06 अगस्त 2019
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नाति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नरः ।।
अर्थ―जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है।
प्राप्तुकामैर्नरैहिंसा वर्जिता वै महात्मभिः । ―(21/9)
अर्थात्―जो सुन्दर रुप, पूर्णाङ्गता, पूर्ण-आयु, उत्तम बुद्धि, सत्त्व, बल और स्मरणशक्ति प्राप्त करना चाहते थे, उन महात्माओं ने हिंसा का सर्वथा त्यागकर दिया था।
तन्मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ।।―(21/12)
अर्थात्―स्वायम्भुव मनु का कथन है―”जो मनुष्य न मांस खाता है, न पशु-हिंसा करता और न दूसरे से ही हिंसा कराता है, वह सभी प्राणियों का मित्र होता है।”
साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन् ।। ―(21/13)
अर्थ―जो मनुष्य मांस का परित्याग कर देता है, वह सब प्राणियों में आदरणीय, सब जीवों का विश्वसनीय और सदा साधुओं से सम्मानित होता है।
*_नाति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नरः ।।
―(21/14)_*
अर्थ―जो दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है।
मधुमांसनिवृत्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः ।। ―(21/15)
अर्थ―बृहस्पतिजी का कथन है―”जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ और तप करता है अर्थात् उसे इन तीनों का फल मिलता है।”
प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा ।। ―(21/17)
अर्थात्―इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसारुप परमधर्म की प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, वैसे ही सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय जान पड़ते हैं।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ।। ―(21/19)
अर्थ―अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है, क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृत्ति होती है।
हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे ।। ―(21/20)
अर्थ―मांस तृण से, काष्ठ (लकड़ी) से अथवा पत्थर से पैदा नहीं होता, वह प्राणी की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है, अतः उसके खाने में महान् दोष है।
अमांसभक्षणे राजन् भयमन्यैर्न गच्छति ।। ―(21/22)
अर्थ―हे राजन् ! जो मनुष्य मांस नहीं खाता वह संकटपूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों और गहन वनों में भी दूसरों से नहीं डरता।
मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः ।। ―(21/27)
अर्थ―नियमपरायण महर्षियों ने मांसभक्षण के त्याग को ही धन, यश, दीर्घायु और स्वर्गसुख-प्राप्ति का प्रधान उपाय तथा परमकल्याण का साधन बताया है।
योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोषेण लिप्यते ।। ―(21/31)
अर्थ―जो स्वयं तो मांस नहीं खाता, परन्तु खाने वाले का अनुमोदन करता है, वह भी भाव-दोष के कारण मांसभक्षण के पाप का भागी होता है।इसी प्रकार जो मारनेवाले का अनुमोदन करता है, वह भी हिंसा के दोष से लिप्त होता है।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्टः स्यादिति श्रुतिः ।। ―(21/33)
अर्थ―सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करने से जो धर्म प्राप्त होता है, मांसभक्षण न करने से उसकी अपेक्षा भी विशिष्ट धर्म की प्राप्ति होती है, ऐसा सुना जाता है।
*_हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः ।।
―(21/34)_*
अर्थ―जो मांसलोभी मूर्ख एवम् अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है।
तस्मात्प्राणिषु सर्वेषु दयावानत्मवान् भवेत् ।। ―(21/47)
अर्थात्―इस भूमण्डल पर अपने आत्मा से बढ़कर कोई प्रिय पदार्थ नहीं है, अतः मनुष्य को चाहिए कि प्राणियों पर दया करे और सबको अपनी ही आत्मा समझे।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबद्ध्यस्व भारत ।। ―(21/51)
अर्थात्―हे भारत ! (वध्य प्राणी कहता है―) “आज मुझे वह खाता है, तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा”―यही मांस का मांसत्व है―यही मांस शब्द का तात्पर्य है।
सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया । ―(21/56)
अर्थ―सम्पूर्ण यज्ञों में दिया हुआ दान, समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान समस्त दानों का जो फल―यह सब मिलकर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकता।
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मांस खाने वाले ज्यादातर लोगों चिड़चिड़ापन होता है और ज्यादा गुस्सा होते है और शरीर व मन दोनों अस्वस्थ बन जाते हैं । गंभीर बीमारियों की चपेट में ज्यादा आते हैं । इन बीमारियों में हाई ब्लड प्रशेर, डायबिटिज, दिल की बीमारी, कैंसर, गुर्दे का रोग, गठिया और अल्सर शामिल हैं ।
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