### बच्चों और युवाओं को भारतीय संस्कृति के प्रति शिक्षित करना — सबसे निर्णायक कदम
“कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” को प्रभावी रूप से लागू करने का सबसे मूल और दीर्घकालिक उपाय बच्चों और युवाओं को अपनी संस्कृति के प्रति सचेत रूप से शिक्षित करना है। यदि नई पीढ़ी को यह समझ ही नहीं होगी कि भारतीय संस्कृति क्या है, वह क्यों बनी और वह आज के जीवन में कैसे उपयोगी है, तो किसी भी सामाजिक पहल का असर अस्थायी ही रहेगा। इसलिए यह शिक्षा केवल जानकारी देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि सोच, व्यवहार और जीवनशैली का हिस्सा बननी चाहिए।
सबसे पहले यह कार्य घर से शुरू होना चाहिए, क्योंकि घर ही बच्चे का पहला संस्कार केंद्र होता है। यदि परिवार में त्योहारों को केवल छुट्टी या खाने-पीने तक सीमित रखा जाएगा, तो बच्चे उनके वास्तविक अर्थ से वंचित रहेंगे। इसके विपरीत, जब माता-पिता बच्चों को सरल भाषा में यह बताते हैं कि भारतीय नववर्ष वसंत में क्यों आता है, हमारे पर्व दिन में क्यों मनाए जाते हैं, और उत्सव में संयम क्यों महत्वपूर्ण है—तो बच्चे स्वाभाविक रूप से तुलना करना सीखते हैं। घर में पंचांग देखना, ऋतु परिवर्तन पर चर्चा करना, पारंपरिक पर्वों पर सुबह की दिनचर्या, स्वच्छता और सकारात्मक संकल्प—ये छोटे-छोटे अभ्यास बच्चों के मन में गहरी छाप छोड़ते हैं। यही बच्चे आगे चलकर नशे और उन्माद आधारित उत्सवों को “सामान्य” नहीं मानते।
दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र विद्यालय और शैक्षणिक संस्थान हैं। आज शिक्षा का बड़ा हिस्सा केवल वैश्विक ज्ञान और प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित है, जिससे स्थानीय संस्कृति पीछे छूट जाती है। यदि स्कूलों में भारतीय कालगणना, ऋतु-आधारित जीवन, पर्वों के सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी पहलुओं को परियोजना, चर्चा और गतिविधियों के माध्यम से समझाया जाए, तो बच्चों में यह भावना बनती है कि संस्कृति कोई पुरानी या अव्यावहारिक चीज़ नहीं है। उदाहरण के तौर पर, भारतीय नववर्ष पर निबंध, संवाद, पोस्टर या सांस्कृतिक गतिविधियाँ बच्चों को सोचने पर मजबूर करती हैं कि उत्सव का उद्देश्य क्या होना चाहिए। जब शिक्षा संस्कृति को सम्मान देती है, तो छात्र भी उसे बोझ नहीं, बल्कि पहचान मानते हैं।
तीसरा अत्यंत प्रभावशाली माध्यम है युवा वर्ग और कॉलेज स्तर**। यही वह आयु होती है जहाँ व्यक्ति सबसे अधिक सामाजिक दबाव और पहचान-संकट से गुजरता है। यदि इस चरण पर युवाओं को केवल “मत करो” कहा जाए, तो वे अक्सर विरोध करते हैं। इसके बजाय उन्हें यह समझाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति केवल नैतिक उपदेश नहीं, बल्कि **व्यावहारिक सुरक्षा तंत्र है। संवाद, कार्यशालाएँ, सांस्कृतिक शिविर, खेल, संगीत, योग और सेवा-आधारित कार्यक्रम युवाओं को यह अनुभव कराते हैं कि आनंद, मित्रता और उत्साह नशे के बिना भी संभव है। अनुभव आधारित शिक्षा यहाँ सबसे अधिक असर करती है।
इसके साथ-साथ समाज और सामुदायिक स्तर पर भी यह शिक्षा दी जानी चाहिए। मोहल्ला, कॉलोनी, ग्राम या शहर स्तर पर यदि भारतीय नववर्ष, पारंपरिक पर्व और सांस्कृतिक गतिविधियाँ सामूहिक रूप से आयोजित हों, तो बच्चों और युवाओं को यह संदेश मिलता है कि समाज किसे महत्व देता है। जब वे देखते हैं कि परिवार, बुज़ुर्ग और समुदाय मिलकर दिन के समय, सुरक्षित और सकारात्मक ढंग से उत्सव मना रहे हैं, तो वही उनके लिए आदर्श बनता है। संस्कृति जब सामूहिक रूप से जी जाती है, तब वह टिकाऊ होती है।
डिजिटल और सोशल प्लेटफ़ॉर्म भी आज शिक्षा का बड़ा माध्यम बन चुके हैं। यदि बच्चे और युवा लगातार केवल पार्टी, शराब और उन्माद से जुड़े दृश्य देखते रहेंगे, तो वही उनकी “नॉर्मल” बन जाएगी। इसके विपरीत, यदि उन्हें भारतीय पर्वों, सांस्कृतिक मूल्यों और संतुलित जीवनशैली से जुड़े सरल, आकर्षक और आधुनिक प्रस्तुतिकरण दिखें, तो उनकी सोच में संतुलन आता है। यहाँ उद्देश्य प्रचार नहीं, बल्कि दृष्टिकोण निर्माण होना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों और युवाओं को संस्कृति डर या दबाव से नहीं, बल्कि तर्क, अनुभव और गर्व के साथ सिखाई जाए। जब वे स्वयं यह समझने लगते हैं कि कुछ परंपराएँ उन्हें सुरक्षित, संतुलित और मानसिक रूप से मजबूत बनाती हैं, तो वे उन्हें थोपे गए नियम नहीं, बल्कि स्वयं चुना हुआ मार्ग मानते हैं।
अंततः, “कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” तभी प्रभावी रूप से लागू हो सकता है जब अगली पीढ़ी यह सीखे कि संस्कृति केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि वर्तमान की ज़रूरत और भविष्य की सुरक्षा है।
घर, स्कूल, समाज और डिजिटल जगत—इन सभी स्तरों पर यदि यह शिक्षा निरंतर और सकारात्मक रूप से दी जाए, तो परिवर्तन न केवल संभव है, बल्कि स्थायी भी होगा।
