समान नागरिक संहिता का मुस्लिमों द्वारा विरोध और इसके प्रति संसद की उदासीनता क्यों?

8 दिसंबर 2021

azaadbharat.org

नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली. बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था. इसके बाद हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव विजयी हुआ और संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया।

अनुच्छेद-44 (समान नागरिक संहिता), अनुच्छेद-312 (भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा), अनुच्छेद-351 (हिंदी का प्रचार) जैसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अभी तक पेंडिंग हैं। अनुच्छेद-51A (मौलिक कर्तव्य) को लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।
इसके बाद भी मुसलमानों के दबाव में समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार दफना दिया गया।

मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई. इसी विरोध और कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ. तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताती-मानती है।

जिस कांग्रेस ने अपने शासन काल में 76 बार संविधान का संशोधन मूलत: निजी और दलीय स्वार्थों को देश पर थोपने के लिए किया, उसीने देश की एकता, अखंडता और सामाजिक सांप्रदायिक समरसता के लिए आवश्यक समान नागरिक संहिता को नकार दिया। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र हो, किंतु जिसने अपने देशवासियों के लिए मजहबी आधार पर अलग-अलग नियमों और कानूनों का निर्माण किया हो। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कुछ समुदायों के लिए व्यक्तिगत कानून है, उनके लिए कानून की किताबें बदल दी जाती हैं और शेष नागरिको के लिए अलग कानून है। यही नहीं, यहाँ के कुछ ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं जिनके लिए संविधान की धज्जियाँ भी उड़ा दी जाती हैं। उनका हित साधने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भी बौना बना दिया जाता है।
1985 में शाहबानो की उम्र 62 वर्ष थी और उसके पति ने तीन बार तलाक कहकर उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था. पाँच बच्चों की माँ शाहबानो को तब सिर्फ मैहर की रकम वापस की गई थी. तब की भारी बहुमत वाली सरकार ने मुआवजे और आजीविका भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था.
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समान नागरिक संहिता की चाह तो मूल संविधान में ही थी, लेकिन शासकों ने शुरू से इसे उपेक्षित किया। कई बार सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर भी कार्रवाई नहीं की। समान संहिता की मांग हिंदू मुद्दा नहीं, बल्कि सेक्युलर मांग है। यह मांग तो सेक्युलरवादियों को करनी चाहिए।

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