जानिए तमिलनाडु में क्यों हो रहा है हिंदी का विरोध ? इसके पीछे बड़ी साजिश

07 जून 2019
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🚩केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया गया । उस नीति के अंतर्गत त्रिभाषा का प्रावधान रखा गया था । हिंदी और अंग्रेजी के अतिरिक्त मातृभाषा/प्रादेशिक भाषा का प्रावधान रखा गया । दक्षिण भारतीय प्रदेशों के कुछ अवसरवादी नेताओं ने इसे तमिलनाडु पर हिंदी थोपने के लिए फतवा करार दिया । पूर्व में भी हिंदी विरोधी लहर तमिलनाडु में राजनेताओं ने चलाई थी । जब भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट के नाम से छोड़ा था तब भी तमिलनाडु के राजनेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए उसका विरोध किया था । सभी जानते हैं कि तमिलनाडु आर्य-द्रविड़ की विभाजनकारी मानसिकता का केंद्र रहा है। वहां के राजनेता जनता को द्रविड़ संस्कृति के नाम पर भड़काते हैं।  वे कहते है कि द्रविड़ संस्कृति, तमिल भाषा हमारी मूल पहचान है । विदेशी आर्यों ने अपनी संस्कृति हमारे ऊपर थोपी है ।  उनका यह भी कहना है कि तमिल भाषा एक स्वतंत्र भाषा है एवं उसका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। संस्कृत आर्यों की भाषा है जिसे द्रविड़ों पर थोपा गया है ।

🚩एक सामान्य शंका मेरे मस्तिष्क में सदा रहती है कि तमिल राजनेता हिंदी/संस्कृत का विदेशी भाषा कहकर विरोध करते हैं परन्तु इसके विपरीत अंग्रेजी का समर्थन करते हैं । क्या अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति तमिलनाडु के किसी गाँव में हुई थी ? नहीं । फिर यह केवल एक प्रकार की जिद्द है । तमिलनाडु में हिंदी का विरोध कैसे प्रारम्भ हुआ ? इस शंका के समाधान के लिए हमें तमिलनाडु के इतिहास को जानना होगा ।
🚩रोबर्ट कालद्वेल्ल (Robert Caldwell -1814 -1891 ) के नाम से ईसाई मिश्नरी को इस मतभेद का जनक माना जाता है । रोबर्ट कालद्वेल्ल ने भारत आकर तमिल भाषा पर व्याप्त अधिकार कर किया और उनकी पुस्तक A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages, Harrison: London, 1856 में प्रकाशित हुई थी । इस पुस्तक का उद्देश्य तमिलनाडु का गैर ब्राह्मण जनता को ब्राह्मण विरोधी, संस्कृत विरोधी, हिंदी विरोधी, वेद विरोधी एवं उत्तर भारतीय विरोधी बनाना था । जिससे उन्हें भड़का कर आसानी से ईसाई मत में परिवर्तित किया जा सके और इस कार्य में रोबर्ट कालद्वेल्ल को सफलता भी मिली । पूर्व मुख्य मंत्री करूणानिधि के अनुसार इस पुस्तक में लिखा है कि संस्कृत भाषा के 20 शब्द तमिल भाषा में पहले से ही मिलते है। जिससे यह सिद्ध होता है कि तमिल भाषा संस्कृत से पहले विद्यमान थी । तमिलनाडु की राजनीति ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण धुरों पर लड़ी जाती रही हैं । इसीलिए इस पुस्तक को आधार बनाकर हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गए । विडंबना देखिये कि भाई-भाई में भेद डालने वाले रोबर्ट कालद्वेल्ल की मूर्ति को मद्रास के मरीना बीच पर स्थापित किया गया है । उसकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था ।
🚩जहाँ तक तमिल और संस्कृत भाषा में सम्बन्ध का प्रश्न है तो संस्कृत और तमिल में वैसा ही सम्बन्ध है जैसा एक माँ और बेटे में होता है। जैसा सम्बन्ध संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओं में है । संस्कृत जैसे विश्व की अन्य भाषाओं की जननी है वैसे ही तमिल की भी जननी है। अनुसन्धान करने पर हमें मालूम चलता है कि प्राचीन तमिल ग्रंथों में विशेष रूप से तमिल काव्य में बहुत से संस्कृत के शब्द प्रयुक्त किये गए है। यहाँ तक कि तमिल की बोलचाल की भाषा तो संस्कृत-शब्दों से भरी पड़ी है । कम्ब रामायण में भी अपभ्रंश रूप से अनेक संस्कृत शब्द मिल जायेंगे । तमिल भाषा की लिपि में अक्षर कम होने के कारण संस्कृत के शब्द स्पष्ट रूप से नहीं लिखे जाते। इसलिए अलग लिपि बन गई।
🚩“तमिल स्वयं शिक्षक” से तमिल, संस्कृत,हिंदी के कुछ शब्दों में समानता-
     तमिल                      संस्कृत                                            हिंदी
1.       वार्ते                     वार्ता                                              बात
2.       ग्रामम्                  ग्राम:                                              गांव
3.       जलम्                   जलम्                                               जल
4.       दूरम्                     दूरम्                                              दूर
5.       मात्रम्                  मात्रम्                                                मात्र
6.       शीग्रम                  शीघ्रम                                               शीघ्र
7.       समाचारम             समाचार:                                        समाचार
🚩इस प्रकार के अनेक उदहारण तमिल, संस्कृत और हिंदी में “तमिल स्वयं शिक्षक” से समानता के दिए जा सकते हैं।
🚩इसी प्रकार से “तमिल लैक्सिकान” के नाम से तमिल के प्रामाणिक कोष को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि तमिल भाषा में संस्कृत के अनेक शब्द विद्यमान है। तमिल वेद के नाम से प्रसिद्द त्रिक्कुरल , संत तिरुवल्लुवार द्वारा प्रणीत ग्रन्थ के हिंदी संस्करण की भूमिका में माननीय चक्रबर्ती राजगोपालाचारी लिखते हैं कि ‘इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर भारतवासी जानेंगे की उत्तरी सभ्यता और संस्कृति का तमिल जाति से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध और तादात्म्य हैं’। इस ग्रन्थ में अनेक वाक्य वेदों के उपदेश का स्पष्ट अनुवाद प्रतीत होते है। तमिल के प्रसिद्द कवि भारतियार की काव्य में भी संस्कृत शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। तमिलनाडु के प्रसिद्द संगम काल के साहित्य में संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों प्रभाव स्पष्ट रूप से मिलता हैं।
🚩एक अन्य उदहारण देखिये। तिरुक्कुल को तमिल वेद भी कहा जाता है। इसके लेखक तिरुवल्लुवर को ऋषि कह कर सम्मानित किया जाता है।
इसे पढ़ कर लगा कि तिरुक्कुल और मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रन्थों में बहुत अधिक समानता है। तिरुक्कुल का रचनाकाल 300 इस्वी पूर्व (300 BC) माना जाता है।  कुछ लोग इसका समय इतना पुराना नहीं मानते।  परन्तु इस बात पर सभी सहमत हैं कि यह तमिल की प्राचीनतम रचनाओं में से एक है। मनु स्मृति इससे भी बहुत प्राचीन है।  आश्चर्य है वेद की तरह इसमें भी कोई पाठभेद नहीं है।
(🚩मनु स्मृति और तिरुक्कुल की तुलना (कोष्ठक में संख्या तुरुक्कुल के पद्य की संख्या है)*
1-
🚩संन्यास और ब्राह्मण
तिरुक्कुल- सदाचार पर चलकर संन्यास ग्रहण करना सर्वश्रेष्ठ है. (21 ) मुक्ति के लिए संन्यास ग्रहण करे (22)
मनुस्मृति – सन्यासी का धर्म है कि मुक्ति के लिए इन्द्रियों को दुराचार से रोक कर सभी जीवों पर दया करे।
🚩2- गृहस्थ
तिरुक्कुल- गृहस्थ अन्य 3 आश्रमों के धर्माकुल जीवन जीने में सहायक होता है। (41) धन करते समय पाप से बचे और खर्च करते समय बाँट कर प्रयोग करे। (44) नियमानुसार गृहस्थ जीवन जीने वाला सभी आश्रमों से श्रेष्ठ है। (46)
मनुस्मृति- जिसके दान से 3 आश्रमों का जीवन चलता है वह गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा है। जैसे सभी वायु के आश्रित होते हैं वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।  गृहस्थ धर्मानुकुल धन का संचय करे।
यह केवल दिग्दर्शन मात्र है।  इस विषय पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।
🚩इतिहास के अनुसार पूर्वकाल में दक्षिण भारत से जावा, सुमात्रा, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि पूर्व के देशों में व्यापारिक, राजनीतिक, संस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्ध थे। भारतीय संस्कृति का प्रभाव आज भी उन देशों की संस्कृति में स्पष्ट रूप से दिखता है । तमिलनाडु से न केवल व्यापारी उन देशों में जाते थे। अपितु संस्कृति का प्रचार भी होता था।  इस सम्बन्ध के लिए प्रयोग होने वाली भाषा कोई अन्य नहीं अपितु संस्कृत ही थी।  इस प्रमाण जावा देश में 1768 तक मनुस्मृति के आधार पर प्रचलित विधि-विधान से मिलता है।(सन्दर्भ- Arnold Thomas, the Preaching of Islam, p.385)। मनुस्मृति संस्कृत में है। इससे यही सिद्ध हुआ कि उस काल में तमिलनाडु में धार्मिक कार्यों में संस्कृत भाषा का व्यापक रूप में प्रचलन था। https://www.facebook.com/288736371149169/posts/2604494092906707/
🚩संस्कृत भाषा और विश्व की अन्य में सम्बन्ध को सिद्ध करने के लिए पूर्व में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई है जैसे पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित वेदों का यथार्थ स्वरुप, Sanskrit-The Mother of all World Languages, पंडित भगवददृत्त जी द्वारा लिखित भाषा का इतिहास आदि। संस्कृत को विश्व की समस्त भाषाओं की जननी सिद्ध करने के लिए अनुसन्धान कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फुट डालो और राज करो की विभाजनकारी मानसिकता का प्रतिउत्तर सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के सूत्र से जोड़ना ही है। यही स्वामी दयानंद की मनोकामना थी। आर्यसमाज को भाषा वैज्ञानिकों की सहायता से रोबर्ट कालद्वेल्ल की पुस्तक की तर्कपूर्ण समीक्षा छपवा कर उसे तमिलनाडु में प्रचारित करवाना चाहिए। ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है। – ड़ॉ विवेक आर्य
🚩विदेशी ताकतों का हमेशा एक ही उद्देश्य रहा है कि हम आपस में ही लड़ते रहें, आज यह दिख भी रहा है इससे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है।
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