06 अगस्त 2020
संविधान की प्रस्तावना संविधान का परिचय पत्र है। सविधान की प्रस्तावना बताती है कि संविधान के प्राधिकार का स्त्रोत क्या है। वह यह भी बताती है कि संविधान किन उद्देश्यों को संवर्धित या प्राप्त करना चाहता है।
पर देश का दुर्भाग्य है कि सन 1976 में जब कांग्रेस की सरकार थी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी, तब संविधान में 42वां संशोधन हुआ जिसे इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान लागू किया वो भी केवल और केवल अपने राजनीतिक हितों के लिए।
वैसे तो 42 वें संशोधन में बहुत कुछ संशोधित किया गया था पर सबसे बड़ी बात थी कि संविधान की मूल प्रस्तावना में भी छेड़छाड़ हुई। संविधान की प्रस्तावना में 2 शब्द जोड़ दिए थे – “समाजवाद” और “धर्मनिरपेक्ष”।
इमरजेंसी के दौरान ऐसे शब्द संविधान की प्रस्तावना में छेड़छाड़ कोई छोटी बात नहीं थी और ये मुद्दा काफी समय तक गर्म भी रहा। अब इसके पीछे तत्कालीन सरकार की क्या मंशा थी, इसके विषय में कुछ साफ साफ तो नहीं कहा जा सकता पर धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलर) की आड़ में देश की एकता, अखंडता और हिन्दुत्व को बार बार चोट पहुँचाई गई। राष्ट्र विरोधी तत्वों ने सेक्युलर का चोला पहन लिया और सेक्युलरिज्म की आड़ में देश और हिन्दू धर्म को भारी क्षति पहुंचाई।
और सबसे बड़ा देश का दुर्भाग्य ये है कि 1976 में हुए संशोधन में हुआ ये अन्याय आज भी ज्यों का त्यों है। आजतक ये दो शब्द संविधान की प्रस्तावना में जुड़े हैं और इन्हीं शब्दों की आड़ में लोकतंत्र की हत्या हो रही हैं।
पर अब सर्वोच्च न्यायालय में इन दो शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की याचिका दायर हो गई है। दायर याचिका में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 ए (5) में दिए गए शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को भी रद करने की मांग की गई है। यह याचिका तीन लोगों ने वकील विष्णु शंकर जैन के जरिये दाखिल की है।
याचिका में कहा गया है कि जब ये शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए, उस समय देश में आपातकाल लागू था। संविधान के इस संशोधन पर सदन में बहस ही नहीं हुई थी, और ये बिना बहस के पास हो गया था।
याचिका में ये भी कहा गया है कि संविधान सभा के सदस्य के टी शाह ने तीन बार धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) शब्द को संविधान में जोड़ने का प्रस्ताव दिया था लेकिन तीनों बार संविधान सभा ने प्रस्ताव खारिज कर दिया था। खुद डॉ बी आर अंबेडकर ने भी प्रस्ताव का विरोध किया था।
के टी शाह ने पहली बार 15 नबंवर 1948 को सेक्युलर शब्द को संविधान में शामिल करने का प्रस्ताव दिया जो कि खारिज हो गया। दूसरी बार 25 नवंबर 1948 और तीसरी बार 03 दिसंबर 1948 को शाह ने प्रस्ताव दिया लेकिन संविधान सभा ने फिर से खारिज कर दिया।
याचिका में कहा गया है कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत सिर्फ सरकार के कामकाज तक सीमित रखा जाए।
याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 14, 15 और 27 सरकार के धर्मनिरपेक्ष होने की बात करता है यानि सरकार किसी के साथ धर्म, भाषा, जाति, स्थान या वर्ण के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। लेकिन अनुच्छेद 25 नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें व्यक्ति को अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने और उसका प्रचार करने की आजादी है। कहा गया है कि लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं होते, सरकार धर्मनिरपेक्ष होती है।
याचिका में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में 15 जून 1989 को संशोधन कर जोड़ी गई धारा 29 ए (5) से भी सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग है और कहा गया है कि इसे राजनैतिक दलों और आम जनता पर लागू ना किया जाए।
इसके तहत राजनैतिक दलों को पंजीकरण के समय यह घोषणा करनी होती है कि वे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करेंगे। कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 कहती है कि धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगेगे लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म के आधार पर संगठन नहीं बना सकते।
याचिका में मांग की गई है कि कोर्ट घोषित करे कि सरकार को लोगों को समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है।
ये हर्ष का विषय है कि ऐसी याचिका आज सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल हुई है जिसमें दशकों के भेदभाव और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई गई है। सभी देशवासियों से अपील है कि एक आवाज़ से संविधान की प्रस्तावना से “समाजवाद” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द हटाने वाली इस याचिका का समर्थन करें ताकि इन शब्दों की आड़ में देश की एकता, अखंडता और हिन्दुत्व पर प्रहार करने वाले राष्ट्र विरोधी तत्वों से देश और हिन्दुत्व की रक्षा हो।
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