हिन्दू दुर्दशा : हिन्दुओं की समानता के लिए पेश हुए विधेयक पर कोई चर्चा नहीं

06 नवंबर 2020

 
लोकसभा में एक अनोखा बिल विचार के लिए पड़ा हुआ है। ये बिल 226/2016 है। संविधान के अनुच्छेद 25-30 की सही व्याख्या तथा अनुच्छेद 15 में गलत संशोधन को रद्द करने से संबंधित है। इसे भाजपा सांसद डॉ. सत्यपाल सिंह ने निजी विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया था। यह मार्च 2017 से लोकसभा में विचार के लिए लंबित है।
 

 

 
ठीक ऐसा ही विधेयक सैयद शहाबुद्दीन ने दसवीं लोक सभा में अप्रैल 1995 में रखा था। ये बिल 36/1995 था। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 30 के उपबन्धों में जहाँ-जहाँ ‘सभी अल्पसंख्यक’ लिखा हुआ था, उसे बदल कर ‘भारतीय नागरिकों का कोई भी वर्ग’ करने का प्रस्ताव दिया था। उनके विधेयक का मूल पाठ (नं 36/1995) पढ़ कर उसका महत्व समझा जा सकता है।
 
शहाबुद्दीन ने अपने विधेयक के उद्देश्य में भी स्पष्ट किया था कि वर्तमान रूप में अनुच्छेद 30 केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होती है। जबकि एक विशाल और विविधता भरे समाज में लगभग सभी समूह चाहे जिनकी पहचान धर्म, संप्रदाय, फिरका, भाषा और बोली किसी आधार पर होती हो, व्यवहारिक स्तर पर कहीं ना कहीं अल्पसंख्यक ही होता है, चाहे किसी खास स्तर पर वह बहुसंख्यक ही क्यों ना हो। आज विश्व में सांस्कृतिक पहचान के उभार के दौर में हर समूह अपनी पहचान बनाने के प्रति समान रूप से चिंतित है और अपनी पसंद की शैक्षिक संस्था बनाने की सुविधा चाहता है। इसीलिए, यह उचित होगा कि संविधान के अनुच्छेद 30 के दायरे में देश के सभी समुदाय और हिस्से सम्मिलित किये जाए।
 
शहाबुद्दीन ने यह भी लिखा था कि जो बहुसंख्यकों को प्राप्त नहीं, वैसी विशेष सुविधा अल्पसंख्यक समूहों को देने के लिए अनुच्छेद 30 की निंदा होती रही है। अतः बहुसंख्यकों को भी अपनी शैक्षिक संस्थाएं बनाने, चलाने का समान अधिकार मिलना चाहिए।
 
यह हिन्दू समाज विशेषकर इसके नेताओं की अचेतावस्था का प्रमाण है कि वह विधेयक यूँ ही पड़ा-पड़ा खत्म हो जाने दिया गया। उसे पारित करना आसान था, जिसे तब सबसे प्रखर मुस्लिम नेता ने पेश किया था। उसे पारित कर अल्पसंख्यकवाद की जड़ खत्म हो सकती थी क्योंकि उसी धारा के विकृत पाठ ने हिन्दुओं को अनेक सुविधाओं से वंचित किया है। यद्यपि संविधान-निर्माताओं का आशय वह नहीं था। संविधान सभा की बहस दिखाती है कि उनकी चिंता मात्र यह थी कि किसी अल्पसंख्यक को अपनी सांस्कृतिक, शैक्षिक विरासत से वंचित ना रहना पड़े। लेकिन समय के साथ उस अनुच्छेद का विकृत अर्थ कर डाला गया कि वह अधिकार केवल अल्पसंख्यकों को है। इस तरह अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकारी वर्ग बनाकर नेहरू नेतृत्व वाली कांग्रेस ने हिन्दू-विरोध को संवैधानिक रूप दे दिया। फिर अन्य दल भी वोटबैंक की राजनीति के लोभ में गिर गए। इसीलिए आश्चर्य से अधिक यह लज्जा की बात है कि 1995 में सैयद शहाबुद्दीन द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण अवसर को तमाम हिन्दू नेताओं ने गँवा दिया।
 
वैसा ही एक और विधेयक 226/2016 विधेयक लोकसभा में 2017 से लंबित है। उसमें अनुच्छेद 26-30 के बारे में वहीं मांग है कि इन अनुच्छेदों को देश के सभी लोगों पर समान रूप से लागू माना जाए ताकि केवल विशेष समूहों को वित्तीय सहायता, केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा, हिन्दू ज्ञान-ग्रंथों को स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से बहिष्कृत किए रखने तथा अपने शैक्षिक संस्थान चलाने में भेदभाव जैसी गड़बड़ियाँ दूर हों। अन्यथा भारत में ही हिन्दू दूसरे दर्जे के नागरिक बने रहने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
 
भारतीय संविधान के अनुसार देश का कोई धर्म नहीं होता। देश को हर धर्म का बराबर सम्मान करना चाहिए। देश को किसी भी धार्मिक स्वतंत्रता, आस्था और श्रद्धा में दखल नहीं करना चाहिए। साक्ष्यों से पता चलता है आज़ादी के बाद कि बहुसंख्यकों (हिन्दू) के अधिकारों का हनन कर अल्पसंख्यकों को फायदा पहुँचाया गया। इस भेदभाव से बहुसंख्यक वर्ग में भारी रोष है। ये देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा है। हिन्दुओं को समानता दिलाने के लिए विधेयक 226/2016 में ये मुख्य संशोधन सुझाए हैं 👇🏻
 
(1) अनुच्छेद 15 के खंड 5 को रद्द किया जाए जो 2005 में संविधान के 93वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया। इसके अनुसार राज्य को सामाजिक एवं अशैक्षिणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिये शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश से में सहायता प्रदान करने का प्रावधान है जो अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं से भिन्न हो। तो इससे बस हिन्दुओं के शिक्षा संस्थानों का शोषण हो रहा है और मुस्लिमों के शिक्षण संस्थानों की तरफ कोई उंगली भी नहीं उठाता।
 
(2) अनुच्छेद 26 अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के भेदभाव बिना धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संस्थानों को स्थापित करने और बनाए रखने के लिए, अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करने और संपत्ति का स्वामित्व रखने और प्रबंधन करने का अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी यहीं मिलता है। संविधान के मौजूदा अनुच्छेद 26 को खंड (1) को फिर से वर्गीकृत किया जाए और निम्न खंड क्रमशः डाले जाए 👇🏻
 
(a) अनुच्छेद 25 में निहित कुछ भी होने के बावजूद, राज्य किसी भी धार्मिक संप्रदाय द्वारा धार्मिक या धर्मार्थ प्रयोजनों पर नियंत्रण, प्रतिबंध और प्रबंधित नहीं करेगा।
 
(b) राज्य कोई भी कानून नहीं बनाएगा जो धार्मिक सम्प्रदाय को नियंत्रित करने, प्रशासन या प्रबंधन करने में सक्षम बनाता है।  अगर कोई भी कानून इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया, इस तरह के उल्लंघन की सीमा तक शून्य हो जाएगा।
 
(3) संविधान के मौजूदा अनुच्छेद 27 के खंड (1) को फिर से इस रूप में वर्गीकृत किया जाए जिससे भारत के किसी भी कोष का देश या देश के बाहर विशेष धर्म पर खर्च ना किया जा सके।
 
(4) संविधान के अनुच्छेद 28 में, खंड (3) के बाद, निम्नलिखित खंड डाला जाए जिससे किसी भी शिक्षण संस्थान में पारंपरिक भारतीय ज्ञान या प्राचीन ग्रंथों को पढ़ाने से पूरी तरह से या आंशिक रूप से कोई बाधा ना रहे।
 
(5) संविधान के अनुच्छेद 29 में सीमांत शीर्षकों में, “अल्पसंख्यकों के हितों” शब्दों की जगह “सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार” शब्दों को प्रतिस्थापित किया जाए।
 
(6) संविधान के अनुच्छेद 30 में👇🏻
 
(a) “अल्पसंख्यकों” शब्द की जगह सीमांत शीर्षक में “नागरिकों के सभी वर्गों, चाहे धर्म या भाषा पर आधारित हों” शब्द प्रतिस्थापित किए जाए।
 
(b) खंड (1) में “अल्पसंख्यकों” शब्द की जगह “नागरिकों के वर्गों” शब्द को प्रतिस्थापित किया जाए।
 
(c) “अल्पसंख्यक” शब्द की जगह क्लॉज (1 ए) में “नागरिकों का एक वर्ग” शब्द को प्रतिस्थापित किया जाए।
 
(d) खंड (2) में “अल्पसंख्यक” शब्द की जगह “नागरिकों का एक वर्ग” शब्द को प्रतिस्थापित किया जाए।
 
क्या विडंबना है कि हिन्दुओं की यह दुर्दशा ब्रिटिश राज में नहीं, कांग्रेस राज में शुरू की गई।
 
डॉ. सत्यपाल सिंह का विधेयक पूरी तरह समानता-परक है। यह किसी समुदाय को मिले हुए किसी अधिकार से वंचित नहीं करता, बल्कि सबको वही अधिकार देने की माँग करता है। स्वभाविक है कि इससे भारत में सांप्रदायिक भेदभाव की राजनीति कमजोर होगी और लोगों में सामंजस्य बढ़ेगा।
 
अभी तक अनुच्छेद 26-30 की विकृत व्याख्या ने सब कुछ बिगाड़ रखा है। अनुच्छेद 28 का विकृत अर्थ करके स्कूलों में रामायण, महाभारत पढाना प्रतिबंधित रखा गया है। जबकि ईसाई और मुस्लिम अपने-अपने शैक्षिक संस्थाओं में बाइबिल और कुरान जमकर पढ़ाते हैं। इस भेदभाव के कितने गंभीर दुष्परिणाम हुए, इसका भान भी पार्टी-ग्रस्त हिन्दुत्ववादियों को नहीं है। दिनो-दिन हिन्दू परिवारों के बच्चे धर्महीन, विचारहीन और हिन्दू-द्वेषी बनते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि आरंभ से ही उन्हें हिन्दू ज्ञान से वंचित रखा जाता है। इसलिए वे समय के साथ ईसाई, कम्युनिस्ट, इस्लामी, भोगवादी, पश्चिम-परस्त विचारों से भर जाते हैं। वे उन्हीं बातों को ‘शिक्षा’ समझते हैं क्योंकि तमाम औपचारिक-अनौपचारिक माध्यमों से उन्हें वहीं सब जानने, सुनने को मिलता रहा।
 
आखिर क्या कारण कि जेएनयू, एनडीटीवी, फ्रंटलाइन, ईपीडब्ल्यू, आदि नामी बौद्धिक अड्डों से हिन्दू-द्वेषी प्रचार चलाने वाले लगभग सभी जन हिन्दू परिवारों से हैं? वैसे ही इस्लाम-द्वेषी मुस्लिम या चर्च-द्वेषी ईसाई प्रोफेसर, पत्रकार, बुद्धिजीवी क्यों नहीं मिलते? सारे प्रभावशाली बुद्धिजीवी केवल हिन्दू-निंदक हैं। इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दू ज्ञान को शिक्षा से बाहर रखना ही है। मुस्लिम और ईसाई बुद्धिजीवी इस्लामी और ईसाई साहित्य या परंपरा के विरुद्ध कुछ नहीं बोलते। उनकी शिक्षा में उन जड़-मतवादों के प्रति भी सम्मान रखना सिखाया गया है। जबकि हिन्दुओं की शिक्षा उलटी कर दी गई है।
 
उसी तरह अनुच्छेद 26 सभी धार्मिक समूहों को अपने धार्मिक संस्थान बनाने, चलाने का अधिकार देती है। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक फैसलों में स्पष्ट कहा है कि यह अधिकार निरपवाद रूप से सभी समुदायों को है। जैसे, ‘रत्तीलाल पनाचंद गाँधी बनाम बंबई राज्य’ (1952) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि किसी धार्मिक संस्था के संचालन का अधिकार उसी धर्म-संप्रदाय के व्यक्तियों का है। उनसे छीनकर किसी भी अन्य या सेक्यूलर प्राधिकरण को देना उस अधिकार का उल्लंघन है, जो संविधान ने दिया है। ‘पन्नालाल बंसीलाल पित्ती बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ (1996) में भी सुप्रीम कोर्ट ने वहीं कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 जो अधिकार इस्लाम, ईसाई धर्मावलंबियों को देती है, उससे हिन्दुओं को वंचित नहीं करती है। ऐसे कई न्यायिक निर्णय और हैं।
 
किन्तु व्यवहार में क्या होता रहा? यही कि हमारी सरकारें, जब चाहे हिन्दू मंदिरों, मठों, संस्थाओं की संपत्ति पर कब्जा कर लेती हैं। फिर उसे ‘सेक्यूलर’ ढंग से चलाती और उसकी आय का दुरूपयोग करती है। कहीं-कहीं सरकार हिन्दू मंदिरों की आय से हिन्दू-विरोधियों की सहायता करती है। जैसे, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में। बहाना मंदिरों में कुव्यवस्था का होता है, किन्तु घातक गड़बड़ी कर रहे चर्च, मस्जिदों, मदरसों, आदि पर भी सरकार कभी हाथ नहीं डालती। जबकि गैर-कानूनी कामों में लिप्त चर्च, मस्जिदों, मदरसों के समाचार आते रहे हैं।
 
फिर अनुच्छेद 27 के अनुसार भारतीय नागरिकों को किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने के लिए टैक्स नहीं देना है। लेकिन यहाँ कई प्रधानमंत्री ‘देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार’ होने जैसी बातें करते रहे हैं। कोई नेता हज सब्सिडी बढ़ाता है, कोई हज हाऊस बनवाता है, कोई हज का विमान-भाड़ा घटाता है। साथ ही, अल्पंसख्यक मंत्रालय, आयोग, शिक्षा संस्थान, कोचिंग संस्थान, विशेष छात्रवृत्तियाँ आदि बनती गई जो व्यवहारतः केवल विशेष धर्म-मतावलंबियों के लिए होती हैं। अर्थात् एक मजहब विशेष को बढ़ावा देने के लिए टैक्स धन का दुरुपयोग।
 
इस प्रकार अनुच्छेद 25 से 30 तक का पाठ और व्यवहार हिन्दू-विरोधी हो गया है। कितनी विचित्र बात है कि राम-मंदिर और गंगा जी की सफाई की चिन्ता करने वाले हिन्दूवादी इन धाराओं पर एक मामूली विधेयक पास करने की जरूरत महसूस नहीं करते। जबकि ये धाराएं देश में सारी हिन्दू विरोधी गड़बड़ियों को संस्थागत रूप देने का बहाना बन गई है। इस विधेयक को पास करने में विशेष बहुमत की जरूरत भी नहीं। वर्तमान राजनीतिक वातावरण में हरेक दल इसका विरोध करने में संकोच करेगा। क्योंकि इस विधेयक को पास करने में जबरदस्त हिन्दू गोलबंदी की संभावना है। फिर भी क्या डॉ. सत्यपाल सिंह के विधेयक का हश्र वही होगा जो शहाबुद्दीन के विधेयक का हुआ था? -डॉ. शंकर शरण
 
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