11 October 2018
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सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।
अर्थ : अर्थात सर्व मंगल वस्तुओं में मंगलरूप, कल्याणदायिनी, सर्व पुरुषार्थ साध्य करानेवाली, शरणागतों का रक्षण करनेवाली, हे त्रिनयने, गौरी, नारायणी ! आपको मेरा नमस्कार है ।
जिन्हें आदिशक्ति, पराशक्ति, महामाया, काली, त्रिपुरसुंदरी इत्यादि विविध नामों से सभी जानते हैं । जहां पर गति नहीं वहां सृष्टि की प्रक्रिया ही थम जाती है । ऐसा होते हुए भी अष्ट दिशाओं के अंतर्गत जगत की उत्पत्ति, लालन-पालन एवं संवर्धन के लिए एक प्रकारकी शक्ति कार्यरत रहती है । इसी शक्ति को आद्याशक्ति कहते हैं । उत्पत्ति-स्थिति-लय यह शक्ति का गुणधर्म ही है । शक्ति का उद्गम स्पंदनों के रूप में होता है । उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र निरंतर चलता ही रहता है ।
1. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।
2. महालक्ष्मी, जो ‘दिक’ अर्थात ‘दिशा’तत्त्वका प्रतीक हैं ।
3. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।
वासंतिक नवरात्रि : यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।
शारदीय नवरात्रि : यह उत्सव आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।
नव अर्थात प्रत्यक्षत: ईश्वरीय कार्य करनेवाला ब्रह्मांड में विद्यमान आदिशक्तिस्वरूप तत्त्व । स्थूल जगत की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, प्रत्यक्ष तेजतत्त्वात्मक प्रकाश का अभाव तथा ब्रह्मांड की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, संपूर्ण ब्रह्मांड में ईश्वरीय तेज का प्रक्षेपण करने वाले मूल पुरुषतत्त्व का अकार्यरत होनेकी कालावधि । जिस कालावधि में ब्रह्मांड में शिवतत्त्व की मात्रा एवं उसका कार्य घटता है एवं शिवतत्त्व के कार्यकारी स्वरूप की अर्थात शक्ति की मात्रा एवं उसका कार्य अधिक होता है, उस कालावधि को ‘नवरात्रि’ कहते हैं । मातृभाव एवं वात्सल्य भाव की अनुभूति देनेवाली, प्रीति एवं व्यापकता, इन गुणों के सर्वोच्च स्तर के दर्शन कराने वाली जगदोद्धारिणी, जगत का पालन करने वाली इस शक्ति की उपासना, व्रत एवं उत्सव के रूप में की जाती है ।
– रामजी के हाथों रावण का वध हो, इस उद्देश्य से नारदने रामसे इस व्रत का अनुष्ठान करने का अनुरोध किया था । इस व्रत को पूर्ण करने के पश्चात रामजी ने लंका पर आक्रमण कर अंत में रावण का वध किया ।
– देवी ने महिषासुर नामक असुर के साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक युद्ध कर, नवमी की रात्रि को उसका वध किया । उस समय से देवी को ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नाम से जाना जाता है ।
– ‘जगमें जब-जब तामसी, आसुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदारात्मक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों को छलते हैं, तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः अवतार धारण करती हैं । उनके निमित्त से यह व्रत है ।
– नवरात्रि में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलनामें 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है । देवीतत्त्व का अत्यधिक लाभ लेने के लिए नवरात्रि की कालावधिमें ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः ।’ नामजप अधिकाधिक करना चाहिए ।
नवरात्रि के नौ दिनों में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में एक सहस्र गुना अधिक सक्रिय रहता है । इस कालावधि में देवीतत्त्व की अतिसूक्ष्म तरंगें धीरे-धीरे क्रियाशील होती हैं और पूरे ब्रह्मांड में संचारित होती हैं । उस समय ब्रह्मांड में शक्ति के स्तर पर विद्यमान अनिष्ट शक्तियां नष्ट होती हैं और ब्रह्मांड की शुद्धि होने लगती है । देवीतत्त्व की शक्ति का स्तर प्रथम तीन दिनों में सगुण-निर्गुण होता है । उसके उपरांत उसमें निर्गुण तत्त्वकी मात्रा बढ़ती है और नवरात्रि के अंतिम दिन इस निर्गुण तत्त्वकी मात्रा सर्वाधिक होती है । निर्गुण स्तर की शक्ति के साथ सूक्ष्म स्तर पर युद्ध करने के लिए छठे एवं सातवें पाताल की बलवान आसुरी शक्तियों को अर्थात मांत्रिकों को इस युद्ध में प्रत्यक्ष सहभागी होना पड़ता है । उस समय ये शक्तियां उनके पूरे सामर्थ्य के साथ युद्ध करती हैं ।
नवरात्रिकी कालावधि में महाबलशाली दैत्यों का वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओं ने उनकी स्तुति की । उस समय देवीमां ने सर्व देवताओं एवं मानवों को अभय का आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।
– मार्कंडेयपुराण 91.51
इसका अर्थ है, जब-जब दानवोंद्वारा जगत्को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओं का नाश करूंगी ।
इस श्लोक के अनुसार जगत में जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अर्थात साधकोंको कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरोंका नाश करती हैं ।
`असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासितामें लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवी वृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुर की मायाको पहचानकर, उसके आसुरी बंधनोंसे मुक्त होनेके लिए शक्तिकी उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रिके नौ दिनोंमें शक्तिकी उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषिमुनियोंने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमोंसे देवीमां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशति के एक श्लोकमें कहा गया है,
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।।
– श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11.12
अर्थात शरण आए दिन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीड़ा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी!, आपको मेरा नमस्कार है । देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवी तत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनायी जाती है ।
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इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।
इसश्लोक केअनुसारजगत में जबभी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोगप्रबल होकर,सात्त्विक, उदारएवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंकोअर्थात साधकोंको कष्टपहुंचाते हैं,तबधर्मसंस्थापनाहेतुअवतारधारण करदेवी उनअसुरोंका नाश करती हैं https://t.co/AaSglB0HMh