जीवित्पुत्रिका व्रत: महत्व,विधि एवं कथा

25 सितम्बर 2024

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जीवित्पुत्रिका व्रत: महत्व,विधि एवं कथा

 

जीवित्पुत्रिका व्रत या जिउतिया व्रत संतान की लंबी आयु, स्वास्थ्य और कल्याण के लिए किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण व्रत है। यह विशेष रूप से माताओं द्वारा अपने पुत्रों की रक्षा और उनके समृद्ध भविष्य के लिए रखा जाता है। यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर भारत के बिहार,उत्तर प्रदेश,झारखंड और नेपाल में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।

 

जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व:

जीवित्पुत्रिका व्रत का प्रमुख उद्देश्य संतान की लंबी आयु, उनके स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए भगवान से प्रार्थना करना है। माना जाता है कि इस व्रत को करने से संतान पर आने वाले सभी संकट दूर हो जाते है और माता का आशीर्वाद उन्हें हमेशा सुरक्षा प्रदान करता है। यह व्रत संतान की लंबी आयु और सुखमय जीवन के लिए विशेष रूप से फलदायक माना जाता है।

 

जीवित्पुत्रिका व्रत की विधि

 

1. स्नान और संकल्प : व्रत के दिन माताएं सूर्योदय से पहले स्नान करके व्रत का संकल्प लेती है। संकल्प में यह निश्चय किया जाता है कि वे पूरे दिन बिना अन्न-जल के व्रत रखेंगी और अपनी संतान की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करेंगी।

 

2. पूजा सामग्री : इस व्रत की पूजा में चंदन, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, धान, कच्चा सूत और मिट्टी की मूर्तियां (जीवित्पुत्रिका देवी और भगवान जीमूतवाहन की) आवश्यक होती है।

 

3. पूजन विधि : पूजन के समय भगवान जीमूतवाहन और जीवित्पुत्रिका देवी की मूर्तियों की पूजा की जाती है। मिट्टी से बनी मूर्ति को साफ स्थान पर स्थापित किया जाता है फिर धूप, दीप, चंदन और फूल अर्पित किए जाते है। व्रति माताएं अपनी संतान की सुरक्षा और दीर्घायु के लिए विशेष रूप से प्रार्थना करती है।

 

4. कथा श्रवण : व्रत के दौरान जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनना और सुनाना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। कथा श्रवण से व्रत की पूर्णता मानी जाती है।

 

5. दिवस-निशा व्रत : इस व्रत को विशेष रूप से कठिन माना जाता है क्योंकि इसमें माताएं बिना अन्न और जल ग्रहण किए पूरा दिन और रात व्रत रखती है। व्रत का समापन अगले दिन सूर्योदय के बाद होता है।

 

जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा :

जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा, भगवान जीमूतवाहन से जुड़ी है। कथा के अनुसार, जीमूतवाहन एक धर्मपरायण और परोपकारी राजा थे। एक बार वे वन में घूम रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक स्त्री अपने पुत्र को बचाने के लिए रो रही है। जब उन्होंने उस स्त्री से इसका कारण पूछा, तो उसने बताया कि उनका पुत्र नागवंश का है और हर वर्ष गरुड़ देवता को नागों में से एक को बलिदान के रूप में देना पड़ता है।

 

जीमूतवाहन ने उस स्त्री की पीड़ा को महसूस किया और अपने जीवन को बलिदान करने का निर्णय लिया। उन्होंने गरुड़ देवता से कहा कि वे इस बार नाग की जगह उन्हें ही खा लें। गरुड़ ने जब जीमूतवाहन की इस महानता को देखा तो वह प्रभावित हुए और उन्होंने वचन दिया कि वे अब कभी नागों को नहीं खाएंगे। इस प्रकार, जीमूतवाहन के बलिदान और करुणा के कारण नागों की सुरक्षा हुई।

 

कहा जाता है कि इस कथा को सुनने और इस व्रत को विधिपूर्वक करने से माताओं की संतान पर आने वाले सभी संकट टल जाते है और वे दीर्घायु होते है।

 

निष्कर्ष

जीवित्पुत्रिका व्रत माताओं की संतान के प्रति निःस्वार्थ प्रेम और त्याग का प्रतीक है। इस व्रत में माताएं बिना अन्न और जल के अपने बच्चों की सुरक्षा और लंबी आयु के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। जीमूतवाहन की कथा हमें त्याग, परोपकार और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।

 

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