23 May 2025
क्या आपको भारत की इन 43 देसी नस्ल की गायों के बारे में पता है?
कुछ प्रमुख देसी नस्लें और उनके विशेष गुण
- साहीवाल (पंजाब, उत्तर भारत): भारत की सबसे उत्कृष्ट दुधारू नस्लों में मानी जाती है। एक बार बियाने पर लगभग 10 महीने तक दूध देती है। प्रति वर्ष 2000-3000 लीटर तक दूध उत्पादन संभव है।
- गिर (गुजरात): दूध देने में सर्वश्रेष्ठ। एक दिन में 50–80 लीटर तक दूध देती है। इस नस्ल की विदेशों (ब्राजील, इजराइल) में भी मांग है।
- लाल सिंधी (पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक): लाल रंग की यह नस्ल अत्यधिक दूध देती है, और गर्मी सहने की क्षमता भी अधिक होती है। सालाना दूध उत्पादन 2000-3000 लीटर तक होता है।
- थारपारकर (राजस्थान): राजस्थान की शुष्क जलवायु में भी यह नस्ल खूब फली-फूली है। मालाणी क्षेत्र से उत्पन्न यह नस्ल सालाना 2000 लीटर तक दूध देती है।
- राठी (राजस्थान): दूध उत्पादन के लिए प्रसिद्ध। प्रतिदिन 6-8 लीटर दूध देती है। यह नस्ल मुख्यतः बीकानेर और गंगानगर क्षेत्रों में पाई जाती है।
- कांकरेज (गुजरात और राजस्थान): ‘द्वि-उपयोगी’ नस्ल – दूध और खेती दोनों के लिए उपयुक्त। प्रतिदिन 5–10 लीटर दूध देती है।
- हरियाणा नस्ल: खेती और दूध दोनों के लिए। सफेद रंग की, बेहद मजबूत।
- हल्लीकर (कर्नाटक): दूध और कृषि कार्यों दोनों के लिए उपयुक्त।
- केनकथा (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश): खेती के लिए उपयोगी, बैल मेहनती। गायें कम दूध देती हैं।
- पुन्गानुर (आंध्रप्रदेश): सबसे छोटी देसी नस्ल। औसतन 194 से 1100 किलो तक दूध देती है।
कम लेकिन महत्वपूर्ण दूध उत्पादन वाली नस्लें
- बचौर (बिहार): खेतों में उपयोगी, कम दूध उत्पादन।
- डांगी (महाराष्ट्र): कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने वाली नस्ल।
- खरिअर, बिन्झारपुरी, घुमुसरी (उड़ीसा): स्थानीय जलवायु के अनुरूप, औसतन 450-950 किलो दूध।
- मोतू (उड़ीसा, छत्तीसगढ़): सालाना 100-140 किलो दूध, वसा मात्रा 5.3%।
- गंगातीरी (बिहार और यूपी): औसतन 900-1200 लीटर सालाना।
- नागोरी (राजस्थान): खासतौर पर भार वहन में उत्कृष्ट।
औषधीय गुणों से भरपूर नस्लें
- वेचूर (केरल): कद में छोटी लेकिन दूध में औषधीय गुण भरपूर।
- बद्री (उत्तराखंड): पहाड़ी क्षेत्रों में जीवित रहने योग्य, औषधीय दृष्टि से लाभदायक।
अन्य महत्वपूर्ण देसी नस्लें
- अमृतमहल, कृष्णा वैली (कर्नाटक)
- खिलारी, गओलाओ, रेड कंधारी (महाराष्ट्र)
- कंगायम, बर्गुर, उम्ब्लाचेरी (तमिलनाडु)
- लखीमी (असम), कोसली (छत्तीसगढ़), कोंकण कपिला (गोवा)
- लदाखी (लद्दाख), सीरी (सिक्किम व भूटान)
निष्कर्ष
भारत की देसी नस्ल की गायें केवल दूध उत्पादन तक सीमित नहीं हैं। वे कृषि कार्यों में सहयोगी, पर्यावरण अनुकूल, औषधीय गुणों से भरपूर और पोषण प्रदान करने वाली होती हैं। इन नस्लों का संरक्षण न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाता है, बल्कि जैव विविधता को भी सुरक्षित रखता है।
जब हम विदेशी नस्लों की ओर देखते हैं, तब यह याद रखना जरूरी है कि हमारे पास पहले से ही ऐसी 43 अनमोल देसी नस्लें हैं, जिनमें पोषण, परंपरा और प्रकृति का अद्वितीय समन्वय है।
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