युवाओं का सही मार्गदर्शन: शिक्षकों और वक्ताओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी

21 July 2025

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युवाओं का सही मार्गदर्शन: शिक्षकों और वक्ताओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी

भूमिका की पृष्ठभूमि

आज के भारत में जहाँ युवा वर्ग तकनीक, शिक्षा और सामाजिक चेतना में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, वहीं कुछ ऐसे शिक्षक और सार्वजनिक वक्ता भी हैं जिनकी बातों का सीधा असर युवा सोच पर पड़ता है। एक शिक्षक का कार्य केवल परीक्षा की तैयारी करवाना नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में युवाओं को सही दिशा देना भी होता है।

‘खान सर’ जैसे लोकप्रिय शिक्षक, जिनके लाखों छात्र और श्रोता हैं, जब मंच से कोई बात कहते हैं, तो वह बात सिर्फ एक राय नहीं होती, बल्कि वह मार्गदर्शन मानी जाती है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि ऐसे वक्ता अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करें। यदि उनके वक्तव्य धर्म या जाति आधारित भेदभाव को बढ़ावा देते हैं, तो यह न केवल उनके कर्तव्य से विमुखता है, बल्कि युवाओं के भविष्य के लिए भी हानिकारक है।

शिक्षक की सामाजिक ज़िम्मेदारी

UNESCO जैसी संस्थाएँ मानती हैं कि शिक्षक समाज में शांति, समानता और मानवता के वाहक होते हैं। UNESCO की रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिक्षा ही वह ज़रिया है जिससे हम नफरत फैलाने वाले विचारों और भाषणों को रोक सकते हैं। शिक्षक और वक्ता युवाओं को केवल जानकारी ही नहीं देते, वे उनके दृष्टिकोण और सोच को भी गढ़ते हैं। इसलिए जब वे जाति या धर्म के आधार पर कटाक्ष करते हैं, तो वे एकजुट समाज की नींव को कमज़ोर कर रहे होते हैं।

भारत में बढ़ता घृणा भाषण और उसका प्रभाव

India Hate Lab की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में घृणा भाषण की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। 2024 में 1,165 ऐसे मामलों की पहचान की गई जिनमें मुस्लिम, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से नफरत भरे बयान दिए गए। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इनमें से अधिकतर वक्ता प्रभावशाली व्यक्ति थे — शिक्षक, राजनीतिक नेता या धार्मिक प्रवक्ता।

जब कोई शिक्षक या वक्ता धर्म या जाति को लेकर अपमानजनक या भेदभावपूर्ण टिप्पणी करता है, तो उसका असर विद्यार्थियों पर सिर्फ मानसिक नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवहार पर भी पड़ता है। यह उन्हें सहिष्णुता और एकता से दूर कर, द्वेष और पूर्वग्रह की ओर मोड़ देता है।

शिक्षा का उद्देश्य: भेद नहीं, समावेश

Nature और ResearchGate जैसे वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित शोध इस बात पर ज़ोर देते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को समझदारी, आलोचनात्मक सोच और सामाजिक एकता की ओर ले जाना होना चाहिए। शिक्षक को ‘काउंटर स्पीच’ यानी नफरत का जवाब शांति और सत्य से देना आना चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों में यह समझ विकसित करे कि सभी धर्मों, जातियों और संस्कृतियों का आदर किया जाना चाहिए।

यदि कोई शिक्षक या वक्ता, जैसे कि खान सर, अपनी व्याख्यानों में मजाक या व्यंग्य के बहाने धार्मिक या जातिगत पूर्वग्रह को प्रकट करते हैं, तो यह एक शिक्षण अपराध के समान है। इससे युवा न केवल भ्रमित होते हैं, बल्कि उनका सामाजिक दृष्टिकोण भी संकीर्ण होता चला जाता है।

भारतीय कानून भी स्पष्ट है

भारतीय दंड संहिता की धारा 153A स्पष्ट रूप से कहती है कि धर्म, जाति, भाषा या किसी भी सामाजिक पहचान के आधार पर द्वेष फैलाना अपराध है। वक्तृत्व की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं है कि कोई भी व्यक्ति बिना सोच-विचार के सार्वजनिक मंच से कुछ भी बोल दे, विशेषकर तब जब वह प्रभावशाली हो और युवा वर्ग उसका अनुकरण करता हो।

वक्ताओं को क्या करना चाहिए

प्रभावशाली वक्ताओं को चाहिए कि वे बोलने से पहले स्वयं से कुछ सवाल ज़रूर पूछें —
“क्या मेरे शब्द किसी धर्म या जाति को अपमानित कर सकते हैं?”
“क्या मेरी बात से समाज में नकारात्मक सोच या घृणा फैल सकती है?”
“क्या मेरा वक्तव्य युवा वर्ग को विभाजन की ओर ले जा सकता है?”

यदि इन सवालों में कोई भी उत्तर ‘हाँ’ में आता है, तो वक्ता को अपनी बात रोक देनी चाहिए, या उसे किसी और सकारात्मक तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए। एक शिक्षक को यह समझना चाहिए कि उसके शब्द से छात्र केवल परीक्षा में नहीं, बल्कि जीवन में भी प्रेरित होते हैं।

उन्हें युवाओं को केवल तथ्यों से नहीं, बल्कि मूल्य, विवेक और सह-अस्तित्व की भावना से भरना चाहिए। उन्हें यह सिखाना चाहिए कि भारत एक विविधता में एकता वाला देश है, जहाँ सभी धर्मों और जातियों का बराबर स्थान है।

निष्कर्ष

एक शिक्षक की सबसे बड़ी परीक्षा तब होती है जब वह विवादास्पद मुद्दों पर अपनी बात कहता है। क्या वह अपनी बात से समाज को जोड़ रहा है या तोड़ रहा है? क्या वह ज्ञान का वाहक है या पूर्वग्रह का?

‘खान सर’ जैसे वक्ताओं को यह बात समझनी होगी कि यदि उनके शब्दों से किसी समुदाय को ठेस पहुँचती है या युवा ग़लत दिशा में सोचने लगते हैं, तो उन्हें अपनी भाषा और विचारधारा पर पुनः विचार करना चाहिए।

भारत को ऐसे शिक्षकों की ज़रूरत है जो तटस्थ, संवेदनशील और सामाजिक एकता के समर्थक हों। शिक्षा को विभाजन नहीं, समावेश की ओर ले जाना चाहिए। वक्ता को अपने नज़रिए से नहीं, समाज के भले के दृष्टिकोण से बोलना चाहिए — यही एक सच्चे शिक्षक की पहचान है।

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