11 July 2022
चतुर्मास का क्या महत्व है, इसमे क्या करे क्या नही करें?
स्वास्थ्य बनाए रखने, साधना करने तथा वातावरण को सात्त्विक बनाए रखने हेतु हिन्दू धर्म शास्त्र में बताए गए नियमों का पालन सर्वथा उचित है । मानव जीवन से संबंधित इतना गहन अध्ययन केवल हिन्दू धर्म में ही किया गया है । यही इसकी महानता है ।
चातुर्मास को उपासना एवं साधना हेतु पुण्यकारक एवं फलदायी काल माना जाता है । आषाढ शुक्ल एकादशी 10 जुलाई 2022 से कार्तिक शुक्ल एकादशी 4 नवम्बर 2022 तक अर्थात आषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक 4 महीने के काल को चातुर्मास कहते हैं । यह एक महा पुण्य वाला पर्वकाल है ।
ऐसी मान्यता है कि चातुर्मास का काल देवताओं के शयन का काल है । इसलिए चातुर्मास के आरंभ में जो एकादशी आती है, उसे देवशयनी एकादशी कहते हैं तथा चातुर्मास के समापन पर जो एकादशी आती है, उसे देवोत्थानी अथवा प्रबोधिनी ,देवउठनी एकादशी कहते हैं । परमार्थ के लिए पोषक बातों की विधियां और सांसारिक जीवन के लिए हानिकारक विषयों का निषेध, यह चातुर्मास की विशेषता है ।
चातुर्मास के काल में अधिकाधिक व्रतविधि होने का कारण चातुर्मास का काल, व्रतविधियों का काल भी जाना जाता है । चातुर्मास के काल में सूर्य की किरणें तथा खुली हवा अन्य दिनों के समान पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती । विविध जंतु तथा कष्टदायी तरंगों की मात्रा बढ कर रोग फैलते हैं । आलस्य का अनुभव होता है ।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो चातुर्मास के काल में पृथ्वी के वातावरण में तमोगुण की प्रबलता बढ जाती है । ऐसे में हमारी सात्त्विकता बढाना आवश्यक होता है । चातुर्मास में किए जाने वाले विविध व्रतों की सहायता से विविध देवताओं की उपासना की जाती है और उनका आवाहन किया जाता है ।
व्रतविधि के कारण हमारा सत्त्वगुण बढता है और हम सर्व स्तरों पर सक्षम बनते हैं । प्रबल तमोगुणी वातावरण में सात्त्विकता बढाने हेतु दिए गए व्रत विधि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की देन है ।
यह एक पर्वकाल है, चातुर्मास आनंदप्राप्ति अर्थात ईश्वरप्राप्ति, यह मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है । अतः मनुष्य के लिए निरंतर ईश्वर का सूक्ष्म-सान्निध्य अत्यावश्यक होता है । ईश्वर से सदैव हमारा संधान बना रहे, इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने विविध माध्यम उपलब्ध करवाए हैं । इनके अंतर्गत कालानुसार उपासना भी बताई गई है । विशिष्ट काल में विशिष्ट उपासना करने से उपासक को उस काल से संबंधित देवता तत्त्वों का अत्यधिक लाभ मिलता है । देवता तत्त्वों के चैतन्य से प्राप्त अंतःप्रेरणा से मनुष्य अध्यात्म के पथ पर चलकर आगे ईश्वर से एक रूप हो जाता है ।
चातुर्मास देवताओं का शयनकाल है,मनुष्य का 1 वर्ष देवताओं की 1 अहोरात्र है । रात्रि काल सामान्यतः 12 घंटे का माना जाता है , तो 1 पूर्ण दिन एवं 1 पूर्ण रात्रि मिलाकर अहोरात्र होती है । मकर संक्रांति से कर्क संक्रांति तक उत्तरायण होता है एवं कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति तक दक्षिणायन होता है । उत्तरायण देवताओं का दिन होता है, तो दक्षिणायन देवताओं की रात । कर्क संक्रांति पर उत्तरायण पूर्ण होकर दक्षिणायन प्रारंभ होता है, अर्थात देवताओं की रात आरंभ होती है । कर्क संक्रांति आषाढ महीने में आती है; इसलिए आषाढ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि उस दिन देवता शयन करते हैं, अर्थात सो जाते हैं । कार्तिक शुक्ल एकादशी पर देवता नींद से जागते हैं, इसलिए इसे ‘देवोत्थान’ अथवा ‘प्रबोधिनी एकादशी’ देव उठनी एकादशी कहते हैं । वस्तुतः दक्षिणायन 6 महीने का होने के कारण देवताओं की रात्रि भी तत्समान होनी चाहिए; परंतु प्रबोधिनी एकादशी तक 4 महीने पूर्ण होते हैं । इसका अर्थ यह है कि एक तृतीयांश रात शेष होते हुए देवता जागकर अपना व्यवहार करने लगते हैं ।’
चातुर्मास भगवान श्रीविष्णु का शयनकाल है,चातुर्मास में ‘ब्रह्मदेव द्वारा नई सृष्टि की रचना का कार्य जारी रहता है एवं पालनकर्ता श्री विष्णु निष्क्रिय रहते हैं; इसलिए चातुर्मास को विष्णु शयनकाल भी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि उस समय विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं । इसके संदर्भ में एक पौराणिक कथा है – वामनावतारमें श्री विष्णु ने असुरों के राजा बली से त्रिपाद भूमि दान में मांग ली । श्री विष्णुने एक पद में पृथ्वी, दूसरे पद में संपूर्ण ब्रह्मांड माप लिया तथा तीसरी बार श्री विष्णु ने राजा बलि की प्रार्थना के अनुसार उनके सर पर पद रखकर उन्हें पाताल में भेज दिया । राजा बलि ने भगवान श्री विष्णु की भक्ति में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया । इस पर प्रसन्न होकर भगवान श्रीविष्णु ने राजा बलि के निकट रहना मान्य किया । तब से श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करने लगे । वास्तव में चातुर्मास के इस काल में श्रीविष्णु शेष शय्या पर योगनिद्रा का लाभ लेते हैं ।
श्रीविष्णु-शयन के संदर्भ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण चातुर्मास में जगत पालनकर्ता श्री विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं । ऐसे में किसी के मन में यह प्रश्न उभर सकता है कि इस काल में सृष्टि का कार्य कैसे होता होगा ? इसलिए इसे वैज्ञानिक दृष्टि से समझ लेना भी उपयुक्त होगा । श्री विष्णु का एक नाम है, हरि । हरि शब्द के अर्थ हैं, सूर्य, चंद्र, वायु इत्यादि । चातुर्मास में परमेश्वर की ये शक्तियां भी क्षीण होती हैं, इस बात को कोई अमान्य नहीं कर सकता । चातुर्मास में अति वर्षा के कारण हमें सूर्य, चंद्रके दर्शन नहीं होते । तथा वायु के क्षीण होने के उपरांत ही वर्षा होती है । यह क्रिया अन्य ऋतुओं में नहीं होती । इस दृष्टि से चातुर्मास सूर्य, चंद्र, वायु, अर्थात श्रीविष्णु का शयनकाल होता है ।
चातुर्मास में किए गए दान, पुण्य, तप, व्रत इत्यादि अधिक फलदायी होते हैं,चातुर्मास में तीर्थक्षेत्र में पवित्र नदियों का स्नान करना,चातुर्मास में की जाने वाली तीर्थ यात्रा, दान, पुण्य, तप, व्रत इत्यादि श्री विष्णु के चरणों में अर्पित होते हैं । जो मनुष्य चातुर्मास में तीर्थ क्षेत्र में पवित्र नदियों का स्नान करता है, उसके अनेक पापों का नाश होता है । क्योंकि वर्षा का जल विभिन्न स्थानों से मिट्टी के माध्यम से प्राकृतिक शक्ति को अपने साथ बहाकर समुद्र की ओर ले जाता है । यहां चातुर्मास में श्री विष्णु का जल में शयन करने का अर्थ है, जल में उनके तेज एवं शक्ति का अंश विद्यमान होना । इस तेज युक्त जल से स्नान करना सर्व तीर्थ यात्राओं की तुलना में अधिक फलदायी है । इससे इस काल में व्रतों की अधिक संख्या का कारण स्पष्ट होता है । इसके अतिरिक्त इस काल में अधिकाधिक व्रतविधि करने के अन्य कारण भी हैं ।
विविध रोगों का प्रतिकार करने के लिए स्वयं को सक्षम बनाना वर्षा ॠतु में हमारे एवं सूर्य के बीच मेघ का एक पट्टा बनता होता है । इसलिए सूर्य की किरणें अर्थात तेजतत्त्व तथा आकाशतत्त्व अन्य दिनों के समान पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाते, जिसके कारण वातावरण में पृथ्वी एवं आपतत्त्व प्रबल होते हैं,विविध जंतु, रज-तम तथा काली शक्तिका विघटन नहीं हो पाता; इसलिए रोग फेलते हैं । आलस का अनुभव होता है । शिकागो मेडिकल स्कूल के स्त्री रोग-विशेषज्ञ,प्रोफेसर डॉ. डब्ल्यू.एस. कोगर द्वारा किए गए शोध में पाया गया कि जुलाई, अगस्त, सितंबर एवं अक्टूबर के 4 महीनों में, विशेषकर भारत में स्त्रियों को गर्भाशय संबंधी रोग होते हैं, बढते हैं । इसलिए इस काल में व्रत विधि, उपवास करना, सात्त्विक आहार तथा नामजप के कारण हमारा सत्त्वगुण बढता है । इससे हम शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से इन रोगों का अर्थात रज-तम का प्रतिकार करने में सक्षम बनते हैं ।
असुरों की प्रबलता अर्थात रज-तम अल्प करना धर्मशास्त्र के अनुसार आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक अर्थात देवताओं के निद्राकाल में असुर प्रबल होते हैं एवं वे मनुष्य को कष्ट पहुंचाते हैं । चौमासे में पृथ्वी पर प्रवाहित तरंगों में तमोगुण प्रबल तरंगों की मात्रा अधिक रहती है । उनका सामना कर पाने के लिए सात्त्विकता बढाना आवश्यक है । व्रतों के पालन से सात्त्विकता में वृद्धि होती है तथा रज-तम की मात्रा अल्प होती है । इसी कारण चातुर्मास में अधिकाधिक व्रत होते हैं । असुरों से अपना संरक्षण करने के लिए इस काल में प्रत्येक व्यक्ति को कोई न कोई व्रत अवश्य रखना चाहिए । मनुष्य स्वस्थ, निरोगी, दीर्घायु तथा अध्यात्म पथ पर अग्रेसर हो, ये दोनों हेतु साध्य करनेके लिए हमारे ऋषिमुनियों ने चातुर्मास में विविध व्रतों का विधान बताया है । इन ऋषिमुनियों तथा हिंदु धर्म की महानता के सामने हम नतमस्तक हैं ।
चातुर्मास की परिकल्पना भागवत में मुनिश्रेष्ठ नारदजी ने महर्षि व्यासजी को अपना चरित्र बताया । वे कहते हैं,
अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।
अर्थ : हे मुनिवर, पिछले जन्म में मैं वेद विषयक विवाद करने वाले एक योगी की दासी का पुत्र था । जब मैं बालक ही था, तब ये योगी वर्षाकाल में एक स्थान पर चातुर्मास व्रत कर रहे थे । उस समय उनकी सेवा मुझे सौंपी गई थी । इसी प्रकार भागवत में नारद मुनि ने धर्मराज युधिष्ठिर को प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मों के बारे में बताते हुए चातुर्मास का उल्लेख किया है । इससे बोध मिलता है कि, चातुर्मास व्रत अनादि कालसे परंपरागत रूपमें चला आ रहा है ।
चातुर्मास से संबंधित व्रत सामान्य लोग चातुर्मास में कोई तो एक व्रत रखते ही हैं । उसके अंतर्गत भोजन नियम बनाते हैं, जैसे पर्णभोजन अर्थात पत्ते पर भोजन करना, एक समय भोजन करना, अयाचित अर्थात मांगे बिना जितना मिले उतना ही ग्रहण करना, मिश्रभोजन अर्थात सर्व पदार्थ एक साथ परोसकर, उसका कलेवा बनाकर अर्थात मिलाकर कर भोजन करना इत्यादि । अनेक स्त्रियां चातुर्मास में एक दिन भोजन एवं अगले दिन उपवास इस प्रकार का व्रत रखती हैं । कुछ स्त्रियां चातुर्मास में एक अथवा दो अनाजों पर ही निर्वाह करती हैं । उनमें से कुछ पंचामृत का त्याग करती हैं, तो कुछ एकभुक्त रहती हैं । इसके साथ ही चातुर्मास में कुछ अन्य व्रत भी रखे जाते हैं।
भूमि पर कंबल बिछाकर सोना,ब्रह्मचर्य का पालन करना,नमक का त्याग करना,आदि
इन 4 महीनो में पराया धन हड़प करना, परस्त्री से समागम करना, निंदा करना, ब्रह्मचर्य तोड़ना तो मानो हाथ में आया हुआ अमृत कलश ढोल दिया । निंदा न करें , ब्रह्मचर्य का पालन करें , परधन परस्त्री पर बुरी नज़र न करें ।
ताम्बे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिये पानी नहीं पीना चाहिये ।
चतुर्मास में काला और नीला वस्त्र पहनने से स्वास्थ्य हानि और पुण्य नाश होता है ।
परनिंदा महा पापं शास्त्र वचन :- “परनिंदा महा पापं परनिंदा महा भयं परनिंदा महा दुखंतस्या पातकम न परम” ।
ये स्कन्द पुराण का श्लोक है परनिंदा महा पाप है, परनिंदा महा भय है, परनिंदा महा दुःख है, तस्यापातकम न परम, उससे बड़ा कोई पाप नही । इस चतुर्मास में पक्का व्रत ले लो कि हम किसी की निंदा न करेंगे।
चातुर्मास में वर्ज्य,त्याज्य……..कंद, मूली, बैंगन, प्याज, लहसुन, इमली, मसूर, चवली अर्थात लोबिया, अचार, तरबूज अर्थात सत्दह, बहुबीज या निर्बीज फल, बेर, मांस इत्यादि पदार्थोंका सेवन नहीं करना चाहिए ।
खाट, पलंग अदि पर शयन नहीं करना चाहिए । केशवपन अर्थात केश काटना वर्जित है । विवाह एवं तत्सम अन्य कार्य भी वर्जित हैं ।
ऐसे में यह प्रश्न अवश्य खडा होता है, कि चातुर्मास में किन पदार्थों का सेवन करना चाहिए ? चातुर्मास में हविष्यान्न अर्थात हवन के लिए उपयुक्त सात्त्विक अन्न, जैसे चावल, जौ, तिल, गेहूं, देशी गाय का दूध, दही, घी, नारियल, केला इत्यादि का सेवन बताया गया है । चातुर्मासमें वर्जित पदार्थ रज-तमोगुण युक्त होते हैं, तो सेवनके लिए ग्राह्य माने गए हविष्यान्न सत्त्वगुणप्रधान होते हैं ।
चातुर्मासमें व्रत रखने के लाभ स्वरूप अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमणकी तीव्रता घट जाना।वर्षाऋतुमें तेजतत्त्व रूपी सूर्यकी किरणें पृथ्वीपर अल्प मात्रामें आती हैं । इस कारण अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमण भी अधिक मात्रामें होते हैं । चातुर्मास में किए जाने वाले व्रतों के कारण व्यक्ति के साथ साथ वायुमंडल की सात्त्विकता भी बढती है । इस सात्त्विकता के प्रभाव से अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की तीव्रता घट जाती है ।
इसी कारण हिंदुधर्म ने चातुर्मास व्रतोंकी विधि बनाई है ।
सूर्यनाडी कार्यरत होकर पेशियोंकी प्रतिकारक्षमता बढना
व्रतपालन से आपतत्त्व के बल पर तेजतत्त्व प्रवाही बनता है । इससे व्रती की सूर्यनाडी कार्यरत होकर उसकी पेशियों की प्रतिकार क्षमता बढती है ।
परिणामस्वरूप व्रती की स्थूल देह से संबंधित रोग, तथा सूक्ष्म अर्थात अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणके कारण होने वाले कष्ट, इन दोनों से रक्षण होता है ।
पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायी तरंगों से रक्षण होना चातुर्मास में किए जाने वाले विविध व्रतों की सहायता से विविध देवताओं की उपासना की जाती है । इसके द्वारा उन देवताओं की तत्त्वतरंगों का आवाहन किया जाता है । ये तत्त्वतरंगें भूमि के पृष्ठभाग पर घनीभूत होती हैं ,परिणाम स्वरूप पाताल से प्रक्षेपित तेजतत्त्वरूपी कष्टदायी तरंगों से पृथ्वी पर रहनेवाले जीवोंका रक्षण होता है ।
देवताओंकी कृपा दृष्टि होना चातुर्मास में भूलोक में सूर्य किरणों से मिलने वाले तेज तत्त्व की मात्रा घटती है, जो व्रतों-के माध्यम से प्राप्त तेजतत्त्व से बढाई जाती है । यह तेजतत्त्व वायुमंडल में विद्यमान पृथ्वी एवं आप कणों की सहायता से व्यक्ति की देह में एकत्रित होता है, जिसके कारण साधारण व्यक्ति को इससे कष्ट नहीं होता।
चातुर्मास के इन 4 महीनों में जिससे जितना हो उतना शक्तिनुसार जप,तप,उपवास,नियम ,ब्रह्मचर्य ,दान,पुण्य,आदि पुण्य कार्य करें।
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