*1947 में तब्लीग़ के दो टुकड़े गए एक भारत और दूसरा पाकिस्तान बन गया। 1971 के बाद इसके तीसरे टुकड़े का नाम बंगलादेश बन गया। बंगलादेश की जमात का नाम आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए सामने आया था। पाकिस्तान में तब्लीग़ इस्लामिक शरिया को लागू करने की बात करती है और अल्पसंख्यक हिन्दू, ईसाईयों को इस्लाम कबूल करने का न्योता देती है। सच्चाई यह है कि यह धार्मिक नहीं अपितु मज़हबी आंदोलन है। इसको चलाने वाले धार्मिक गुरु नहीं अपितु मज़हबी मौलाना है। इसकी स्थापना मुसलमानों में प्रचार के लिए नहीं अपितु मुसलमानों को गैर मुसलमानों को इस्लाम की दावत देने के लिए हुई थी। 1929 से पहले रंगीला रसूल प्रकरण में, 1939 में हैदराबाद में निज़ाम के मज़हबी अत्याचार के विरुद्ध आर्यसमाज के आंदोलन में, 1945 में सिंध की मुस्लिम लीगी सरकार का सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास के विरुद्ध आंदोलन में ,1947 में पाकिस्तान निर्माण में तब्लीग ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था।**
तबलीग की स्थापना मुगल काल में मुस्लिम बने उन हिन्दुओं को वापस हिन्दू बनने से रोकने के लिये की गई थी। जिन्होंने परतंत्रता काल में आत्मरक्षा के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया था, अपने हिन्दू रीति रिवाज नहीं छोड़े थे और निरन्तर अपने पूर्वजों के धर्म में लौटने के लिए प्रयत्नशील थे।आर्यसमाज के शीर्घ नेता, शुद्धि और हिन्दू संगठन आंदोलन के प्रणेता अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद अपनी पुस्तक ‘हिन्दू संगठन’ में लिखते हैं कि ~*
*1905 से पूर्व कुछ मलकाने राजपूत प्रायश्चित् आदि करके हिन्दुओं में सम्मिलित हो गये थे। 1905 से 1910 तक कुछ उत्साही राजपूतों ने ‘राजपूत शुद्धि सभा’ का गठन करके लगभग 1132 मलकानों की घर वापसी कराई थी।‘मुसलमान बनाने वाली एजेन्सियों के प्रतिवृत्तों और विवरणों से यह भी प्रकट होता है कि मुस्लिम मलकानों को धर्म परिवर्तन न करने देने के लिए मुसलमानों की ओर से बहुतेरे प्रलोभन दिये गए पर मलकान इसकी उपेक्षा करते रहे और इस बात पर निरन्तर बल देते रहे कि उन्हें पुनः हिन्दुओं में सम्मिलित कर लिया जावे।’ (स्वामी श्रद्धानन्द: हिन्दू संगठन पृष्ठ 66) अधिकांश हिन्दू राजपूतों की उदासीनता इस कार्य में बाधा भी उपस्थित कर रही थी। आर्यसमाज के लोग हिन्दू राजपूतों को अपने मलकाने भाईयों की भावनाओं के प्रति निरन्तर संवेदनशील होने के लिये प्रेरित कर रहे थे। 31 दिसम्बर 1922 को मेवाड़ में शाहपुराधीश सर नाहरसिंह की अध्यक्षता में आयोजित क्षत्रिय महासभा की मीटिंग में एक ‘नरम’ सा प्रस्ताव पास किया गया जिसकी कहीं चर्चा भी नहीं हुई। जनवरी 1923 के प्रारम्भ में ‘हिन्दू’ साप्ताहिक में एक छोटा सा समाचार प्रकाशित हुआ कि साढे चार लाख मुसलमान राजपूतों ने हिन्दुत्व ग्रहण करने का प्रार्थना पत्र दिया है और क्षत्रिय महासभा ने उस पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है। परन्तु हिन्दुओं ने इस पर भी उन मलकान राजपूतों के करुण क्रन्दन पर ध्यान नहीं दिया।*
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