08 April 2025
पारे की खोज किसने की? इस प्रश्न का निश्चित एवं समाधानकारक उत्तर कोई नहीं देता।
पश्चिमी दुनिया को सत्रहवीं शताब्दी तक पारे की पहचान भी नहीं थी। दूसरी ओर, मिस्र के पिरामिडों में ईसा से लगभग 1800 वर्ष पूर्व पारा रखा जाना पाया गया है। पारा जहरीला होता है, इस बारे में सभी एकमत हैं। इसी कारण, 140 से अधिक देशों ने पारे का समावेश करने वाली भारतीय आयुर्वेदिक औषधियों पर तीन वर्ष पहले प्रतिबंध लगा दिया था, जो आगे चलकर हटा लिया गया।
मजे की बात यह है कि जहरीला माना जाने वाला पारा, ईसा से ढाई हजार वर्षों पहले तक भारतीय ऋषियों एवं चिकित्सकों द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उपयोग किया जाता रहा। ईसा से पाँच सौ वर्षों पूर्व इसका उपयोग आयुर्वेद में किया जाता था, यहाँ तक कि खाने के माध्यम से ली जाने वाली औषधियों में भी। अर्थात पश्चिमी दुनिया जिस पारे से तीन सौ वर्ष पहले तक पूर्ण रूप से अनजान थी, ऐसे जहरीले पारे का उपयोग ढाई-तीन हजार वर्षों पूर्व भारत के लोग औषधि के रूप में करते थे, यही अपने-आप में एक बड़ा आश्चर्य है। और इस प्रकार औषधि के रूप में पारे का उपयोग करते समय उसे पूरी तरह से ‘प्रोसेसिंग’ करके काम में लिया जाता था, यह भी बहुत महत्वपूर्ण है।
हिन्दू संस्कृति के अनुसार जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य पर सोलह संस्कार किए जाते हैं, ठीक इसी प्रकार पारे पर भी अठारह प्रकार के संस्कार करने के बाद ही वह औषधि के रूप में सेवन करने योग्य निर्मित होता है। यह अठारह संस्कार निम्नलिखित हैं –
1. स्वेदन
2. मर्दन
3. मूर्च्छन
4. उत्थापन
5. पातन
6. रोधन
7. नियामन
8. संदीपन
9. गगनभक्षणमान
10. संचारण
11. गर्भद्रुति
12. बाह्यद्रुति
13. जारण
14. ग्रास
15. सारण
16. संक्रामण
17. वेध
18. शरीरयोग
वाग्भट्ट आचार्य द्वारा लिखित ‘रस रत्न समुच्चय’ नामक ग्रन्थ में पारे से औषधि का उपयोग करने के बारे में विस्तार से लिखा गया है। सामान्यतः यह ग्रन्थ ईस्वी सन 1300 के आसपास लिखा हुआ माना जाता है। अर्थात जो ज्ञान पहले से ही ज्ञात था, उसे तेरहवीं/चौदहवीं शताब्दी में वाग्भटाचार्य ने शब्दांकित करके, विस्तार से समझाकर हमारे समक्ष रखा है। (ये वाग्भट्ट अलग हैं, पाँचवीं शताब्दी में ‘अष्टांग ह्रदय’ नामक आयुर्वेद से परिपूर्ण ग्रन्थ लिखने वाले वाग्भट्ट दूसरे हैं)।
इस ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं, विधियों के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। अर्थात आज से लगभग दो-ढाई हजार वर्ष पहले तक भारतीयों को यह ‘रसायनशास्त्र’ बड़े ही विस्तार से मालूम था एवं हमारे पूर्वजों ने व्यवस्थित पद्धति से इस ज्ञान का विकास किया था।
‘रस रत्न समुच्चय’ में दी गई जानकारी के अनुसार दोला यंत्र, पातना यंत्र, स्वेदनी यंत्र, अधःपतन यंत्र, कच्छप यंत्र, जारणा यंत्र, विद्याधर (उर्ध्वपातन) यंत्र, सोमानल यंत्र, बालुका यंत्र, लवण यंत्र, हंसपाक यंत्र, भूधर यंत्र, कोष्टी यंत्र, वलभी यंत्र, तिर्यकपातन यंत्र, पालिका यंत्र, नाभी यंत्र, इष्टिका यंत्र, धूप यंत्र, स्वेदन (कंदुक) यंत्र, तत्पखाल यंत्र… ऐसे अनेक यंत्रों का उपयोग ‘रसशाला’ में किया जाता था। इन तमाम यंत्रों द्वारा पारद (पारे), गंधक इत्यादि पर रासायनिक प्रक्रिया करते हुए औषधियों का निर्माण किया जाता था।
नागार्जुन ने ‘रस रत्नाकर’ ग्रन्थ में सिनाबार नामक खनिज से पारद (पारा) निकालने हेतु उसकी आसवन विधि का विस्तार से उल्लेख किया है। ऐसी ही विधि ‘रस रत्न समुच्चय’ एवं आगे चलकर चरक/सुश्रुत की संहिताओं में भी देखी जा सकती हैं। इसमें आसवन प्रक्रिया के लिए ‘ढेकी’ यंत्र का उपयोग करने के बारे में बताया गया है। मजे की बात यह है कि आज जिस आधुनिक पद्धति से पारे का निर्माण किया जाता है, वह विधि ठीक इसी ग्रन्थ में दी गई विधि के समान है, अंतर केवल इतना है कि साधन आधुनिक हैं, लेकिन प्रक्रिया आज भी वही है…!
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। ईसा से पांच-छह सौ वर्षों पहले हमारे पूर्वजों ने अत्यंत व्यवस्थित, सुव्यवस्थित, प्रणालीबद्ध ऐसी अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं का उपयोग करना आरम्भ कर दिया था, जिसका मानकीकरण (standardization) उसी कालखंड में हो चुका था।
आचार्य सर प्रफुल्लचंद्र राय (सन 1861 से 1944) को आधुनिक समय का आद्य रसायनशास्त्रज्ञ कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा भारत की पहली औषधि निर्माण कम्पनी ‘बेंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल’ की स्थापना की गई थी। अंग्रेजों के श्रेष्ठिवर्ग में भी इनका बहुत सम्मान किया जाता था। इन्हीं प्रफुल्लचंद्र राय ने एक बहुत ही उत्तम पुस्तक लिखी है – ‘हिन्दू केमिस्ट्री’। इस पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह तथ्य रेखांकित किया है कि रसायनशास्त्र के निर्माण में हमारे हिन्दू पूर्वज बहुत ही उन्नत थे।
इसी पुस्तक में उन्होंने वेदों में लिखे हुए भिन्न-भिन्न रसायनों का उल्लेख, अणु/परमाणु का विस्तृत विवेचन, चरक एवं सुश्रुत ऋषियों द्वारा रसायनों के बारे में किये गए विस्तृत प्रयोगों के बारे में विस्तार से लिखा है। उस कालखंड में उपलब्ध बालों को रंगने की कला से लेकर पारे जैसे घातक रसायन पर किए गए प्रयोगों तक के अनेक सन्दर्भ इस पुस्तक में प्राप्त होते हैं। धातुशास्त्र के बारे में भी इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है। 1904 में लिखी गई इस पुस्तक ने आयुर्वेद एवं प्राचीन भारतीय रसायनशास्त्र की ओर पश्चिमी शोधकर्ताओं के देखने का दृष्टिकोण ही बदलकर रख दिया।
हमारे वेदों में रसायनशास्त्र संबंधी अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं।
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