30 अगस्त 2020
भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता है कि जीते-जी तो विभिन्न संस्कारों के द्वारा, धर्मपालन के द्वारा मानव को समुन्नत करने के उपाय बताती ही है, लेकिन मरने के बाद, अंत्येष्टि संस्कार के बाद भी जीव की सदगति के लिए किए जाने योग्य संस्कारों का वर्णन करती है।
मरणोत्तर क्रियाओं-संस्कारों का वर्णन हमारे शास्त्र-पुराणों में आता है । आश्विन (गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) के कृष्ण पक्ष को हमारे हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है । इस वर्ष श्राद्ध पक्ष : 01 सितम्बर से 17 सितंबर तक है।
सनातन हिन्दू धर्म में एक अत्यंत सुरभित पुष्प है कृतज्ञता की भावना, जो कि बालक में अपने माता-पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है । हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है । ‘श्राद्ध-विधि’ इसी भावना पर आधारित है ।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ कर्मानुसार स्वर्ग नरक में स्थान मिलता है । पाप-पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) में आता है । स्वर्ग में जाना यह पितृयान मार्ग है एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना यह देवयान मार्ग है ।
पितृयान मार्ग से जाने वाले जीव पितृलोक से होकर चन्द्रलोक में जाते हैं । चंद्रलोक में अमृतान्न का सेवन करके निर्वाह करते हैं । यह अमृतान्न कृष्ण पक्ष में चंद्र की कलाओं के साथ क्षीण होता रहता है । अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को उनके लिए आहार पहुँचाना चाहिए, इसलिए श्राद्ध एवं पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है । शास्त्रों में आता है कि अमावस्या के दिन तो पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए ।
दिव्य लोकवासी पितरों के पुनीत आशीर्वाद से कुल में दिव्य आत्माएँ अवतरित हो सकती हैं । जिन्होंने जीवन भर खून-पसीना एक करके इतनी साधन-सामग्री व संस्कार देकर आपको सुयोग्य बनाया उनके प्रति सामाजिक कर्त्तव्य-पालन अथवा उन पूर्वजों की प्रसन्नता, ईश्वर की प्रसन्नता अथवा अपने हृदय की शुद्धि के लिए सकाम व निष्काम भाव से यह श्राद्धकर्म करना चाहिए ।
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श्राद्ध पितरों तक कैसे पहुँचता है?
आधुनिक विचारधारा एवं नास्तिकता के समर्थक शंका कर सकते हैं किः “यहाँ दान किया गया अन्न पितरों तक कैसे पहुँच सकता है ?
भारत की मुद्रा ‘रुपया’ अमेरिका में ‘डॉलर’ एवं लंदन में ‘पाउण्ड’ होकर मिल सकती है एवं अमेरिका के डॉलर जापान में येन एवं दुबई में दीनार होकर मिल सकते हैं । यदि इस विश्व की नन्हीं सी मानव रचित सरकारें इस प्रकार मुद्राओं का रुपान्तरण कर सकती हैं तो ईश्वर की सर्वसमर्थ सरकार आपके द्वारा श्राद्ध में अर्पित वस्तुओं को पितरों के योग्य करके उन तक पहुँचा दे, इसमें क्या आश्चर्य है ?
मान लो, आपके पूर्वज अभी पितृलोक में नहीं, अपित मनुष्य रूप में हैं । आप उनके लिए श्राद्ध करते हो तो श्राद्ध के बल पर उस दिन वे जहाँ होंगे वहाँ उन्हें कुछ न कुछ लाभ होगा।
मान लो, आपके पिता की मुक्ति हो गयी हो तो उनके लिए किया गया श्राद्ध कहाँ जाएगा ? जैसे, आप किसी को मनीआर्डर भेजते हो, वह व्यक्ति मकान या आफिस खाली करके चला गया हो तो वह मनीआर्डर आप ही को वापस मिलता है, वैसे ही श्राद्ध के निमित्त से किया गया दान आप ही को विशेष लाभ देगा।
दूरभाष और दूरदर्शन आदि यंत्र, हजारों किलोमीटर का अंतराल दूर करते हैं, यह प्रत्यक्ष है । इन यंत्रों से भी मंत्रों का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है ।
देवलोक एवं पितृलोक के वासियों का आयुष्य मानवीय आयुष्य से हजारों वर्ष ज्यादा होता है । इससे पितर एवं पितृलोक को मानकर उनका लाभ उठाना चाहिए तथा श्राद्ध करना चाहिए।
भगवान श्रीरामचन्द्रजी भी श्राद्ध करते थे । पैठण के महान आत्मज्ञानी संत हो गये श्री एकनाथ जी महाराज, पैठण के निंदक ब्राह्मणों ने एकनाथ जी को जाति से बाहर कर दिया था एवं उनके श्राद्ध-भोज का बहिष्कार किया था । उन योगसंपन्न एकनाथ जी ने ब्राह्मणों के एवं अपने पितृलोक वासी पितरों को बुलाकर भोजन कराया । यह देखकर पैठण के ब्राह्मण चकित रह गये एवं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना की ।
जिन्होंने हमें पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, हममें भक्ति, ज्ञान एवं धर्म के संस्कारों का सिंचन किया उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके उन्हें तर्पण-श्राद्ध से प्रसन्न करने के दिन ही हैं श्राद्धपक्ष । श्राद्धपक्ष आश्विन के (गुजरात-महाराष्ट्र में भाद्रपद के) कृष्ण पक्ष में की गयी श्राद्ध-विधि गया क्षेत्र में की गयी श्राद्ध-विधि के बराबर मानी जाती है । इस विधि में मृतात्मा की पूजा एवं उनकी इच्छा-तृप्ति का सिद्धान्त समाहित होता है ।
प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण रहता है। श्राद्धक्रिया द्वारा पितृऋण से मुक्त हुआ जाता है । देवताओं को यज्ञ-भाग देने पर देवऋण से मुक्त हुआ जाता है । ऋषि-मुनि-संतों के विचारों को, आदर्शों को अपने जीवन में उतारने से, उनका प्रचार-प्रसार करने से एवं उन्हें लक्ष्य मानकर आदरसहित आचरण करने से ऋषिऋण से मुक्त हुआ जाता है ।
गरुड़ पुराण (10.57-59) में आता है कि ‘समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दु:खी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशुधन, सुख, धन और धान्य प्राप्त करता है ।
‘हारीत स्मृति’ में लिखा है :
न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुष:।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यंत्र श्राद्धं विवर्जितम।।
अर्थात ‘जिनके घर में श्राद्ध नहीं होता उनके कुल-खानदान में वीर पुत्र उत्पन्न नहीं होते, कोई निरोग नहीं रहता । किसी की लम्बी आयु नहीं होती और उनका किसी तरह कल्याण नहीं प्राप्त होता ( किसी – न – किसी तरह की झंझट और खटपट बनी रहती है ) ।’
अगर आपके पास पैसे की व्यवस्था नहीं है और पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाते तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें :
“हे सूर्य नारायण ! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दें) को आप संतुष्ट/सुखी रखें । इस निमित मैं आपको अर्घ्य व भोजन कराता हूँ ।” ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगाएं । और गाय माता को चारा खिलाये तो भी पितर तृप्त होते हैं।
श्राद्ध पक्ष में रोज भगवदगीता के सातवें अध्याय का पाठ और 1 माला द्वादश मंत्र ”ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” और एक माला “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा” की करनी चाहिए और उस पाठ एवं माला का फल नित्य अपने पितृ को अर्पण करना चाहिए इससे भी पितरों को तृप्ति मिलती हैं।
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