संघ के द्वितीय सरसंघचालक
श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी के बारे में जानिए कुछ रहस्यमय बातें…..
5 June 2023
🚩श्री गोलवलकर गुरूजी का जन्म माघ कृष्ण 11 संवत 1963 तदनुसार 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य ‘भाऊ जी’ तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य ‘ताई’ था। उनका बचपन में नाम माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिताश्री सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे, परन्तु बाद में सन् 1908 में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर हो गयी।
🚩शिक्षा के साथ अन्य अभिरुचियाँ!!
🚩मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे, उसे वे सहज ही कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय विकास बचपन से ही हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने ‘हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा’ में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के ‘जुबली हाई स्कूल’ से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने नागपुर की ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित ‘हिस्लाप कॉलेज’ से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हॉकी तो खेलते ही थे, कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।
🚩विश्वविद्यालय में ही आध्यात्मिक रुझान
🚩इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा “संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक ‘विचार सम्पदा’, भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया” । इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में ‘मत्स्य जीवन’ पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा। उनमें अद्भुत क्षमता थी, लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की।
🚩प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी
🚩नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निर्देशक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निर्देशक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।
🚩अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए.की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थी, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।
🚩संघ प्रवेश
🚩सबसे पहले “डॉ॰ हेडगेवार” के द्वारा काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। “डॉ हेडगेवार” के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यंत प्रेरणा दायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- “मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है, स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।” 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ हेडगेवार के साथ निरंतर रहते हुये अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया। इससे डॉ हेडगेवार जी का ध्येय पूर्ण हुआ।
🚩द्वितीय संघचालक हेतु नियुक्ति
🚩राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक “डॉ हेडगेवार” के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में “हेडगेवार” का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा “अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें”। 21 जून 1940 को हेडगेवार अनंत में विलीन हो गए।
🚩भारत छोड़ो- श्री गुरूजी का दृष्टिकोण
🚩9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ “भारत छोड़ो” आंदोलन छेड़ दिया। देश भर में बड़ा आंदोलन शुरू तो हो गया, परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से जनता की तरफ से कई प्रकार की तोड़ फोड़ होने लगी। सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था कि संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।
🚩विभाजन संकट में अद्वितीय नेतृत्व
🚩16 अगस्त 1946 को मुहम्मद अली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया। उन्ही दिनों में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे किन्तु कांग्रेसी नेतागण अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। भीषण दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन घड़ी में पाकिस्तान के भाग में प्रवास करते रहे।
🚩संघ पर प्रतिबन्ध
🚩30 जनवरी 1948 को गांधी हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया। देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया था कि संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ। देश भर में यह स्वर गूंज उठा था। 26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था “गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुये सभी अपराधी लोग पकड़ में आगए हैं। उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।”
🚩9 दिसम्बर 1948 को सत्याग्रह नाम के इस आंदोलन की शुरुआत होते ही कुछ 4-5 हजार बच्चों का यह आंदोलन है ऐसा मानकर नेतागण ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन उसके उलट किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में इतनी संख्या नहीं थी। 77,0,90 स्वयंसेवकों ने विभिन्न जेलों को भर दिया। आखिरकार संघ को लिखित संविधान बनाने का आदेश दे कर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और अब गांधी हत्या का इसमें जिक्र तक नहीं हुआ।
🚩तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुए अपने सन्देश में लिखा कि “संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी खुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं… मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।”
🚩चीन आक्रमण के दौरान श्री गुरूजी का मार्गदर्शन
🚩श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ कांग्रेसियों की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। कहना न होगा कि संघ के तीन हजार गणवेषधारी स्वयंसेवकों के घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
🚩सन् 1940 से 1973 इन 33 वर्षों में श्रीगुरुजी नें संघ को अखिल भारतीय स्वरुप प्रदान किया। इस कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारप्रणाली को सूत्रबध्द किया। श्रीगुरुजी, अपनी विचार शक्ति व कार्यशक्ति से विभिन्न क्षेत्रों एवम् संघटनाओं के कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत बनें। श्रीगुरुजी का जीवन अलौकिक था, राष्ट्रजीवन के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने मूलभूत एवम् क्रियाशील मार्गदर्शन किया ।
🚩कैसे वीर हो गए इस देश में, जब धर्म की बात आयी तो शास्त्र उठाया और जब कर्म की बात आयी तो शस्त्र उठाने में भी पीछे नही हटे….!
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