06 जुलाई 2019
जनाब असदुद्दीन ओवैसी जी, जय रामजी की! पहले भारत में अनेक मुसलमान भी जय रामजी की कहते थे । मौलाना हाली ने अपनी मशहूर किताब के बिलकुल शुरु में ‘रामकहानी’ ही लिखा है । यह तो पिछले 150 साल में यहाँ मुसलमानों को अपने ही देश की संस्कृति से तोड़ने की तबलीगी राजनीति चली। अफसोस! कि उसके नतीजों का हिसाब करने के बदले आज भी वही जारी है।
यही हमारे लिखने का कारण है। आप आज मुसलमानों के एक काबिल नेता हैं। आपकी बातें लोग पढ़ते, सुनते हैं। अभी आपने कहा कि मुसलमान इस देश में ‘किराएदार नहीं, हिस्सेदार हैं।’ किंतु आप ने ही यह भी कहा था कि हम भारत माता की जय नहीं कहेंगे। अब देश को अपना समझने के लिए कुछ तो चाहिए। आप ही बताएँ कि यहाँ किस मुस्लिम नेता ने कभी ऐसी बातें की जिस में पूरे देश का हित झलका हो?
हमेशा अलगाव, दावेदारी, धमकी, शिकायत – इसके सिवा मुसलमान नेता किसी राष्ट्रीय चिंता में भाग नहीं लेते, तो यह खुद अपने को किराएदार मानने जैसा है। जिसे घर के रख-रखाव की फिक्र नहीं, जो उसे मकान-मालिक का तरद्दुद समझे। क्या कश्मीर पर भारतीय पक्ष के लिए आपने कोई अभियान चलाया? यदि भारत रूपी घर के एक कोने पर बाहरी डाकू हमला करते या सेंध लगाते हैं, तो घर की तरह सुरक्षा में आवाज लगाने के बजाए बड़े-बड़े मुस्लिम नेता चुप्पी साधे रखते हैं। सोचिए, ऐसा तो किराएदार भी नहीं करता!
जहाँ तक हिस्सेदारी की बात है, तो 1947 ई. में ही भारतीय मुसलमानों का ‘हिस्सा’ बाकायदा अलग कर लिया गया था। मुसलमानों के अलग देश के लिए मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया और पाकिस्तान बनवाया। तब बचे हुए भारत में मुसलमानों के ‘हिस्से’ का सवाल ही नहीं रहा! फिर भी जो मुस्लिम यहीं रह गए, उन में 1965-70 ई. तक यह शर्म दिखती थी- कि उन्होंने देश तोड़ा, हिंदुओं को चोट पहुँचाई, और फिर पाकिस्तान गए भी नहीं। इस उदारता के लिए हिंदुओं का अहसान भी वे मानते थे। पर उस पीढ़ी के गुजरते-न-गुजरते नए मुस्लिम नेताओं ने फिर वही शिकायती राजनीति मुस्लिमों में भरनी शुरू कर दी। यह कब तक चलेगा, ओवैसी जी!
डॉ अंबेडकर ने इसे बखूबी समझा था: ‘‘मुस्लिम राजनीति अनिवार्यतः मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को मान्यता देती है – हिंदू और मुसलमानों के बीच अंतर। जीवन के किसी मजहब-निरपेक्ष तत्व का मुस्लिम राजनीति में कोई स्थान नहीं है।’’ यह बात डॉ अंबेडकर ने 80 साल पहले लिखी थी। क्या आज भी इस में कुछ बदला है?
एक ओर मुसलमान खुद को अंतर्राष्ट्रीय उम्मत का हिस्सा मान कर खलीफत, फिलस्तीन, बोस्निया, खुमैनी, सद्दाम, आदि के लिए हाय-तौबा और हंगामा करते रहते हैं। दूसरी ओर हिंदुओं को अपने ही देश में, अपने सब से पवित्र तीर्थों पर भी अधिकार नहीं देते। क्या ऐसा दोहरापन आज की दुनिया में चल सकेगा?
पिछले चार दशक से पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद के जलवे, और उसे अनेक मुस्लिम देशों के सत्ताधारियों की शह ने सब को नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया। बार-बार दिखा कि मिली-जुली आबादी वाले देशों में मुस्लिम नेता जैसी मनमानी, विशेषाधिकारी माँगें करते हैं, मुस्लिम सत्ता वाले देशों में दूसरों को वह अधिकार तो क्या, बराबरी का हक भी नहीं देते!
फिर, पूरी दुनिया में असली अल्पसंख्यक हिंदू ही हैं। ये बात पहले यहाँ के मुसलमान नेता भी कह चुके हैं। तब, हिंदुओं को अपने ही देश में अपनी धर्म-संस्कृति के वर्चस्व का अधिकार क्यों न हो? वह किस कारण, किस सिद्धांत या व्यवहार से दूसरों को हिस्सेदारी दे? कभी आप एक हिन्दू की नजर से देखें-सोचें, कि उसे अपनी ही भूमि के पाकिस्तान बन जाने पर क्या मिला, और उस की बनिस्पत मुसलमानों को भारत में क्या हासिल है?*
आपके ही छोटे ओवैसी हिंदू देवी-देवता, हिंदू जनता और भारत सरकार का मजाक उड़ाते हैं। कुछ मुस्लिम नेता भारतीय सेना पर घृणित टिप्पणी करते हैं। संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिख शिकायतें करते हैं। जबकि यहाँ मुसलमानों के लिए अलग कानून, आयोग, विश्वविद्यालय, मंत्रालय, आदि बनते चले गए। गोया देश के अंदर अलग देश हो। ईमाम बुखारी, शहाबुद्दीन, फारुख, महबूबा, आदि कितने ही नेता उग्र बयानबाजियाँ करके भी राज-पाट भोगते रहे। मगर सब की बोली ऐसी रहती है मानो वे भारत से अलग, ऊपर कोई हस्ती हों! यह तब जबकि वे भारत की ही तमाम सुख-सुविधाओं, शक्तियों का उपभोग करते हैं। इस की तुलना में पाकिस्तान में हिंदुओं का क्या हाल रहा!
आप खूब जानते हैं कि मुस्लिम नेताओं की इस दोहरी प्रवृत्ति में ताकत का घमंड है। अनेक नेता ‘पुलिस को एक दिन के लिए हटाकर देखने’ की खुली चुनौती देते रहे हैं। वे अपने को लड़ाकू, शासक परंपरा का मानते हैं जिन के सामने बेचारे गाय-प्रेमी, शान्तिप्रिय हिंदू कुछ नहीं। इस घमंडी सोच में मौलाना अकबर शाह खान से लेकर आजम खान तक पिछले सौ सालों से कुछ न बदला।
यानी, भारत को तोड़ कर अलग घर ले लेने के बाद, फिर यहाँ मुस्लिम नेता वही देश-घातक राजनीति करने लगे। इसे डॉ अंबेडकर ने बड़ा सटीक नाम दिया था: ग्रवेमन राजनीति। उन के अपने शब्दों में, ‘ग्रवेमन पॉलिटिक का तात्पर्य है कि मुख्य रणनीति यह हो कि शिकायतें कर-कर के सत्ता हथियाई जाए।’ अर्थात्, मुस्लिम राजनीति शिकायतों से दबाव बनाती है। निर्बल के भय का ढोंग रचती है, जबकि दरअसल ताकत का घमंड रखती और उस का प्रयोग भी करती है। किस लेखक को यहाँ रहने देना, किसे बोलने देना, जिस किसी बात पर आग लगाना, तोड़-फोड़ करना, आदि में देश के कानून-संविधान को अँगूठा दिखाती है। यह सब करते हुए, जैसे मोदी-भाजपा को मुसलमानों का दुश्मन, वैसे ही 1947 ई. के बँटवारे से पहले गाँधीजी-कांग्रेस को भी बताते थे। ऐसे झूठे प्रचारों पर लाखों अनजान मुसलमान विश्वास कर लेते हैं, क्योंकि उन के नेता सारा प्रचार मजहब के नाम से करते हैं।
क्या इतने लंबे अनुभव से भी हिंदुओं को कुछ सीखना नहीं चाहिए? यह ठीक है कि एक बार वह घमंडी ‘डायरेक्ट एक्शन’ वाली मुस्लिम राजनीति देश बाँटने, तोड़ने में सफल रही। लेकिन अब हिंदू उतने सोए नहीं रह सकते। सेटेलाइट टीवी और इंटरनेट से वे दुनिया भर की घटनाएँ सीधे देखते हैं। वे आसानी से समझ सकते हैं कि अधिकांश मुस्लिम नेता केवल इस्लाम की ताकत बढ़ाने में लगे रहे हैं। एक बार मौलाना बुखारी ने कहा भी था कि ‘भारत में सेक्यूलरिज्म इसलिए है, क्योंकि यहाँ हिंदू बहुमत हैं।’ मतलब यह कि मुसलमानों को सेक्यूलरिज्म से कोई मतलब नहीं।
यही बात देशभक्ति या वतनपरस्ती के बारे में भी है। दो-एक मुस्लिम नेता भारतीय संसद में कह चुके हैं कि उन्हें राष्ट्रीय अखंडता की कोई परवाह नहीं। यानी, वे सेक्यूलरिज्म और लोकतांत्रिक अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं। देश की चिंता नहीं करते, और हिंदुओं को दोहरा-तिहरा मूर्ख बनाते हैं! जरा सोचें, किस को किस से शिकायत होनी चाहिए? कौन मालिक-मकान है, कौन किराएदार; कौन घर-घालक, कौन घर-रक्षक; कौन उत्पीड़ित, कौन उत्पीड़क?
फिर, उस तबलीग, उस बरायनाम अलगाववाद से किस का भला हुआ? मुसलमानों का सब कुछ अलग करते हुए अंततः अलग देश बना देने से भी उन्हें क्या मिला? पाकिस्तान आज अमेरिका या चीन की रणनीतिक भीख पर जिंदा है। पाकिस्तान का भौगोलिक महत्व हटा दें, तो उस से संबंध रखने का इच्छुक कोई देश नहीं। ईरान और सऊदी अरब भी नहीं।
आज किसी भी पैमाने से पाकिस्तान की बनिस्पत आज भारत में मुसलमान अधिक सहज, शांतिपूर्ण, खुशहाल और सम्मानित जिंदगी जीते हैं। आखिर कैसे? मिर्जा गालिब ने कहा थाः ‘काफिर हूँ, गर न मिलती हो राहत अजाब में’। यानी राहत के लिए हर चीज में इस्लाम की झक से छुटकारा लेना होगा। अब तो सऊदी अरब के प्रिंस सलमान भी कुछ यही कह रहे हैं।
इसलिए यहाँ भी मुस्लिम नेताओं को तैमूरी-मुगलिया घमंड और अलगाव की भाषा छोड़नी चाहिए। वह वैसे भी खाम-खाह का वहम है। हिन्दुओं की उदारता, शान्तिप्रियता को कमजोरी समझना भूल है। दुनिया में हिन्दुस्तान ही है जहाँ इस्लामी राज बन जाने के बाद फिर उसे खत्म किया गया। यह हिन्दुस्तान ही है जिस के सामने अभी हाल में पाकिस्तान की एक लाख सशस्त्र सेना ने सरेंडर किया था। फिर हिन्दुस्तान ही है जहाँ किसी जमाने में खलीफा से भी अधिक ताकत रखने वाले मुगल बादशाह अकबर ने इस्लामी मजहब को दरकिनार कर ‘दीन-ए-इलाही’ चलाया ।
कहने का मतलब यह कि हिन्दू समाज ने इस्लामी ताकत को सैनिक, सांस्कृतिक, और दार्शनिक हर चीज में हराया है। चाहे कई बार हिंदू शासकों, नेताओं की बेमतलब भलमनसाहत से हिंदुओं को तबाही भी झेलनी पड़ी है। पर वह हमेशा इस्लामी ताकत के कारण नहीं हुआ है। यह सब इतिहास तथा इस्लामी राजनीति की खूबी-खामी के बारे में अब आम हिंदू ही नहीं, पूरी दुनिया के अन्य गैर-मुस्लिम भी काफी-कुछ जानते हैं। इस्लामी राजनीति की बढ़त होने का नतीजा भी बिलकुल साफ है। पिछले पचाल सालों में खुमैनी, तालिबान और इस्लामी स्टेट के कारनामों ने धीरे-धीरे सारी दुनिया की आँखें खोल दी हैं। उससे मुसलमानों का भी भला नहीं होता।
अतः लगता है कि अब दुनिया में इस्लाम आधारित राजनीति का कोई भविष्य नहीं है। अब दूरदर्शी नेताओं को फिरके और मजहब से ऊपर उठकर, मानवीय समानता को आधार बना कर मुसलमानों में भी सभी धर्मों के प्रति आदर रखने की समझ देनी चाहिए। इसी से उन्हें सच्चा भाईचारा महसूस भी होगा। सेक्यूलरिज्म या अधिकार एकतरफा नहीं चल सकता। अतः आपसे निवेदन है कि घर में सचमुच मिल-जुल कर रहने पर विचार करें। आगे, रामजी की इच्छा! – लेखक : शंकर शरण
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