देवउठनी एकादशी : जब स्वयं विष्णु जागते हैं — एक वैदिक एवं पुराणिक अध्ययन
भूमिका :
हिन्दू धर्म का प्रत्येक पर्व केवल परम्परा नहीं, बल्कि जीवन के गहन आध्यात्मिक संदेश का प्रतीक है। ऐसा ही एक पर्व है — देवउठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी)।
यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आता है, जब भगवान विष्णु चार महीने की योगनिद्रा से जागते हैं।
इस दिन से सभी शुभ और मांगलिक कार्यों का आरंभ होता है, इसलिए इसे “हरिप्रबोधिनी एकादशी” भी कहा जाता है।
वैदिक एवं पुराणिक संदर्भ :
विष्णु के योगनिद्रा में जाने और जागने की कथा (पद्मपुराण अनुसार):
पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय 90) में वर्णन है कि —
“आषाढस्य शुक्लपक्षे दशम्यां योगनिद्रां विष्णुं सान्निध्यं याति।
कार्तिके शुक्लैकादश्यां पुनः प्रबोधमवाप्नोति।”
अर्थात — आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु योगनिद्रा में जाते हैं और कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुनः जागते हैं।
इस काल को “चातुर्मास” कहा गया है — चार महीनों तक देवगण भी विश्राम करते हैं और कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। यह काल आत्मसंयम, व्रत, भक्ति और साधना का होता है।
स्कन्दपुराण में देवउठनी का महात्म्य:
स्कन्दपुराण में कहा गया है —
“यदा विष्णुः प्रबुद्धो भवति, तदा सर्वदेवताः प्रबुद्धा भवन्ति।
यदा विष्णुः सुप्तो भवति, तदा सर्वे कार्याणि निषिद्धानि।”
अर्थात — जब भगवान विष्णु जागते हैं, तब समस्त देवता भी जाग जाते हैं, और जब वे निद्रा में जाते हैं, तब सभी शुभ कार्य निषिद्ध हो जाते हैं।
इसलिए देवउठनी एकादशी को “मंगल कार्यों के पुनः आरंभ का दिवस” कहा गया है।
पौराणिक कथा : तुलसी विवाह की उत्पत्ति
देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है।
इसका वर्णन पद्मपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है।
कथा के अनुसार —
राजा जालंधर की पत्नी वृंदा (तुलसी) अत्यंत पतिव्रता थीं। जब देवताओं ने जालंधर को मारने के लिए भगवान विष्णु से सहायता माँगी, तब विष्णु ने जालंधर का रूप धारण कर वृंदा की पतिव्रता धर्म को भंग किया। इसके बाद वृंदा ने विष्णु को शाप दिया — “तुम पत्थर बनोगे!”
शाप से भगवान विष्णु शालिग्राम बने।
वृंदा की मृत्यु के बाद उनके शरीर से तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
बाद में देवताओं ने तुलसी और विष्णु (शालिग्राम) का विवाह कराया — यही तुलसी विवाह है, जो देवउठनी एकादशी को किया जाता है।
चातुर्मास और मानव जीवन में उसका अर्थ :
चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक) केवल देवताओं का विश्राम काल नहीं, बल्कि मनुष्य के आत्मनिरीक्षण का काल भी है।
इन महीनों में साधक अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करता है, सात्त्विक जीवन जीता है और अपने भीतर के विष्णु (संरक्षक भाव) को जाग्रत करने की साधना करता है।
देवउठनी एकादशी का धार्मिक विधान :
व्रत और पूजन विधि:
स्नान व संकल्प: प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करें, फिर यह संकल्प लें —
“आज मैं विष्णु प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करूँगा, जिससे विष्णु कृपा से मोक्ष और पुण्य प्राप्त हो।”
पूजन:
भगवान विष्णु का चित्र या शालिग्राम जल, पंचामृत से स्नान कराएँ।
दीप, धूप, पुष्प, फल, नैवेद्य अर्पण करें।
“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का 108 बार जाप करें।
तुलसी पूजा: तुलसी दल अर्पण करें।
तुलसी के बिना विष्णु पूजा अधूरी मानी गई है।
संध्याकालीन तुलसी विवाह:
शालिग्राम और तुलसी माता का विवाह शास्त्रोक्त विधि से संपन्न करें।
भजन-कीर्तन के साथ मंगलगीत गाएँ।
व्रत पारण:
द्वादशी तिथि को व्रत का पारण करें, ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दान दें।
तुलसी विवाह का प्रतीकात्मक अर्थ :
यह विवाह केवल धार्मिक रीति नहीं बल्कि आध्यात्मिक एकता का प्रतीक है। शालिग्राम भगवान विष्णु का पुरुष तत्व हैं, और तुलसी भक्ति का स्त्री स्वरूप।
दोनों का मिलन भक्ति और परमात्मा के संगम का द्योतक है।
तुलसी विवाह का संदेश है —
जब भक्ति और ईश्वर एक हो जाते हैं, तब जीवन में सच्चा आनंद और संतुलन आता है।
श्रीमद्भागवत और अन्य ग्रंथों में एकादशी का महात्म्य:
श्रीमद्भागवत पुराण (कण्ठ 9) में कहा गया है कि एकादशी व्रत पालन से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण के अनुसार —
“एकादश्यां तु यो भक्तः विष्णोः पूजां करोति वै,
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोके महीयते।”
इसका अर्थ है — जो भक्त एकादशी के दिन विष्णु की पूजा करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है।
वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एकादशी व्रत का महत्व:
✴️शारीरिक लाभ:
एकादशी व्रत में उपवास किया जाता है। उपवास शरीर को विषमुक्त कर पाचन तंत्र को विश्राम देता है।
वैदिक काल में यह “दैहिक शुद्धि” का माध्यम माना गया है।
✴️मानसिक लाभ:
उपवास से मन संयमित होता है, ध्यान केंद्रित रहता है।
विष्णु का नामस्मरण मन को सात्त्विक बनाता है।
✴️आध्यात्मिक जागरण:
देवउठनी एकादशी का अर्थ है — भीतर के ईश्वर को जाग्रत करना।
मनुष्य के भीतर जो चेतना सोई हुई है, उसे भक्ति और साधना से जगाना ही सच्ची “प्रबोधिनी एकादशी” है।
लोकाचार और परंपराएँ:
भारत के विभिन्न राज्यों में इस दिन के विविध लोकाचार हैं —
उत्तर भारत: तुलसी विवाह के साथ दीपदान और अखंड कीर्तन।
गुजरात व महाराष्ट्र: आंवला नवमी के बाद विवाह मुहूर्त की शुरुआत इसी दिन से होती है।
राजस्थान: गाँवों में प्रतीकात्मक रूप से विष्णु को जगाने के लिए “देवउठनी गीत” गाए जाते हैं —
“उठो देव उठो, चार मास भया निद्रातो…”
दक्षिण भारत: विष्णु मंदिरों में विशेष अभिषेक, नंददीप प्रज्वलन और अन्नदान का आयोजन होता है।
️ देवउठनी एकादशी का आध्यात्मिक संदेश:
देवउठनी एकादशी हमें यह सिखाती है कि —
जैसे विष्णु भगवान निद्रा से जागते हैं, वैसे ही हमें भी अज्ञान, आलस्य और मोह की निद्रा से जागना चाहिए।
यह केवल देवताओं का नहीं, बल्कि मानव चेतना के जागरण का पर्व है।
यह दिन हमें प्रेरणा देता है —
• संयमित जीवन जीने की,
• भक्ति में स्थिर रहने की,
• और अपने भीतर सोए हुए दिव्य तत्व को पहचानने की।
निष्कर्ष :
देवउठनी एकादशी केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि एक जीवनदर्शन है।
यह बताती है कि जब हम अपने भीतर की सोई हुई भक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और चेतना को जगाते हैं, तभी सच्चा “प्रबोधन” होता है।
विष्णु का जागरण = चेतना का जागरण।
तुलसी विवाह = भक्ति और परमात्मा का मिलन।
चातुर्मास का अंत = आत्म-संयम से कर्म के पुनः आरंभ की घड़ी।
महत्वपूर्ण श्लोक स्मरण:
“उत्थानं च हरिर्जातः सर्वदेवसमन्वितः।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु एकादश्यां महानिशि॥”
(स्कन्दपुराण)
“तुलस्या दलमेकं च जलस्य च अर्धमात्रकम्।
यत् यत् तुल्यं फलं तस्मात् विष्णुभक्तेः प्रयच्छति॥”
(पद्मपुराण)
अंतिम संदेश:
देवउठनी एकादशी का वास्तविक अर्थ केवल यह नहीं कि “देवता जागे”, बल्कि यह है कि हम भी जागें — अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपनी जिम्मेदारी के प्रति।
यही दिन है जब भक्ति का दीप पुनः प्रज्वलित होता है, और जीवन फिर से पवित्र कर्मपथ पर लौट आता है।
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