19 अक्टूबर 2020
डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता थे। यह उन्हीं का कथन है कि हमारा संविधान सेक्यूलर नहीं क्योंकि “यह विभिन्न समुदायों के बीच भेद-भाव करता है।” यह तब की बात है, जब संविधान की प्रस्तावना में छेड़-छाड़ नहीं हुई थी। बाद में तो संविधान में ‘सेक्यूलर’ शब्द जोड़ कर और भी घात किया गया, जिसे संविधान निर्माताओं ने विचार करके खारिज किया था। वे इस अवधारणा से बखूबी परिचित थे, इसलिए उसे यहाँ अनुचित समझा। मगर कैसी विडंबना कि 1976 ई. में एक नेहरूवादी-कम्युनिस्ट चौकड़ी ने इस शब्द को संविधान में प्रवेश करा दिया। फिर जो दूसरे जातिवादी-राष्ट्रवादी आए, उन्होंने भी 1978 ई. में इस की पुष्टि कर दी।
मगर दूसरी विडंबना उस से कम नहीं। जब संविधान को ‘सेक्यूलर’ घोषित कर दिया गया, उस के बाद से नीति-निर्माण को निरंतर हिन्दू-विरोधी रुझान दे दिया गया। अर्थात् सेक्यूलरिज्म अपने यूरोपीय अर्थ सभी धर्मों से दूरी या समानता नहीं, बल्कि एक हिन्दू-विरोधी प्रवृत्ति, नीति सी बन गई। चूँकि सभी दलों ने इसे समर्थन दे दिया, इसलिए वह बदस्तूर चल रहा है। यद्यपि कई नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और न्यायविद् इस अन्याय को महसूस करते हैं। मगर कोई कुछ नहीं करते। यह एक तीसरी विडंबना है। क्योंकि यह सब मुख्यतः हिन्दू परिवारों में जन्मे कर्णधारों, विद्वानों और न्यायाधीशों द्वारा होता हैं।
इन सारी गड़बड़ियों में जो बातें सब से आश्चर्यजनक लगती है, उन में हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा सब से ऊपर है। विशेषकर हिन्दूवादी कहलाने वाले संघ-परिवार के शासनों में भी यह जारी रहना! वह भी तब, जब सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ-साफ कहा है कि ‘‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’’ (8 अप्रैल 2019)। सुप्रीम कोर्ट हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को कई बार अनुचित कह चुकी है। उस ने चिदंबरम के प्रसिद्ध नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश 2014 ई. में दिया था। इस के अलावा भी दो वैसे फैसले आ चुके हैं। फिर भी, जहाँ-तहाँ विभिन्न राज्य सरकारें हिन्दू मंदिरों पर कब्जा बनाए हुए हैं।
इस के विपरीत, किसी चर्च अथवा मस्जिद को सरकार कभी नहीं छूती। क्या इस से बड़ा धार्मिक अन्याय और संविधान में मौजूद ‘नागरिक समानता’ का मजाक संभव है? जो दलीलें हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा रखने के पक्ष में दी जाती हैं, वह सब मस्जिदों, चर्चों पर भी लागू हैं। किन्तु केवल हिन्दू मंदिरों पर कब्जा है, शेष सभी समुदाय अपने-अपने धर्म-स्थान स्वयं चलाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं!
आश्चर्य का दूसरा पहलू यह है कि स्वयं भाजपा समर्थक बौद्धिक मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं! स्वयं डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे महारथी एक भाजपा शासित राज्य में हाल में मंदिरों पर नया सरकारी कब्जा करने के विरुद्ध लड़ रहे हैं। मगर सत्ताधीशों द्वारा कोई सुनवाई नहीं। जब कि हिन्दू मंदिरों को मुक्त करने में न कोई कानून बनाना है, न कोई बजट प्रावधान करना है, न कोई विरोध-आंदोलन झेलने का डर है।
गत वर्ष पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बोबड़े ने कहा, “मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?” उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण भी दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं भी होती रही हैं। कारण यही है कि भक्तों के पास देवमूर्तियों की रक्षा का अधिकार ही नहीं है! जिन्होंने वह अधिकार ले लिया है, वे उसी तरह बेपरवाह काम करते हैं जैसे सरकारी विभाग। यही नहीं, वे धार्मिक गतिविधियों, रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं। कई बार अनजाने, तो कई बार जान-बूझ कर भी। सरकारी अफसरो को तो मात्र नागरिक शासन चलाने की ट्रेनिंग मिली है। इसलिए कोई अफसर अपने वैचारिक पूर्वग्रह, अज्ञान या मतवादी कारणों से हिन्दू रीतियों के प्रति उदासीनया या दुराग्रह भी दिखा सकता है।
अभी देश भर में 4 लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। एक भी चर्च या मस्जिद पर नहीं। अकेले आंध्र प्रदेश में 34 हजार मंदिर सरकारी कब्जे में हैं। कम से कम 15 राज्य सरकारें उन लाखों मंदिरों पर नियंत्रण रखती हैं। मंदिरों के प्रशासक नियुक्त करती है। वे जैसे ठीक समझें व्यवस्था चलाते हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार अलग। इस बीच, जैसा सरकारी विभागों में प्रायः होता है, मंदिरों के कोष और संपत्ति के मनमाने उपयोग, दुरूपयोग के समाचार आते रहते हैं। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सत्ताधारी बहुत पहले से मंदिरों की आय का उपयोग ‘अल्पसंख्यक’ समुदायों को विविध सहायता देने में करते रहे हैं। यह निस्संदेह हिन्दू-विरोधी कार्य भी है। सर्वविदित है कि कुछ बाहरी धर्म हिन्दू धर्म पर प्रहार करते रहे हैं, छल-बल से हिन्दुओं का धर्मांतरण कराते रहे हैं, अपने दबदबे के इलाकों में उन्हें मारते-भगाते रहे हैं। उन्हीं समुदायों को हिन्दू मंदिरों की आय से सहायता देना सीधे-सीधे हिन्दू धर्म को चोट पहुचाने के लिए ही सहायता देना है!
इस बीच, राजकीय कब्जे वाले हिन्दू मंदिरों के पुजारी मूक दर्शक बना दिए गए हैं। उन्हें अपने ही मंदिरों की देख-रख से वंचित या बाधित कर दिय़ा गया। वे मंदिरों के पारंपरिक शैक्षिक, कला, संस्कृति या सेवा संबंधी कार्य नहीं कर सकते जो अंग्रेजों के शासन से पहले तक होते रहे थे। जैसे, पाठशालाएं, वेदशालाएं, गौशालाएं, चिकित्सालय अथवा शास्त्रीय नृत्य आयोजन, आदि।
इस प्रकार, हिन्दू मंदिर के पुजारियों की तुलना में किसी मस्जिद के ईमाम या चर्च के बिशप की सामाजिक स्थिति और मजबूत होती है। वे अपने समुदाय को समर्थ, सबल बनाने के लिए मस्जिद और चर्च का बाकायदा इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। यह भी तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं की एक गंभीर हानि है, जिसे हिसाब में लेना चाहिए। विशेषकर भारत में यह हानि अब अधिक खतरनाक है।
अभी कुछ सत्ताधारी कोरोना-संकट में धन की कमी को मंदिरों में मौजूद सोना से पूरा करने की योजना बना रहे हैं या बना चुके हैं। हाल में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस की खुली माँग की। कई बार मंदिरों में जमा सोने को सरकार दबाव देकर जबरन रूपयों में बदलवाती है, ताकि उस पैसे का उपयोग कर सके। इस बीच, सोने को रूपये में बदल लेने से आगे जो घाटा होगा वह अलग।
यह सब हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध अनुचित, पक्षपाती जबरदस्ती है। जो इसीलिए चल रही है क्योंकि मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। वे किसी मस्जिद या चर्च की संपत्ति से राजकीय कोष की जरूरत पूरी करने की नहीं सोचते। मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना संविधान के अनुच्छेद 25-26 का भी उल्लंघन है। पर कौन क्या करे, जब बाड़ ही खेत को खाने लगे!
फिर, सरकारी कब्जे के कारण मंदिरों से 13-18 प्रतिशत अनिवार्य सर्विस-टैक्स वसूला जाता है। यह भी मस्जिदों या चर्चों से नहीं वसूला जाता। कई मंदिरों में ‘ऑडिट फीस’, ‘प्रशासन चलाने’ की फीस, इन्कम टैक्स, और दूसरे तरह के टैक्स भी लगाए जाते हैं! जबकि उन्हीं मंदिरों में वेद-पाठ करने वालों, अर्चकों, आदि को जो पारंपरिक दक्षिणा आदि मिलती थी, वह नहीं मिलती या नगण्य़ मिलती है। किसी-किसी मंदिर की आय का लगभग 65-70 प्रतिशत तक विविध मदो में सरकार हथिया लेती है। जैसे, पलानी (तमिलनाडु) के दंडयुतपाणि स्वामी मंदिर में। (जारी…) – डॉ. शंकर शरण
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