13 सितंबर 2021
azaadbharat.org
🚩श्री अरविन्द ने सौ साल पहले ही कहा था कि भारत की सबसे बड़ी समस्या विदेशी शासन नहीं है, गरीबी भी नहीं है। सबसे बड़ी समस्या है– सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास! इसे उन्होंने ‘चिंतन-फोबिया’ कहा था कि मानो हम सोचने-विचारने से डरते हैं। औने-पौने किसी मामले को निबटाने की कोशिश करते हैं। चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक या राष्ट्रीय। इससे कोई भी कार्य अच्छी तरह से तय नहीं होता, नतीजन समस्याएं बनी रहती हैं, बल्कि बिगड़ती जाती हैं।
🚩वह एक सटीक अवलोकन था। स्वामी विवेकानन्द ने भी उसी कमी को ‘आत्म-विस्मरण’ कहा था। स्वतंत्र भारत में वह दूर होने के बदले और बढ़ गया। आकर्षक लगने वाली विविध, विदेशी विचारधाराओं को हमारे शासकों, उच्च-वर्गीय लोगों, बुद्धिजीवियों ने बिना किसी जाँच-परख के अपना लिया। आज हिन्दू लोग अपना धर्म और इतिहास बहुत कम जानते हैं। इससे उनका आत्म-विस्मरण बढ़ता जा रहा है।
🚩हमारी असली दुर्बलता कहीं और है, जिससे सेना या सुरक्षा बलों का भी सही समय पर सही प्रयोग नहीं होता। अज्ञान और भय एक-दूसरे को बढ़ाते हैं। यह आज के हिन्दू समाज की कड़वी सच्चाई है। हिन्दू समाज अज्ञान में डूबा, विखंडित और दुर्बल है। यह देश की केंद्रीय समस्या है। इसे शिक्षा के माध्यम से सरलतापूर्वक एक पीढ़ी या बीस वर्षो में दूर कर लिया जा सकता था, पर हिन्दू-विरोधी वामपंथी नीतियों तथा विदेशी मतवादों के दबाव में उलटा ही किया गया। रोजगारपरक बनाने के नाम पर सार्वजनिक शिक्षा मूल्य-विहीन कर दी गई, जो घोर अशिक्षा में बदल गई है। दूसरी ओर, देश में राज्य-कर्म मुख्यतः नगरपालिका जैसे काम करने, पार्टी-बंदी और मीठी झूठी बातें कहने, तरह-तरह के भाषण देने में बदल कर रह गया है।
🚩ये राष्ट्र की मानसिक क्षमता में ह्रास के उदाहरण हैं। इनमें पिछले सौ साल से कोई विशेष सुधार हुआ नहीं लगता। ऐसी ही स्थितियों में मुट्ठी भर शत्रु भी आक्रामक होकर बड़ी संख्या पर विजयी हो सकते हैं। सन् 1947 में देश-विभाजन और फिर निरंतर जगह-जगह हिन्दुओं के विस्थापन का यही कारण रहा है। इसका उपाय अच्छी सेना या युद्धक विमान मात्र नहीं है। क्योंकि शक्ति हथियारों में नहीं, उनका उपयोग करने और करवाने वालों के चरित्र और मानस में होती है।
🚩श्रीअरविन्द के शब्दों में, ‘हम ने शक्ति को छोड़ दिया है और इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है।… कितने प्रयास हो चुके हैं। कितने धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन शुरू किए जा चुके। लेकिन सबका एक ही परिणाम रहा या होने को है। थोड़ी देर के लिए वे चमकते हैं, फिर प्रेरणा मंद पड़ जाती है, आग बुझ जाती है और अगर वे बचे भी रहें तो खाली सीपियों या छिलकों के रूप में रहते हैं, जिनमें से ब्रह्म निकल गया है या वे तमस के वश में हैं।’ (भवानी मंदिर, 1905) इस दुरूह अवस्था से निकलने के लिए सबसे पहले हमें अपना सच्चा इतिहास जानना चाहिए। ठीक है कि गत हजार साल से हिन्दुओं ने दो साम्राज्यवादों का प्रतिरोध किया। लेकिन जिस मर्मांतक शत्रु को वे पहचान चुके थे, उसके सामने सदियों तक विफलता भयावह पैमाने की थी। उन विफलताओं के सबक आज भी प्रासंगिक हैं।
🚩पहली, सैन्य-कला की विफलता। दूसरी, राजनीतिक। आरंभिक चरणों में शाहीया, चौहान, चंदेल, गहड़वाल और चालुक्य जैसे हिन्दू राज्य अरब, तुर्क इस्लामी हमलावरों की तुलना में वित्तीय संसाधन और मानव-बल, दोनों में श्रेष्ठ थे, किन्तु हिन्दू उनका ढंग से उपयोग कर पाने में विफल रहे। इसका बड़ा कारण था- हिन्दुओं की आध्यात्मिक समझ में आई गिरावट। उससे पहले के युग में जब यूनानी आक्रमणकारी अलेक्जेंडर ने भारत के एक ब्राह्मण से पूछा था कि उन्होंने क्या सिखाया जिससे हिन्दू ऐसी ऊँची वीरता से भरे होते हैं, तो ब्राह्मण ने एक पंक्ति में उत्तर दिया था – ‘‘हम ने अपने लोगों को सम्मान के साथ जीना सिखाया है।’’ किन्तु पाँचवीं सदी के बाद स्थिति बदलने लगी। पहले के महाभारत, रामायण, पुराण और मनुस्मृति, आदि की तुलना में अब हिन्दू साहित्य बहुत हल्के होते गए।
🚩पहले का हिन्दू साहित्य मानव आत्मा की महान ऊँचाइयों में विचरता है, पर साथ ही पार्थिव जीवन के हरेक पक्ष पर भी पूरा ध्यान देता है। इसमें किसी बुराई को सहने या बिना दंड के क्षमा करने का कहीं कोई स्थान नहीं था। लेकिन बाद के हमारे आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य में धरती पर जिए जाने वाले जीवन के प्रति एक वितृष्णा का भाव आ गया। इससे पीठ मोड़ लेना सर्वोच्च मानवीय गुण कहा गया। धर्म वह व्यापक धारणा न रहा जो मानवीय संबंधों की पूरी समृद्धि को अपने घेरे में लेता है, बल्कि इसे वैयक्तिक मुक्ति के लक्ष्य में सीमित कर दिया गया। तीसरी विफलता थी- आस-पास के विश्व में घट रही घटनाओं के प्रति मानसिक सतर्कता का अभाव।
🚩इस प्रकार आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्तरों पर तिहरी विफलता ने हिन्दू समाज को एक अभूतपूर्व स्थिति में आवश्यक नीतियाँ बनाने और लागू करने के अयोग्य बना दिया। वैसी नीतियाँ, जिस से वह अपने देश में एक कैंसरनुमा रोग की स्थाई उपस्थिति से मुक्त हो सकता था।
🚩हजार साल पहले का आक्रमणकारी इस्लामी साम्राज्यवाद ‘केवल-हम-सही’ होने के तेज बुखार से ग्रस्त था। उसे किसी कड़ी दवा की बड़ी जरूरत थी। यदि उन्हें बलपूर्वक समझाया जाता कि जो काम वे मार्त्तंड मंदिर या सोमनाथ के साथ करते हैं, वही उनके मक्का-मदीना के साथ भी किया जा सकता है, तो वे ठहर कर सोचते और सामान्य हो जाते। लेकिन हिन्दुओं ने उस मतवादी आवेश को ठंडा करने की कभी कोशिश नहीं की, जबकि उनमें वह सैनिक और वित्तीय शक्ति थी। यह बहुत बड़ी भूल हुई।
🚩तब से बहुत समय बीत चुका है। पर वह बुखार आज भी भारत में मौजूद है, और उसके प्रति वही गफलत भी। सेक्यूलरवादी, वामपंथी और राष्ट्रवादी भी हमारे इतिहास को विकृत करने में लगे हैं कि इस्लाम ने कभी हिन्दुओं या हिन्दू धर्म को हानि पहँचाने की चाह नहीं रखी थी! क्या हिन्दू समाज को फिर इस आत्म-विस्मरण, गफलत की कीमत चुकानी होगी? पर अब कटिबद्ध इस्लामी प्रहार के समक्ष हिन्दू समाज नहीं बच सकेगा। इसका मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य वैसा नहीं है। न भूलें कि सेना, प्रक्षेपास्त्र और बम होते हुए भी कश्मीर से हिन्दुओं का सफाया हुआ है!
🚩भारत के सच्चे देशभक्त और धर्म-परायण लोग यदि पार्टी-बंदी से ऊपर उठकर राष्ट्रीय स्थिति पर विचार करें, तभी उन्हें वस्तु-स्थिति का सही आभास होगा। जो समाज आत्म-दया से ग्रस्त है, जो हर उत्पीड़क की ओर से बोलने में लग जाता है, जो पक्के दुश्मनों से अपने लिए अच्छे आचरण का प्रमाण-पत्र पाने की जरूरत महसूस करता है– ऐसे समाज के लिए ऐसी दुनिया में कोई आशा नहीं, जो दिनों-दिन अधिक हिंसक होती जा रही है। इसलिए, हमें शक्ति के साथ-साथ ज्ञान की आराधना भी करनी चाहिए। लेखक : डॉ. शंकर शरण
🚩Official Links:👇🏻
🔺 Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan
🔺 facebook.com/ojaswihindustan
🔺 youtube.com/AzaadBharatOrg
🔺 twitter.com/AzaadBharatOrg
🔺.instagram.com/AzaadBharatOrg
🔺 Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ