18 अप्रैल 2019
*“समान नागरिक संहिता” ऐसी होनी चाहिये जिसका मुख्य आधार केवल भारतीय नागरिक होना चाहिये और कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म, जाति व सम्प्रदाय का हो सभी को सहज स्वीकार हो। जबकी विडम्बना यह है कि एक समान कानून की मांग को साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर हिन्दू कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपने के रुप में प्रस्तुत किया जाने का कुप्रचार किया जा रहा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 में हुए धर्माधारित विभाजन के पश्चात भी हम आज लगभग 71 वर्ष बाद भी उस विभाजनकारी व समाजघाती सोच को समाप्त न कर सकें बल्कि उन समस्त कारणों को अल्पसंख्यकवाद के मोह में फंस कर प्रोत्साहित ही करते आ रहे है। हमारे मौलिक व संवैधानिक अधिकारो व साथ में पर्सनल लॉ की मान्यताए कई बार विषम परिस्थितियां खड़ी कर देती है, तभी तो उच्चतम न्यायालय “समान नागरिक संहिता” बनाने के लिए सरकार से बार-बार आग्रह कर रहा है।*
*समान नागरिक संहिता अर्थात देश के हर धर्म-समुदाय के नागरिक के लिए एक समान क़ानून। ये मुद्दा है जो हमेशा से भारतीय जनता पार्टी के मूल एजेंडे में रहा है। चरमपंथियों तथा कथित लिबरलों को छोड़ दें तो देश की ज्यादातर जनता भी इस कानून की पक्षधर है कि जब भारत एक सेक्युलर राष्ट्र है तब देश के सभी नागरिकों के लिए समान क़ानून क्यों नहीं है? सामान नागरिक संहिता कब लागू होगी, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन इससे पहले माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर ऐसी टिप्पणी की है, जिसे सुन चरमपंथी चौंक गये हैं।*
*खबर के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट ने 13 सितंबर को देश के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता (UCC) तैयार किए जाने पर जोर दिया। इसके साथ ही उसने अफसोस जताया कि उसके प्रोत्साहन के बाद भी एक भी बार इस मकसद को हासिल करने की कोई कोशिश नहीं की गई। न्यायालय ने कहा कि संविधान निर्माताओं को आशा और उम्मीद थी कि राज्य पूरे भारतीय सीमा क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित कराने की कोशिश करेगा, लेकिन अभी तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।*
*सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गोवा एक बेहतरीन उदाहरण है जहां समान नागरिक संहिता है और धर्म की परवाह किए बिना सब पर लागू है सिवाय कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा करते हुए। गोवा के मामले का जिक्र करते हुए कहा, “जिन मुस्लिम पुरुषों की शादियां गोवा में पंजीकृत हैं, वे बहुविवाह नहीं कर सकते। इसके अलावा इस्लाम के अनुयायियों के लिए भी मौखिक तलाक का कोई प्रावधान नहीं है.”न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि यह गौर करना दिलचस्प है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से जुड़े भाग चार में संविधान के अनुच्छेद 44 में निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा लेकिन आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है।*
*सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिंदू कानून तो 1956 में वजूद में आया, लेकिन देश के सभी नागरिकों पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। पीठ ने यह भी कहा, 1985 में शाह बानो मामला, 1995 में सरला मुद्गल व अन्य बनाम भारत सरकार मामला और 2003 में जॉन वेल्लामैटम बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की हिमायत की थी, लेकिन अफ़सोस अब तक इसे लेकर कोई प्रयास नहीं किया गया।*- सुदर्शन न्यूज़
*भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत सरकार का ये कर्तव्य है कि पूरे देश में Uniform Civil Code लागू करें, मतलब सभी नागरिक कानून के सामने समान हो और सबको एक जैसे अधिकार मिले ।*
*पर वास्तविकता कुछ और ही है । आज़ादी के 71 साल के बाद भी आज तक Uniform Civil Code लागू नहीं हुआ है । अगर ये अनुच्छेद 44 मौलिक अधिकारों में डाल दिया होता तो इसको लागू करने के लिए आम आदमी अदालत का दरवाजा खटखटा सकता था । पर इस अनुच्छेद को नेहरु ने जान बुझकर नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) में डाल दिया ताकि कोई अदालत में जाकर इसे लागू कराने के लिये फरियाद ना करें ।*
*वास्तव में ये अंग्रेज़ों की “फूट डालो और राज करो” की नीति का हिस्सा था । इसलिए Uniform Civil Code को मौलिक अधिकार नहीं बनाया ।*
*यह अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले 30- 35 वर्षो में 5 -6 बार उच्चतम न्यायालय ने समाज में घृणा, वैमनस्यता व असमानता दूर करने के लिए समान कानून को लागू करना आवश्यक माना है फिर भी अभी तक कोई सार्थक पहल नही हो पायी । लगभग 15-20 वर्ष पूर्व में किये गए एक सर्वे के अनुसार भी 84 % जनता इस कानून के समर्थन में थी । इस सर्वे में अधिकांश मुस्लिम माहिलाओं व पुरुषो ने भी भाग लिया था । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सन 2000 में समान नागरिक व्यवस्था के लिये भारत सरकार को परामर्श दिया था। क्या यह राष्ट्रीय विकास के लिए अनिवार्य नहीं ? क्या “सबका साथ व सबका विकास ” के लिए एक समान कानून व्यवस्था बनें तो इसमें आपत्ति कैसी ?*
*विश्व में किसी भी देश में धर्म के आधार पर अलग अलग कानून नहीं होते सभी नागरिकों के लिए एक सामान व्यवस्था व कानून होते है। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहां अल्पसंख्यक समुदायों के लिए पर्सनल लॉ बनें हुए है। जबकि हमारा संविधान अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, लिंग, क्षेत्र व भाषा आदि के आधार पर समाज में भेदभाव नहीं करता और एक समान व्यवस्था सुनिश्चित करता है। परंतु संविधान के अनुच्छेद 26 से लेकर 31 तक से कुछ ऐसे व्यवधान है जिससे हिंदुओं के सांस्कृतिक -शैक्षिक-धार्मिक संस्थानों व धार्मिक ट्रस्टो को विवाद की स्थिति में शासन द्वारा अधिग्रहण किया जाता आ रहा है । जबकि अल्पसंख्यकों के संस्थानों आदि में विवाद होने पर शासन कोई हस्तक्षेप नही करता….यह विशेषाधिकार क्यों ? इसके अतिरिक्त एक और विचित्र व्यवस्था संविधान में की गई कि अल्पसंख्यको को अपनी धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ने की पूर्ण स्वतंत्रता रहेगी । जबकि संविधान सभा ने बहुसंख्यक हिन्दूओं के लिए यह धारणा मान ली कि वह तो अपनी धर्म शिक्षाओं को पढ़ाते ही रहेंगे। अतः हिन्दू धर्म शिक्षाओं को पढ़ाने को संविधान में लिखित रुप में प्रस्तुत नही किये जाने का दुष्परिणाम आज तक हिन्दुओं को भुगतना पड़ रहा है।*
*“राष्ट्र सर्वोपरि” की मान्यता मानने वाले सभी यह चाहते है कि एक समान व्यवस्था से राष्ट्र स्वस्थ व समृद्ध होगा और भविष्य में अनेक संभावित समस्याओं से बचा जा सकेगा। यह भी कहना उचित ही होगा कि भविष्य में असंतुलित जनसंख्या अनुपात के संकट से भी बचने के कारण राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप व लोकतांन्त्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित रहेगी और जिहादियों का बढ़ता दुःसाहस भी कम होगा ।*
*अब सरकार का दायित्व है कि इसको लाने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ संविधान की मूल आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के आधार पर एक प्रारुप तैयार करके राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक परिचर्चा के माध्यम से इस कानून का निर्माण करवायें। निःसंदेह आज देश की एकता, अखंडता, सामाजिक व साम्प्रदायिक समरसता के लिए “समान नागरिक संहिता” को अपना कर विकास के रथ को गति देनी होगी।*
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