02 सितंबर 2021
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🚩असम ब्रह्मपुत्र नदी और घने जंगलों का सुन्दर प्रदेश है जो चिरकाल से हिन्दू राजाओं द्वारा शासित रहा है। असम में इस्लाम ने सबसे पहले दस्तक बख्तियार खिलजी के रूप में 13वीं शताब्दी में दी थी। बंगाल पर चढ़ाई करने के बाद खिलजी ने असम और तिब्बत पर आक्रमण करने का निर्णय किया। अली नामक एक परिवर्तित मुसलमान खिलजी को ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे वर्धन कोट/बंगमती नामक स्थान पर ले गया। वहां पर ब्रह्मपुत्र नदी पर एक विशाल पुल बना हुआ था। खिलजी ने उस पुल को पार करते हुए अपने सैनिक उसकी रक्षा में लगा दिए और वह आगे बढ़ गया। अनेक शहरों को लुटते हुए, मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करते हुए खिलजी असम में तबाही मचाने लगा।
🚩सन् 1203 में असम के बंगवन और देओकोट के मध्य खिलजी अपनी सेना के साथ डेरा डाले था। असम के राजा ने सुनियोजित तरीके से अपनी सेना के साथ आराम करते खिलजी पर सुबह हमला बोल दिया। तीर-भालों की हिन्दू सेना ने दोपहर तक खिलजी की सेना को तहस नहस कर डाला। आक्रमण इतनी तत्परता से किया गया था कि खिलजी अपनी बची खुची सेना के साथ भाग खड़ा हुआ। बचे हुए सैनिक जब वापिस ब्रह्मपुत्र नदी के पुल तक पहुंचे तो उन्होंने पाया कि हिन्दू राजा ने उस पुल को तोड़ दिया था। एक ओर हिन्दू राजा की सेना और दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र की विशाल नदी। न खाने को अन्न, न लड़ने को शस्त्र। भुखमरी से प्राण निकलने लगे तो अपने ही घोड़ों को खिलजी के सैनिक मार कर खाने लगे। इतने में हिन्दू सेना का घेराव बढ़ता गया तो अपनी जान बचाने के लिए बैलों को मार कर खिलजी ने उन्हें पानी में डुबो कर फुलाया। उन फुले हुए बैलों पर बैठकर किसी प्रकार से खिलजी अपने प्राण बचाकर असम से भागा था। उसके बाद हार से बौखलाकर खिलजी की हत्या उसी के एक मुसलिम सिपाही ने कर दी थी। हिन्दू राजा की सुनियोजित रणनीति से असम का इस्लामीकरण होने से बच गया। यह हार शताब्दियों तक मुसलमानों को याद रही थी।
🚩17 वीं शताब्दी में अज़ान पीर उर्फ़ शाह मीरा के नाम से एक सूफी संत बगदाद से चलकर शिवसागर, असम पहुंचा। उसका नाम अज़ान इसलिए था क्यूंकि वह सुबह सुबह उठकर अज़ान दिया करता था। वह निजामुद्दीन औलिया के चिश्ती सूफी सम्प्रदाय से था। उसने एक अहोम असमी लड़की से विवाह किया और
असम में बस गया। जब उससे दाल नहीं गली तो उसने एक पुराना सूफी तरीका अपनाया। उसने दो भजन लिखे। इन भजनों में इस्लामिक शिक्षाओं के साथ साथ असम के प्रसिद्ध संत शंकरदेव की शिक्षाएं भी समाहित कर दी। यह इसलिए किया कि असम के स्थानीय हिन्दुओं को यह लगे कि अजान पीर भी शंकरदेव के समान कोई संत है। अज़ान पीर की यह तरकीब कामयाब हो गई। अनेक हिन्दू पहले उसके शिष्य बने फिर बाद में मुसलमान बन गए। उसकी प्रतिष्ठा बढ़ते देख असम के हिन्दू शासक को किसी ने उसकी शिकायत कर दी कि वह मुगलों का जासूस था।
🚩राजा ने अज़ान पीर की दोनों ऑंखें निकाल देने का हुकुम कर दिया। अज़ान पीर की दोनों ऑंखें निकाल दी गईं। एक किंवदंती उड़ा दी गई कि अजान पीर ने दो मटकों के सामने अपनी चेहरे को किया और उसकी दोनों ऑंखें निकल कर मटके में तैरने लगी। समझदार पाठक आसानी से समझ सकते हैं कि पूरी दाल ही काली है। इतने में दुर्भाग्य से राजा के साथ कोई दुर्घटना घट गई। किसी धर्मभीरु ने राजा को मति दे दी कि यह दुर्घटना उस पीर को सताने से हुई है। हिन्दू समाज की विफलता के सबसे बड़े कारण ये मति देने वाले लोग हैं, जो सदा हिन्दू राजाओं को या तो अंधविश्वासी बनाने में लगे रहे अथवा अकर्मण्य बनाने में लगे रहे। असम के राजा ने पीर को बुलाकर पश्चाताप किया। उसे शिवसागर के समीप भूमि दान कर राजा ने मठ बनाने की अनुमति प्रदान कर दी।
🚩आखिर इस्लाम को अपनी जड़ें ज़माने का असम में अवसर मिल गया। जो काम पिछले 500 वर्षों में इस्लामिक तलवार नहीं कर पायी वह काम एक सूफी के नाम ने कर दिखाया। धीरे धीरे हज़ारों लोगों को इस्लाम में दीक्षित कर अज़ान पीर मर गया। उसकी कब्र एक मज़ार में परिवर्तित हो गई। सालाना उर्स में असाम के हिन्दू मुसलमानों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर अपना माथा उसकी कब्र पर पटकने लगे। आज भी यह क्रम जारी है। जो काम इस्लामिक तलवार न कर सकी वो एक सूफी ने कर दिखाया।
🚩अपने प्राचीन गौरव और संघर्ष को भूलकर मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने वाले हिन्दुओं, तुम्हारी बुद्धि का ऐसा नाश क्यों हुआ?
हिंदू धर्म के देवी-देवता व साधु-संत के इतने समर्थ होते भी मुर्दों की मजार पर मत्था टेकना- यह क्या बुद्धि का दिवालियापन नही है?
धर्म क्या है? ईश्वर क्या है? ईश्वर की पूजा कैसे करनी चाहिए? कब्रों को पूजना चाहिए या नहीं। यह असम के हिन्दुओं को कौन बतायेगा? उनके लिए तो मंदिर में मूर्ति पूजना और कब्र पूजना एक समान है। इस आध्यात्मिक खोखलेपन और हिन्दुओं की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? – डॉ विवेक आर्य
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