23 September 2018
श्राद्धविधि हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण आचार है तथा वेदकाल का आधार है । अवतारों ने भी श्राद्धविधि किए हैं, ऐसा उल्लेख है । श्राद्ध का अर्थ क्या है, उसका इतिहास तथा श्राद्धविधि करने का उद्देश्य, इस लेख से समझ लेते हैं ।
‘श्रद्धा’ शब्द से ‘श्राद्ध’ शब्द की निर्मिति हुई है । इहलोक छोड़ गए हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जो कुछ किया, वह उन्हें लौटाना असंभव है । पूर्ण श्रद्धा से उनके लिए जो किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।
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| Know the meaning of Shraddha and the history of Shraddha rituals … |
व्याख्या :-
ब्रह्मपुराण के ‘श्राद्ध’ अध्याय में श्राद्ध की निम्न व्याख्या है –
देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत् ।
पित¸नुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ।। – ब्रह्मपुराण
अर्थ : देश, काल तथा पात्र (उचित स्थान)के अनुसार, पितरों को उद्देशित कर ब्राह्मणों को श्रद्धा एवं विधियुक्त जो (अन्नादि) दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं ।
श्राद्धात्व पिंड, पितृपूजा, पितृयज्ञ
‘श्राद्ध’ का अर्थ पितरों का मात्र कृतज्ञतापूर्वक स्मरण नहीं; अपितु यह एक विधि है ।’
‘श्राद्धविधि की मूल कल्पना ब्रह्मदेव के पुत्र अत्रिऋषि की है । अत्रिऋषि ने निमी नामक अपने एक पुरुष वंशज को ब्रह्मदेवद्वारा बताई गई श्राद्धविधि सुनाई । यह रूढ़ आचार आज भी होता है ।
मनु ने प्रथम श्राद्धक्रिया की, इसलिए मनु को श्राद्धदेव कहा जाता है ।
इतिहासक्रम से रूढ़ हुर्इं श्राद्ध की तीन अवस्थाएं एवं वर्तमानकाल की अवस्था :-
ऋग्वेदकाल में समिधा तथा पिंड की अग्नि में आहुति देकर पितृपूजा की जाती थी ।
यजुर्वेद, ब्राह्मण तथा श्रौत एवं गृह्य सूत्रों में पिंडदान का विधान है । गृह्यसूत्रों के काल में पिंडदान प्रचलित हुआ । ‘पिंडपूजा का आरंभ कब हुआ, इसके विषय में महाभारत में निम्नलिखित जानकारी (पर्व 12, अध्याय 3, श्लोक 345) है – श्रीविष्णु के अवतार वराहदेव ने श्राद्ध की संपूर्ण कल्पना विश्व को दी । उन्होंने अपनी दाढ से तीन पिंड निकाले और उन्हें दक्षिण दिशा में दर्भ पर रखा । ‘इन तीन पिंडों को पिता, पितामह (दादा) एवं प्रपितामह (परदादा)का रूप समझा जाए’, ऐसा कहते हुए उन पिंडों की शास्त्रोक्त पूजा तिल से कर वराहदेव अंतर्धान हुए । इस प्रकार वराहदेव के बताए अनुसार पितरों की पिंडपूजा आरंभ हुई ।’
‘छोटे बच्चे एवं संन्यासियों के लिए पिंडदान नहीं किया जाता; क्योंकि उनकी शरीर में आसक्ति नहीं होती । पिंडदान उनके लिए किया जाता है, जिन्हें सांसारिक विषयों में आसक्ति रहती है ।’
गृह्यसूत्र, श्रुति-स्मृति के आगे के काल में, श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन आवश्यक माना गया और वह श्राद्धविधि का एक प्रमुख भाग सिद्ध हुआ ।
वर्तमानकाल में ‘पार्वण’ श्राद्ध में उक्त तीनों अवस्थाएं एकत्रित हो गई हैं । धर्मशास्त्र में यह श्राद्ध गृहस्थाश्रमियों को कर्तव्य के रूप में बताया गया है । संदर्भ : सनातन का ग्रंथ श्राद्ध (भाग 1) श्राद्धविधि का अध्यात्मशास्त्रीय आधार
मृत व्यक्ति के तिथि के श्राद्ध के अतिरिक्त अन्य समय कितना भी स्वादिष्ट पदार्थ अर्पित किया जाए, पूर्वज ग्रहण नहीं कर पाते । बिना मंत्रोच्चार के समर्पित पदार्थ पूर्वजों को नहीं मिलते । – (स्कंद पुराण, माहेश्वरी खंड, कुमारिका खंड, अध्याय 35/36)
त्वमग्न ईळितो जातवेदोऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी ।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥
– ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 15, ऋचा 12
अर्थ : हे सर्वज्ञ अग्निदेव, हम आपकी स्तुति करते हैं । आप हमारे द्वारा समर्पित इन हवनीय द्रव्यों को सुगंधित बनाकर, हमारे पूर्वजों तक पहुंचाइए । हमारे पूर्वज स्वधा के रूप में दिए गए इस हवनीय द्रव्य का भक्षण करें । हे भगवन ! आप भी हमसे समर्पित इस हविर्भाग का भक्षण कीजिए ।
अमावास्वादिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिताः ।
वायुभूताः प्रपश्यन्ति श्राद्धं वै पितरो नृणाम् ॥
यावदस्तमयं भानोः क्षुत्पिपासासमाकुलाः ।
ततश्चास्तंगते भानौ निराशादुःखसंयुताः ।
निःश्वस्य सुचिरं यान्ति गर्हयन्तः स्ववंशजम् ।
जलेनाऽपिचन श्राद्धं शाकेनापि करोति यः ॥
अमायां पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च ॥
– कूर्मपुराण
अर्थ : (मृत्यु के पश्चात) वायुरूप बने पूर्वज, अमावस्या के दिन अपने वंशजों के घर पहुंचकर देखते हैं कि उनके लिए श्राद्ध भोजन परोसा गया है अथवा नहीं । भूख-प्यास से व्याकुल पितर सूर्यास्त तक श्राद्ध भोजन की प्रतीक्षा करते हैं । न मिलने पर, निराश और दुःखी होते हैं तथा आह भरकर अपने वंशजों को चिरकाल दोष देते हैं । ऐसे समय जो पानी अथवा सब्जी भी नहीं परोसता, उसको उसके पूर्वज शाप देकर लौट जाते हैं ।
न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि वर्तते ।
श्राद्धं न कुरुते यस्तु तस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥
– आदित्यपुराण
अर्थ : मृत्यु के पश्चात पूर्वजों का अस्तित्व नहीं होता, ऐसा मानकर जो श्राद्ध नहीं करता, उसका रक्त उसके पूर्वज पीते हैं ।
श्राद्ध न करने से प्राप्त दोष
न तत्र वीरा जायन्ते नाऽऽरोग्यं न शतायुषः ।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम् ॥
– मार्कण्डेयपुराण
अर्थ : जहां श्राद्ध नहीं होता, उसके घर लड़का (वीराः) नहीं जन्मता । (जन्मीं तो केवल लडकियां ही जन्मती हैं ।), उस परिवार के लोग स्वस्थ्य और शतायु नहीं होते तथा उनको आर्थिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं अथवा संतुष्टि नहीं प्राप्त होती । (न च श्रेयः)
(संदर्भ : श्राद्धकल्पकता, पृष्ठ ६)
इस संदर्भ से ज्ञात होता है कि श्राद्धकर्म न करने से पितर रूठ जाते हैं । इससे उनके वंशजों को कष्ट होता है । सब उपाय करने पर भी जब कष्ट दूर न हो, तब समझना चाहिए कि यह पूर्वजों के रुष्ट होने के कारण हो रहा है ।
अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के द्वार के निकट उपस्थित होते हैं तथा अपने परिजनों से श्राद्ध की अपेक्षा रखते हैं । भूख-प्यास से व्याकुल वे सूर्यास्त तक वहीं खडे रहते हैं । इसलिए, पितृपक्ष की अमावस्या तिथि पर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।
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मृत पूर्वजों को भू और भुव लोकों से आगे जाने के लिए गति प्राप्त हो; इसलिए हिन्दू धर्म में श्राद्ध करने के लिए कहा गया है । श्राद्ध न करने से व्यक्ति में कौन-से दोष उत्पन्न हो सकते हैं, इसका भी वर्णन विविध धर्मग्रंथों में मिलता ह
मृत पूर्वजों को भू और भुव लोकों से आगे जाने के लिए गति प्राप्त हो; इसलिए हिन्दू धर्म में श्राद्ध करने के लिए कहा गया है । श्राद्ध न करने से व्यक्ति में कौन-से दोष उत्पन्न हो सकते हैं, इसका भी वर्णन विविध धर्मग्रंथों में मिलता है
Very well said