पुरातन समय में खड़ाऊ पहनने की वैज्ञानिकता और लाभ

 23 November 2024

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पुरातन समय में खड़ाऊ पहनने की वैज्ञानिकता और लाभ

हमारे पूर्वजों के रहन-सहन और जीवनशैली में हर एक परंपरा के पीछे गहरी वैज्ञानिक सोच छिपी हुई थी। ऐसा ही एक उदाहरण है पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने की प्रथा। यह केवल सांस्कृतिक या धार्मिक कारणों से ही नहीं, बल्कि पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित थी।

गुरुत्वाकर्षण और विद्युत तरंगों का सिद्धांत

विज्ञान के अनुसार, हमारे शरीर में निरंतर विद्युत तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण ये तरंगें पृथ्वी द्वारा अवशोषित हो जाती हैं। यदि यह प्रक्रिया लंबे समय तक जारी रहे, तो हमारे शरीर की जैविक शक्ति (Vitality Force) धीरे-धीरे खत्म हो सकती है।

इस समस्या से बचने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने लकड़ी के खड़ाऊ पहनने की परंपरा विकसित की। लकड़ी विद्युत कुचालक (Non-conductor) है, जिससे शरीर की विद्युत तरंगों का पृथ्वी के संपर्क में आने से बचाव होता है। खड़ाऊ पहनने से यह ऊर्जा हमारे शरीर में संरक्षित रहती है, जिससे शरीर मजबूत और ऊर्जावान बना रहता है।

खड़ाऊ का सामाजिक और धार्मिक महत्व

उस समय चमड़े के जूते का उपयोग धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विवादास्पद था। चमड़े का उपयोग हिंदू धर्म में अशुद्ध माना जाता था, विशेषकर पूजा-पाठ और धार्मिक कार्यों के दौरान। कपड़े के जूते हर स्थिति में उपयुक्त नहीं थे। इसके विपरीत, लकड़ी का खड़ाऊ हर दृष्टि से स्वीकार्य था।

खड़ाऊ पहनना न केवल स्वच्छता और ऊर्जा संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण था, बल्कि यह साधु-संतों और ऋषि-मुनियों का प्रतीक भी बन गया। इसका साधारण और प्राकृतिक स्वरूप आत्मसंयम, साधना और सरल जीवनशैली का प्रतीक माना गया।

खड़ाऊ और भोजन के दौरान लकड़ी के पाटे का उपयोग

खड़ाऊ के सिद्धांत का विस्तार भोजन करने की शैली में भी देखा जा सकता है। पुराने समय में भोजन लकड़ी की चौकी (पाटा) पर बैठकर किया जाता था। यह प्रथा डाइनिंग टेबल के प्रचलन से पहले भारतीय संस्कृति का हिस्सा थी।

भोजन के समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इस दौरान लकड़ी के पाटे पर बैठने से शरीर और पृथ्वी के बीच ऊर्जा का संरक्षण होता है। इससे शरीर भोजन को अधिक प्रभावी ढंग से पचाने में सक्षम होता है, और ऊर्जा का संतुलन बना रहता है।

लकड़ी के खड़ाऊ और पाटे के अन्य लाभ

स्वास्थ्य पर प्रभाव:

    ▪️ खड़ाऊ पहनने से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है, जो शरीर के संतुलन को बनाए रखने में मदद करती है।

    ▪️पाटे पर बैठकर भोजन करने से शरीर की मुद्रा ठीक रहती है, जिससे पाचन तंत्र मजबूत होता है।

आध्यात्मिक लाभ:

 ▪️खड़ाऊ का उपयोग ध्यान और साधना में भी किया जाता था। इससे शरीर पृथ्वी के नकारात्मक प्रभावों से बचा रहता है।

  ▪️खड़ाऊ पहनने से मन शांत और एकाग्रचित्त रहता है।

पर्यावरण के प्रति सम्मान:

लकड़ी प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल होती है। खड़ाऊ बनाने के लिए सामान्यत: वे लकड़ियां इस्तेमाल की जाती थीं जो सूख चुकी होती थीं, जिससे पेड़ों को नुकसान नहीं होता था।

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

आज के समय में, जहां प्लास्टिक और रबर के जूतों का उपयोग बढ़ रहा है, हमें अपने पूर्वजों की इस प्रथा से प्रेरणा लेनी चाहिए। खड़ाऊ न केवल हमारी शारीरिक ऊर्जा को संतुलित रखता है, बल्कि यह पर्यावरण के अनुकूल और स्वस्थ जीवनशैली का प्रतीक भी है।

निष्कर्ष 

खड़ाऊ पहनने और पाटे पर बैठकर भोजन करने की यह परंपरा हमारी सांस्कृतिक धरोहर के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अद्भुत उदाहरण है। हमें इसे संजोकर रखना चाहिए और अपने जीवन में अपनाना चाहिए। यह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की दूरदृष्टि और प्रकृति से जुड़ने का माध्यम है।

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