र अपने हाथ में नहीं लिए होते, औरंगज़ेब को स्थान-स्थान पर रणनीतिक मात नहीं दी होती और मालवा-गुजरात तक अपना युद्धक्षेत्र नहीं फैलाया होता तो निश्चित ही औरंगज़ेब समूचे पश्चिमी घाट पर कब्ज़ा कर लेता । मराठों का कोई नामलेवा नहीं बचता और आज की तारीख में इस देश का इतिहास कुछ और ही होता । समूचे भारत पर मुग़ल सल्तनत बनाने का औरंगज़ेब का सपना, सपना ही रह गया । इस वीर मराठा स्त्री ने औरंगज़ेब को वहीं युद्ध में उलझाए रखा, दिल्ली तक लौटने नहीं दिया । औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत वैसे ही कमज़ोर पड़ गई थी । इस वीरांगना ने अकेले दम पर जहाँ एक तरफ औरंगज़ेब जैसे शक्तिशाली मुगल बादशाह को बुरी तरह थकाया, हराया और परेशान किया, वहीं दूसरी तरफ धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य को भी आगे बढाती रहीं…
एक समय पर मराठों का साम्राज्य दक्षिण में तंजावूर से लेकर अटक (आज का अफगानिस्तान) तक था, लेकिन आपको अक्सर इस इतिहास से वंचित रखा जाता है और विदेशी हमलावरों तथा लुटेरों को विजेता, दयालु और महान बताया जाता है, सोचिए कि ऐसा क्यों है ? आज 9 दिसम्बर को भगवा ध्वज वाहिका, छत्रपति शिवजी महराज की बहू वीरांगना महारानी ताराबाई जी की पुण्यतिथि पर उनको बारम्बार नमन और वंदन करते है, जिन्होंने क्रूर, मतान्ध औरंगज़ेब को उस के अरमानों के साथ दक्षिण में ही दफन करते हुए अन्य सभी मत मज़हब वाले लोगों को प्रदान की निर्भयता ।
स्त्रोत : सुदर्शन न्यूज़
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