जानिए जापान में आजाद हिंद सेना बनाकर भारत से अंग्रेजों को कैसे खदेड़ा ?

23 January 2023

azaadbharat.org

भारत की स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आजाद हिंद सेना का 5 जुलाई 1943 को गठन हुआ था । आजाद हिंद सेना के संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे ।

अंग्रेजों को परास्त करने के लिए भारत की स्वतंत्रता संग्राम की अंतिम लडाई का नेतृत्व नियती ने नेताजी के हाथों सौंपा था । नेताजी ने यह पवित्र कार्य असीम साहस एवं तन, मन, धन तथा प्राण का त्याग करने में तत्पर रहने वाले हिंदी सैनिकों की ‘आजाद हिंद सेना’ संगठन द्वारा पूर्ण किया ।

ब्रिटिश सेना के हिंदी सैनिकों का नेताजी ने बनाया संगठन

अंग्रेजों की स्थान बद्धता से भाग जाने पर नेताजी ने फरवरी 1943 तक जर्मनी में ही वास्तव्य किया । वे जर्मन सर्वसत्ताधीश हिटलर से अनेक बार मिले और उसे हिंदुस्थान की स्वतंत्रता के लिए सहायता का आवाहन भी किया ।

दूसरे महायुद्ध में विजय की ओर मार्गक्रमण करने वाले हिटलर ने नेताजी को सर्व सहकार्य देना स्वीकार किया । उस अनुसार उन्होंने जर्मनी की शरण में आए अंग्रेजों की सेना के हिंदी सैनिकों का प्रबोधन करके उनका संगठन बनाया । नेताजी के वहां के भाषणों से हिंदी सैनिक देशप्रेम में भाव विभोर होकर स्वतंत्रता के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते थे ।

आजाद हिंदी सेना की स्थापना और ‘चलो दिल्ली’का नारा

पूर्व एशियाई देशों में जर्मनी का मित्रराष्ट्र जापान की सेना ब्रिटिश सेना को धूल चटा रही थी । उनके पास भी शरण आए हुए, ब्रिटिश सैना के हिंदी सैनिक थे । नेताजी के मार्गदर्शनानुसार वहां पहले से ही रहने वाले रास बिहारी बोसने हिंदी सेना का संगठन किया ।

इस हिंदी सेना से मिलने नेताजी 90 दिन पनडुब्बी से यात्रा करते समय मृत्यु से जूझते जुलाई वर्ष 1943 में जापान की राजधानी टोकियो पहुंचे। रास बिहारी बोस जी ने इस सेना का नेतृत्व नेताजी के हाथों सौंप दिया । 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में नेताजी ने ‘आजाद हिंद सेना’की स्थापना की ।

उस समय सहस्रों सैनिकों के सामने ऐतिहासिक भाषण करते हुए वे बोले, ‘‘सैनिक मित्रों ! आपकी युद्ध घोषणा एक ही रहे ! चलो दिल्ली ! आपमें से कितने लोग इस स्वतंत्रता युद्ध में जीवित रहेंगे, यह तो मैं नहीं जानता,परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि अंतिम विजय अपनी ही है। इसलिए उठो और अपने अपने शस्त्रास्त्र लेकर सुसज्ज हो जाओ । हमारे भारत में आपसे पहले ही क्रांतिकारियो ने हमारे लिए मार्ग बना रखा है और वही मार्ग हमें दिल्ली तक ले जाएगा । ….चलो दिल्ली ।”

भारत के अस्थायी शासन की प्रमुख सेना सहस्रों सशस्त्र हिंदी सैनिकों की सेना सिद्ध होने पर और पूर्व एशियाई देशों की लाखों हिंदी जनता का भारतीय स्वतंत्रता को समर्थन मिलने पर नेताजी ने 21 अक्टूबर 1943 को स्वतंत्र हिंदुस्थान का दूसरा अस्थायी शासन स्थापित किया । इस अस्थायी शासन को जापान, जर्मनी, चीन, इटली, ब्रह्मदेश आदि देशों ने उनकी मान्यता घोषित की ।

इस अस्थायी शासन का आजाद हिंद सेना, यह प्रमुख सेना बन गई ! आजाद हिंद सेना में सर्व जाति-जनजाति, अलग-अलग प्रांत, भाषाओं के सैनिक थे । सेना में एकात्मता की भावना थी । ‘कदम कदम बढाए जा’, इस गीत से समरस होकर नेताजी ने तथा उनकी सेना ने आजाद हिंदुस्थान का स्वप्न साकार करने के लिए विजय यात्रा आरंभ की ।

‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट’की स्थापना नेताजी ने झांसी की रानी रेजिमेंट के पदचिन्हों पर महिलाओं के लिए ‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट’की स्थापना की । पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर महिलाओं को भी सैनिक प्रशिक्षण लेना चाहिए, इस भूमिका पर वे दृढ रहे । नेताजी कहते, हिंदुस्थान में 1857 के स्वतंत्रता युद्ध में लडनेवाली झांसी की रानी का आदर्श सामने रखकर महिलाओं को भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए ।

आजाद हिंद सेना द्वारा धक्का

आजाद हिंद सेना का ब्रिटिश सत्ता के विरोध में सैनिकी आक्रमण आरंभ होते ही जापान का सत्ताधीश जनरल टोजो ने इंग्लैंड से जीते हुए अंदमान एवं निकोबार ये दो द्वीप आजाद हिंद सेना के हाथों सौंप दिए । 29 दिसंबर 1943 को स्वतंत्र हिंदुस्थान के प्रमुख होने के नाते नेताजी अंदमान गए और अपना स्वतंत्र ध्वज वहां लहराकर सेल्युलर कारागृह में दंड भोग चुके क्रांतिकारियो कों आदरांजली समर्पित की । जनवरी 1944 में नेताजी ने अपनी सशस्त्र सेना ब्रह्मदेश में स्थलांतरित की ।

19 मार्च 1944 के ऐतिहासिक दिन आजाद हिंद सेना ने भारत की भूमि पर कदम रखा । इंफाल, कोहिमा आदि स्थानों पर इस सेना ने ब्रिटिश सेना पर विजय प्राप्त की । इस विजयनिमित्त 22 सितंबर 1944 को किए हुए भाषण में नेताजी ने गर्जना की कि, ‘‘अपनी मातृभूमि स्वतंत्रता की मांग कर रही है ! इसलिए मैं आज आपसे आपका रक्त मांग रहा हूं । केवल रक्त से ही हमें स्वतंत्रता मिलेगी । तुम मुझे अपना रक्त दो । मैं तुमको स्वतंत्रता दूंगा !” (‘‘दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा लहराने के लिए तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा”) यह भाषण इतिहास में अजर अमर हुआ । उनके इन हृदय झकझोर देनेवाले उद्गारों से उपस्थित हिंदी युवाओं का मन रोमांचित हुआ और उन्होंने अपने रक्त से प्रतिज्ञा लिखी ।

‘चलो दिल्ली’का स्वप्न अधूरा; परंतु ब्रिटिशों को झटका

मार्च 1945 से दोस्त राष्ट्रों के सामने जापान की पराजय होने लगी । 7 मई 1945 को जर्मनी ने बिना किसी शर्त के शरणागति स्वीकार ली, जापान ने 15 अगस्त को शरणागति की अधिकृत घोषणा की । जापान-जर्मनी के इस अनपेक्षित पराजय से नेताजी की सर्व आकांक्षाएं धूमिल हो गइं । ऐसे में अगले रणक्षेत्र की ओर अर्थात् सयाम जाते समय 18 अगस्त 1945 को फार्मोसा द्वीप पर उनका बॉम्बर विमान गिरकर उनका हदयद्रावक अंत हुआ ।

आजाद हिंद सेना दिल्ली तक नहीं पहुंच पाई; परंतु उस सेना ने जो प्रचंड आवाहन् बलाढ्य ब्रिटिश साम्राज्य के सामने खडा किया, इतिहास में वैसा अन्य उदाहरण नहीं । इससे ब्रिटिश सत्ता को भयंकर झटका लगा । हिंदी सैनिकों के विद्रोह से आगे चलकर भारत की सत्ता अपने अधिकार में रखना बहुत ही कठिन होगा, इसकी आशंका अंग्रेजों को आई । चतुर और धूर्त अंग्रेज शासन ने भावी संकट ताड लिया । उन्होंने निर्णय लिया कि पराजित होकर जाने से अच्छा है हम स्वयं ही देश छोडकर चले जाएं । तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपनी स्वीकृति दे दी ।

ब्रिटिश भयभीत हो गए और नेहरू भी झुके

स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाली नेताजी की आजाद हिंद सेना को संपूर्ण भारत वासियों का उत्स्फूर्त समर्थन प्राप्त था । नेताजी ने ब्रिटिश-भारत पर सशस्त्र आक्रमण करने की घोषणा की, तब पंडित नेहरू ने उनका विरोध किया; परंतु नेताजी की एकाएक मृत्यु के उपरांत आजाद हिंद सेना के सेनाधिकारियों पर अभियोग चलते ही, संपूर्ण देश से सेना की ओर से लोकमत प्रकट हुआ ।

सेना की यह लोकप्रियता देखकर अंत में नेहरू को झुकना पडा, इतना ही नहीं उन्होंने स्वयं सेना के अधिकारियों का अधिवक्तापत्र (वकीलपत्र) लिया । अंततः आरोप लगाए गए सेना के 3 सेनाधिकारी सैनिक न्यायालय के सामने दोषी ठहराए गए; परंतु उनका दंड क्षमा कर दिया; क्योंकि अंग्रेज सत्ताधीशों की ध्यान में आया कि, नेताजी के सहयोगियों को दंड दिया, तो 90 वर्षों में लोक क्षोभ उफन कर आएगा । आजाद हिंद सेना के सैनिकों की निस्वार्थ देश सेवा से ही स्वतंत्रता की आकांक्षा कोट्यवधी देशवासियों के मन में निर्माण हुई ।

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