12 अगस्त 2019
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मां ने सिर हिलाकर कहा ,”लड़कियां गले नहीं मिलतीं ।”
“क्यों नहीं मिलतीं” पूछने पर वे बोलीं, “रिवाज नहीं है ।”
*मेरे मन में सवाल उठा, “रिवाज क्यों नहीं है ?”
हाशिम मामा , पिताजी और मुहल्ले के कुछ लोगों ने सांड़ को रस्सी से बांधकर बांस से लंगी लगाकर उसे जमीन पर गिरा दिया । सांड़ ‘हम्बा’ कहकर रो रहा था । मां और खाला वगैरह कुर्बानी देखने के लिए खिड़की पर खड़ी हो गई । सभी की आंखों में बेपनाह खुशी थी।
मेरे सीने में चुनचुनाहट होने लगी, मैं एक प्रकार का दर्द महसूस करने लगी। बस मेरा इतना ही कर्तव्य था कि मैं खड़ी होकर कुर्बानी देख लूं। मां ने यही कहा था, इसे वे हर ईद की सुबह कुर्बानी के वक्त कहती थीं। इमाम सांड़ की खाल उतार रहे थे तब भी उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे। शराफ मामा और फेलू मामा उस सांड के पास से हटना ही नहीं चाहते थे। मैं मन्नू मियां की दुकान पर बांसुरी व गुब्बारे खरीदने चली गई। उस सांड के गोश्त के सात हिस्से हुए। तीन हिस्सा नानी के घरवालों का, तीन हिस्सा हमलोगों का और एक हिस्सा भिखारियों व पड़ोसियों में बांट दिया गया।
साभार: तसलीमा नसरीन: आत्मकथा भाग-एक, मेरे बचपन के दिन, वाणी प्रकाशन।
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