ब्रह्मचर्य पालन व्यक्ति के लिए लाभदायक या हानिकारक…!?? विदेश के डॉक्टर्स व मनोवैज्ञानिकों की ब्रह्मचर्य के बारे में क्या है राय…?

27 February 2023

azaadbharat.org

यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते हैं। डॉ. निकोल कहते हैं : “यह एक भैषजिक और दैहिक तथ्य है , कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन तत्त्व बनते हैं। शुद्ध तथा व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है। यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशिय ऊत्तकों (Tissue) का निर्माण करने के लिये तैयार होकर पुनः परिसंचरण में जाता है। मनुष्य का यह वीर्य वापस ऊपर जाकर शरीर में विकसित होने पर व्यक्ति को निर्भीक, बलवान्, साहसी तथा वीर बनाता है। यदि इसका अपव्यय किया गया , तो यह शरीर को स्त्रैण, दुर्बल, कृशकलेवर एवं कामोत्तेजनशील बनाता है तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत एवं स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है और उसे मिर्गी (मृगी) एवं अन्य अनेक रोगों और अंततः दुखपूर्ण शीघ्र मृत्यु का शिकार बना देता है।* *जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृति से शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है।”

परम धीर तथा अध्यवसायी वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि जब कभी भी रेतःस्राव को सुरक्षित रखा जाता तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनः अवशोषण किया जाता है , तो वह रक्त को समृद्ध तथा मस्तिष्क को बलवान बनाता है।

डॉ. डिओ लुई कहते हैं : “शारीरिक बल, मानसिक ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिए इस तत्त्व का संरक्षण परम आवश्यक है ।”

एक अन्य लेखक डॉ. ई. पी. मिलर लिखते हैं : “शुक्रस्राव का स्वैच्छिक अथवा अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है। यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिये जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है।”

पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से और विशेषकर तरुणावस्था में वीर्यक्षय से विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । जिनमें से मुख्य हैं : शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे अथवा विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखायें, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्न दोष तथा मानसिक अशांति।

उपरोक्त रोगों को मिटाकर पूर्ण शारीरिक व मानसिक स्वस्थ्य लाभ प्राप्त करने का एकमात्र उपाय ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि दवाइयों से या अन्य उपचारों से तो ये रोग स्थायी रूप से ठीक नहीं होते।

वीर्य के एक-एक अणु में बहुत महान् शक्तियाँ छिपी हैं। पूर्व काल में इसीके द्वारा शंकराचार्य, महावीर, कबीर, नानक जैसे महापुरुष धरती पर अवतीर्ण हुए हैं। बड़े-बड़े वीर, योद्धा, वैज्ञानिक, साहित्यकार- ये सब वीर्य की एक बूँद में छिपे थे … और अभी आगे भी पैदा होते रहेंगे। इतने बहुमूल्य वीर्य का सदुपयोग जो व्यक्ति नहीं कर पाता, वह अपना पतन आप आमंत्रित करता है।

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