ब्रेनवॉश करने के लिए मिडिया द्वारा ऐसे रचा जाता है प्रपंच….

18  Apirl 2023

🚩ओसामा बिन लादेन एक अच्छा पिता, बुरहान वानी गरीब हेडमास्टर का बेटा, पुलवामा का विस्फोट करने वाला सताया हुआ मासूम । विस्फोटक बनाने वाले आत्मरक्षा हेतु बम बनाने वाले भटके हुए नौजवान । अतीक अहमद जी तो सच्चे महात्मा हैं । 38 साल पहले पंजाब में हिन्दुओ का कत्लेआम करने वाला आतंकवादी आज भी संत है। दाऊद इब्राहीम ने भी बहुत से अच्छे काम किए हैं। युवाओं को एसिड से नहलाने वाला बिहार का डॉन शहाबुद्दीन भी महान था । सर तन से जुदा करने की धमकी तो एक शान्ति गीत है।

 

🚩अनेक पत्रकार एक विशेष समूह को उत्पीड़क और दूसरे को उत्पीड़ित बताने का अघोषित लक्ष्य रखते रहे हैं । खबरों को आधे-अधूरे प्रस्तुत करना, तोड़ना-मरोड़ना, कभी उत्पीड़क तो कभी उत्पीड़ित की पहचान छुपाना अथवा खूब प्रमुखता देकर छापना आदि इनका मुख्य उद्देश्य रहा है।

 

🚩पालघर में हिन्दू साधुओं की भीड़ द्वारा नृशंस हत्या पर रविश कुमार 33 सेकंड बोलता है तो चोर तबरेज की पिटाई और पुलिस कस्टडी में मृत्यु को 33 घंटे कवर करता है। पत्रकार दानिश सिद्दकी की हत्या की जिम्मेदारी तालिबान नहीं गोली को बताता है। 2 मई 2021 के बाद पश्चिमी बंगाल में हुए हिन्दुओं के नरसंहार, सामूहिक बलात्कार और पलायन को अधिकाँश मिडिया छुपा गया। शाहीन बाग़ धरने में कुछ चुने हुए पत्रकारों को ही आने दिया जाता था।

🚩एक बड़े अंग्रेजी अखबार में समाचार छपा, ‘सोशल मीडिया पर फोटो शेयर करने के लिए युवक की गिरफ्तारी।’ लेकिन उस में यह छिपा लिया गया कि वह फोटो कैसी थी। उस युवक ने एक मंदिर में शिवलिंग पर जूते सहित अपना पैर रखकर सेल्फी ली थी, जिसे सोशल मीडिया में डालने पर किसी ने पुलिस में शिकायत की और पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया।

 

🚩बुरी खबर और खासकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाली खबरों के प्रति हमारे अंग्रेजी संपादकों में ऐसा आकर्षण है कि वे उसकी किसी भी प्रमाणिकता की जाँच की जरूरत नहीं समझते। अब सोचें, कि मनगढंत, जाली, मिलावटी, शरारतपूर्ण, राजनीति-प्रेरित ख़बरों पर भरोसा करना कितना उचित है और विदेशियों की सेवा करने वाली मीडिया से ज्यादा  घातक और क्या हो सकता है?

 

🚩‘मित्रोखिन आर्काइव्स, खण्ड एक (1999) तथा खण्ड दो (2005) के  दूसरे खण्ड में दो अध्याय (पृ. 312-340) भारत में के.जी.बी. के अनेक कामों के बारे में हैं। नेहरू काल से लेकर इस में लगभग 1989 तक के कुछ छिट-पुट विवरण हैं। अर्थात जो दस्तावेज के.जी.बी. कर्मचारी वसीली मित्रोखिन को मिले थे और जिसे वे नोट कर बाहर ले जा सके थे। उस पुस्तक के पृ. 324 पर भारतीय मीडिया के एक हिस्से का यह रूप भी मिलता है – ‘‘के.जी.बी. की फाइलों के अनुसार इस ने सन 1973 तक भारत के दस अखबारों और एक न्यूज एजेंसी को (कानूनी कारणों से उन के नाम नहीं बताए जा सकते) नियमित रूप से पैसे देकर नियंत्रण में कर लिया था। वर्ष 1972 के दौरान के.जी.बी. ने भारतीय अखबारों में अपनी ओर से प्रायोजित 3789 सामग्री छपाने का दावा किया।

 

🚩संभवतः किसी गैर-कम्युनिस्ट देश में यह सब से बड़ी संख्या थी। फाइलों के अनुसार, यह संख्या 1973 में गिर कर 2760 हो गई, जो 1974 में बढ़कर 4486 और 1975 में 5510 हो गई। कुछ मुख्य देशों में के.जी.बी. ऐसे सक्रिय उपाय अभियानों के बावजूद तुलना में बमुश्किल एक प्रतिशत से कुछ अधिक चीजें प्रकाशित करा पाया था पर उसने भारतीय प्रेस में सफलतापूर्वक करवाया।’’

 

🚩साथ ही साथ यह भी एक कड़वा सच है कि हमारे ही कुछ भारतीय पत्रकार कैसे हमारा ब्रेनवॉस करके देश की जनता को गुमराह करते हैं। ऐसे दोगले पत्रकारों से हम सभी को सावधान रहना चाहिए ।

जय हिंद जय भारत माता

 

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