18 August 2023
सत्य के शोध के लिए स्वयं कृति कर समाज को दिशा देनेवाले करपात्री स्वामीजी हम सभी के लिए अत्यंत पूज्यनीय है। उनके नेतृत्व में वर्ष 1966 में हुआ गोरक्षा आंदोलन भारतीय इतिहास का सबसे बडा आंदोलन कहा जा सकता है। ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।’ यह उनका घोष आज भी हिन्दूओं को प्रेरणा देता है।
स्वामीजी का परिचय ही धर्मसम्राट, प्रकाण्ड विद्वान, गोवंश रक्षक ऐसे किया जाता है। स्वामी करपात्री जी महाराज का जन्म 1907 में उत्तरप्रदेश राज्य के प्रतापगढ जिले के भटनी गांव में रामनिधि ओझाजी के परिवार में हुआ।
स्वामी जी को 8-9 वर्ष की आयु में ही सत्य का ज्ञान हो गया। उनको सांसारिक जीवन का मोह नही था, इसलिए विवाहित होते हुए भी वे तपस्या के लिए घर से निकल गए थे। स्वामीजी महाराज ने…
‘धर्म की जय हो…
अधर्म का नाश हो…
प्राणियों में सद्भाव हो…
विश्व का कल्याण हो…
यह जयघोष लोगों तक पहुंचाया। देश विदेश सभी जगहों पर उन्होंने सनातन धर्म के ज्ञान का प्रचार- प्रसार किया।
स्वामी जी को करपात्री महाराज क्यों कहा जाता है ? इसका भी एक कारण है। स्वामी करपात्री जी महाराज ने तपस्या काल में ही पात्र का त्याग कर दिया था। दिन में केवल एक बार ही हाथ की
अंजली में जितना समाये, उतना ही भोजन लेकर वे ग्रहण करते थे । ‘कर’ अर्थात हाथ में भोजन करने के कारण ही इनका नाम ” स्वामी करपात्री जी महाराज ” प्रसिद्ध हुआ ।
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर हरिनारायण से हरिहर चैतन्य बने। 24 वर्ष की आयु में विद्यागुरु स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रमजी के आग्रह के अनुसार ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य परम् तपस्वी 1008 स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत अनुग्रह तथा दण्ड धारण कर ‘हरिहरानंद सरस्वती’ नामग्रहण किया।
संन्यास धारण करने के उपरांत ढाई गज कपड़ा तथा दो लंगोटी इतने ही उनके वस्त्र रह गए। इन्ही वस्त्रों में वर्षाकाल, ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल इन तीनों ऋतुओं को सहन करना उनका स्वभाव बन गया था। गंगातट पर एकाकी झोपडी में निवास, घरों से भिक्षाग्रहण करना, 24 घंटे में एक बार भोजन करना तथा भूमिशयन करना, पदयात्रा करना और एक टांग पर खड़े होकर तपस्या की कठोर साधना करना, यह उनकी दिनचर्या बन गई थी। सारे संकटों का सामना करते हुए उन्होंने अपने धर्मनिष्ठ विचारों को हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में प्रकट किया।
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज धर्म के ज्ञाता होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित भी थे। वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य आदि उनके ग्रंथ प्रचलित हैं।
“वर्ष 1966 में स्वामी करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में हुआ गोरक्षा आंदोलन”
महाराज जी द्वारा किए गए गौरक्षा आंदोलन को समझने से पहले उसकी पृष्ठभूमि समझेंगे। भारत की स्वतंत्रता के बाद विनोबा भावेजी ने पूर्ण गोवध बंदी की मांग रखी थी। उसके लिए कानून बनाने का आग्रह उन्होंने नेहरू से किया था। वो अपनी पदयात्रा में यह प्रश्न उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गोवध बंदी के कानून बनाए। इसी बीच हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचन्द्र चटर्जी ने एक विधेयक वर्ष 1955 में प्रस्तुत किया। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में कहां कि…
‘‘मैं गोवधबंदी के विरुद्ध हूँ। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करे और न कोई कार्यवाही।’’
इसके पश्चात वर्ष 1955-66 में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्रीजी महाराज और देश के तमाम संतों ने इसे आंदोलन का रूप दे दिया। गोरक्षा का अभियान शुरू हुआ, जिसमें देशभर के संतों के साथ लाखों लोग सडकों पर आ गए।
आंदोलन की गंभीरता को समझते हुए सबसे पहले जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र में ‘हिन्दु बहुल भारतदेश में गोहत्या प्रतिबंध कानून क्यों नही लाया जा सकता ?’ यह प्रश्न पूछा।
इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण का यह परार्मश नहीं माना। परिणामस्वरूप सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान ने दिल्ली में विराट प्रदर्शन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बडा प्रदर्शन था।
भारत के इतिहास में गोवंश की रक्षा के लिए उठा आंदोलन इंदिरा गांधी द्वारा कुचला गया।
इंदिरा गांधी स्वामी करपात्रीजी और विनोबाजी को बहुत मानती थी, ऐसा कहा जाता है।
चुनाव सामने थे,
…कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने करपात्रीजी महाराज से आशीर्वाद लेकर वचन दिया था, कि चुनाव जीतने के बाद अंग्रेजों के समय से चल रहे गायों के सारे कत्लखाने बंद हो जाएंगे।
इंदिरा गांधी चुनाव जीत भी गई, परंतु कई दिनों तक इंदिरा गांधी स्वामीजी की बात टालती रही। ऐसे में स्वामी करपात्रीजी को आंदोलन का रास्ता अपनाना पडा।
उस समय करपात्रीजी महाराज शंकराचार्य के समकक्ष देश के मान्य संत थे। लाखों साधु-संतों ने उनका साथ देकर कहां की यदि सरकार गोरक्षा का कानून पारित करने का कोई ठोस आश्वासन नहीं देती है, तो हम संसद को चारों ओर से घेर लेंगे। फिर न तो कोई अंदर जा पाएगा और न बाहर आ पाएगा।
संतों ने 7 नवंबर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। जिसमें शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्रीजी महाराज और रामचन्द्र वीर आगे थे। करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि व सहस्रों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं सहित संतजन इस आंदोलन में सहभागी हुए थे, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही थीं। लाल किला मैदान से आरंभ हुई पदयात्रा संसद भवन तक निकली। इस आंदोलन के प्रति लोगों के मन में इतना श्रद्धा थी , कि रास्तों पर अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे।
कहते हैं , कि पदयात्रा संसद भवन पर पहुंच गयी और संत समाज के संबोधन में आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खडे हुए। उन्होंने कहा कि यह सरकार बहरी है। यह गोहत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा…..
संत रामचन्द्र वीर ने आमरण अनशन चालू कर दिया। प्रदर्शनकारी शांतिपूर्ण पद्धति से आंदोलन कर रहे थे। उनमें भारी संख्या में महिलाएं बच्चों के साथ सम्मिलित थीं। अचानक कुछ शरारती तत्त्वों ने ट्रांसपोर्ट भवन के पास कुछ वाहनों को आग लगा दी। यह घटना देखते ही संसद के दरवाजे तुरंत बंद कर दिए गए और चारों तरफ धुआं उठने लगा।
जब इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली, तो उन्होंने निहत्थे करपात्री महाराज और संतों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। इससे चीढ़कर भीड आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड पर अंधाधुंध गोलियां बरसायीं। उस गोलीकांड में सैकडों साधु और गोरक्षक शहीद हुए ।
दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। संचार माध्यमों को सेंसर कर दिया गया और हजारों संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। इस हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने अपना त्यागपत्र दे दिया और इस कांड के लिए खुद एवं सरकार को जिम्मेदार बताया।
इधर संत रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, जो 166 दिनों के बाद उनकी मृत्यु के बाद ही समाप्त हुआ था। देश के इतने बडे घटनाक्रम को किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह वार्ता केवल मासिक पत्रिका ‘आर्यावर्त’ और ‘केसरी’ में छपी थी। कुछ दिन बाद मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ ने अपने गौ अंक विशेषांक में विस्तारपूर्वक इस घटना का वर्णन किया था।
गौहत्या बंद करने के प्रबल समर्थक स्वामी करपात्री जी महाराज ने इंदिरा गांधी को श्राप दिया, जो सच हो गया। वर्ष 1966 में इंदिरा गांधी ने संतों के ऊपर गोलियां चलवा दी, जिसमें 250 संत मारे गए। वह गोपाष्टमी का दिन था। जो गौ-पूजा का सबसे बड़ा दिन होता है। इस घटना के बाद स्वामी करपात्रीजी के शिष्य बताते हैं कि करपात्रीजी ने इंदिरा गांधी को श्राप दे दिया कि जिस तरह से इंदिरा गांधी ने निहत्थे साधु-संतों और गोरक्षकों पर अंधाधुंध गोलीबारी करवाकर मारवाया है, उसका भी हश्र यही होगा।
कहते हैं, कि संसद के सामने साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने अश्रुपात करते हुए ये श्राप दिया था। जो बात आगे चलकर सही साबित हुई ।
स्वामी करपात्री जी महाराज का महानिर्वाण माघ शुक्ल चतुर्दशी ( 7 फरवरी, 1982 ) को हुआ। केदार घाट, वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंचप्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके आदेशानुसार उनके परम् पावन नश्वर शरीर को केदार घाट स्थित , श्री गंगा महारानी की पवित्र गोद में जल समाधी दी गई। आज उनके द्वारा आरंभ किए गौरक्षा आंदोलन को पूर्णत्व देने के लिए हिन्दू राष्ट्र के सिवा और कोई पर्याय है ही नहीं ।
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