18 जुलाई 2020
लगता है कि भारत के अनेक प्रभावी बुद्धिजीवी और पत्रकार, विदेशी लोग यहाँ की 80 प्रतिशत जनता के हिन्दू होने, उसकी भावना, दुःख और उस पर होते भेद-भाव से निरे अनजान, बेपरवाह हैं। वे भूलकर भी नहीं बताते कि मुस्लिम देशों में रहने वाले हिन्दुओं के साथ क्या बर्ताव होता है। किस तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिन्दू उजड़ गए, करोड़ों की जनसंख्या मानो लुप्त हो गई। जबकि भारत में मुस्लिम आबादी फलती-फूलती, हिन्दुओं से भी अधिक तेजी से बढ़ती गई।
दूसरी ओर, तमाम पड़ोसी देशों से लाखों मुस्लिम यहाँ बेहतर रोजगार और संपत्ति की चाह में अवैध रूप से निरंतर आते गए। इसमें पीड़ित और सुखी समुदायों की जो तस्वीर बनती है, उसे छिपाया गया। बल्कि, उलटा प्रचार हुआ कि भारत में हिन्दू उत्पीड़क और मुस्लिम उत्पीड़ित हैं। जबकि यदि यहाँ मुसलमानों को उत्पीड़न मिला होता तो बाहरी मुसलमान यहाँ आने की नहीं सोच सकते थे। जैसे, कोई ईसाई, हिन्दू या बौद्ध किसी भी मुस्लिम देश में जाकर रहने की कभी नहीं सोचता।
भारत के प्रभावी, विशेषतः अंग्रेजी विमर्श में “हिन्दू” शब्द कभी सकारात्मक रूप में नहीं मिलता। उन बौद्धिकों के विदेशीपने का सब से बड़ा उदाहरण यही है कि जिस मानवीयता, सार्वभौमिक सदभाव और न्याय को वे बाकी दुनिया के नारों और सिद्धांतों में खोजते रहते हैं, वह यहीं हिन्दू परंपरा में मौजूद होने का उन्हें कोई भान नहीं। वे जिन मापदंडों से भारत और विशेषकर हिन्दू धर्म की निंदा करते रहते हैं, उन मापदंडों को सऊदी अरब, इस्लाम या चीन की चर्चा करते हुए साफ छोड़ देते हैं। देश या विदेश, कहीं भी हिन्दुओं का उत्पीड़न, उन पर अन्याय उनके लिए कोई खबर नहीं है, जबकि हर कहीं मुसलमानों की कैसी भी चाह, कष्ट उनके लिए प्रथम चिंता होती है, जिसे बढ़ा-चढ़ा कर छापना, दुहराना, उस पर लंबे-लंबे लेख लिखना, प्रचारित करना मानो उनका धर्म है। ऐसा घोर दोहरापन क्यों है? इस्लामी देशों के संसाधनों, ईनामों का भी इस में योगदान है। मुसलमानों के उग्र दबाव की भी इस में भूमिका है, जिस का डर अनेक बौद्धिकों को चुप रखता है।
वस्तुतः जिसे आधुनिक सेक्यूलर बनाम सांप्रदायिक हिन्दुत्व की लड़ाई बताया जाता है, वह एक भ्रष्ट, जड़ वामपंथी एलीट और पारंपरिक आध्यात्मिक हिन्दू समाज के बीच का संघर्ष है। पर भारत में ही हिन्दुओं को हीन बना देने में इस की भी भूमिका है कि भारत में सरकारों और नेताओं ने दूसरे देशों में हिन्दुओं पर जुल्म, अन्याय का कभी नोटिस नहीं लिया। सरकार द्वारा ऐसी अनदेखी से अंततः देश के अंदर भी हिन्दुओं की स्थिति हीन होते जाना तय था।
सभी मनुष्यों के लिए एक मापदंड़ अपनाए जाने चाहिए। सभी समुदायों, उनके विचारों, धर्मों, संगठनों को समान सिद्धांत से तौलना चाहिए। केवल हिन्दुओं के लिए निष्पक्षता, सदभाव, और सहिष्णुता के ऊँचे मापदंड बनाना अनुचित है। व्यवहारतः यह हिन्दुओं को आक्रामक मतवादों, मिशनरियों और तबलीगियों के हाथों खत्म होने की ओर विवश करना है। नागरिकता कानून का विरोध इसी का उदाहरण है।
पिछले दशकों में बार-बार देखा गया कि बाहर या अंदर, हिन्दू शरणार्थियों के लिए कोई उदारवादी बौद्धिक आवाज नहीं उठी, जबकि बाहर से आते मुस्लिम घुसपैठियों, उग्रवादियों, आतंकवादियों के लिए भी मानवाधिकार, मानवीयता, सम्मान, आदि की पैरोकारी होती रही।
हिन्दुओं ने दूसरे देशों पर कभी हमला नहीं किया, कभी अपने मिशनरियों को भेजकर दूसरों को छल-बल से हिन्दू विचारों को स्वीकार करने के लिए विवश नहीं किया, कभी दूसरों को गुलाम बनाकर आर्थिक शोषण-दोहन नहीं किया, कभी न कहा कि सत्य, ज्ञान या ईश्वर केवल हिन्दुओं के पास है और जो ऐसा नहीं मानते वे नीच और गंदे हैं। 1947 ई. में मुसलमानों द्वारा अलग देश बना लेने के बाद भी करोड़ों मुसलमानों को यहीं रहने दिया। इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा कब्जा किए गए अपने महान तीर्थ-स्थानों तक को खाली नहीं कराया, फिर भी हिन्दुओं को ही असहिष्णु, अत्याचारी कहा जा रहा है! यह हद पार करने जैसा है।
झूठ और जोर-जबर्दस्ती से समझौता करना कोई भलमनसाहत नहीं है। यह आत्म-विनाश का रास्ता है। निश्चय ही यह भारत का धर्म या चाह भी नहीं है कि वह भी इस्लामी या कम्युनिस्ट मतवादियों जैसी मतवादी संकीर्णता अपना ले। परन्तु अपनी धर्म-परंपरा और संस्कृति का बचाव भी न करना, और हर तरह के बाहरी, साम्राज्यवादी मतवादों के सामने हथियार डाल देना भी उसे स्वीकार्य नहीं हो सकता।
समय आ गया है कि भारत की प्रभावी बौद्धिकता में जमे हिन्दू-विरोध को उखाड़ फेंका जाए। यह घोर भेद-भाव है, जिस से सामाजिक वातावरण निस्संदेह बिगड़ता है। ईर्ष्या-द्वेष, संदेह और वैमनस्य बढ़ता है। ऐसा होना किसी भी न्यायप्रिय को स्वीकार नहीं हो सकता। हिन्दू धर्म-समाज को भारत से ही विस्थापित करने की योजनाओं, रणनीतियों को रोकना जरूरी है।
यह खुलकर और दृढ़ता से कहना जरूरी है कि यदि दुनिया में 57 देश अपने को इस्लामी गणतंत्र कहते हैं, ईसाई देश 172 बन चुके है तो एक देश हिन्दुओं का होना सर्वथा उपयुक्त है। वह भी, जिसे हजारों वर्ष से हिन्दू देश जाना ही जाता है। तब भारत की हिन्दू पहचान को कुचलकर ‘सेक्यूलरिज्म’ थोपना भयंकर जुल्म है। किसी मुस्लिम देश में सेक्यूलरिज्म का नामो-निशान नहीं है। यूरोप और अमेरिका में भी विविध ईसाई दलों, समूहों को सहज वरीयता और विशेष सम्मान प्राप्त है। वहाँ सरकार कभी भी ईसाइयों की उपेक्षा या गैर-ईसाइयों को विशेष सुविधा और विशेष अधिकार देकर काम नहीं करती। केवल भारत में ही हिन्दुओं को संवैधानिक और सामाजिक रूप में भी दबा दिया गया है। यहाँ जिन हिन्दू संगठनों को सांप्रदायिक, असहिष्णु कहकर बदनाम किया जाता है, उन्होंने एक भी माँग या काम नहीं किए जो तमाम मुस्लिम देशों में जारी इस्लामी विशेषाधिकारों की बराबरी भी कर सके। तब केवल हिन्दू संगठनों की निंदा, और मुस्लिम संगठनों, गतिविधियों पर चुप्पी रखना हिन्दू-विरोधी कुटिलता ही है।
जो लोग ‘हिन्दू राष्ट्र’ की संभावना को अनिष्टकारी कह कर निंदित करते हैं, वे नहीं बताते कि हिन्दू भारत के पाँच हजार वर्षों के इतिहास में कब ऐसा मजहबी शासन बना जिस का डर दिखाया जा रहा है? क्या किसी हिन्दू राजा का शासन वैसे संकीर्ण, एकाधिकारी मजहबी राज का मॉडल था, जिस की तुलना चर्च के मध्ययुगीन शासन या इस्लामी सत्ताओं से की जा सके? कौन हिन्दू राजा ऐसा मतांध था जिसने दूसरे विश्वासों, विचारों को खत्म करने की कोशिश की? किसने अपने विचार या किताब को तलवार के बल दुनिया भर में फैलाने की कोशिश की? क्या राम, कृष्ण या शिवाजी का भी राज्य ऐसा ‘हिन्दुत्ववादी’ मॉडल है? यदि नहीं, तो हिन्दू राष्ट्र से डराना झूठा प्रपंच मात्र है।
वस्तुतः जिसे हिन्दू सांप्रदायिकता कह कर निंदित किया जाता है, वह इस्लामी उग्रवाद की प्रतिक्रिया भर है। यह विशुद्ध आत्मरक्षात्मक है। अपने धर्म, समाज और देश की रक्षा करने की भावना। भारत दोनों ओर से घोषित ‘इस्लामी गणतंत्र’ देशों से घिरा है। उन की खुली-छिपी मार भी झेल रहा है। उन देशों में हिन्दुओं की दुर्दशा दुनिया के किसी भी समुदाय से बुरी है। फिलीस्तीन, सूडान या तिब्बत के लोगों के लिए बोलने वाले दुनिया भर में मिलते हैं। पर बंगलादेश में अभागे, उत्पीड़ित हिन्दुओं के लिए बोलने वाला, एक तस्लीमा नसरीन को छोड़कर, कोई नहीं सुना गया। भारत के किसी सेक्यूलरवादी, वामपंथी, गाँधीवादी बौद्धिक ने उन के लिए एक शब्द तक नहीं कहा। – डॉ. शंकर शरण
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