रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर शत् शत् नमन।

4 जून 2022

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ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की षष्ठी को अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं। इस वर्ष तिथिनुसार उनका बलिदान दिवस 5 जून को आ रहा है।

भारत के गौरवशाली इतिहास में जब-जब वीरांगनाओं का जिक्र किया जाएगा, महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता और पराक्रम हमेशा लोगों को प्रेरणा देते रहेंगे।

आज की नारी को भी पाश्चात्य अंधानुकरण को छोड़ कर, रानी लक्ष्मीबाई से प्रेरणा लेकर महानता की ओर आगे बढ़ना चाहिए।

कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी रचना ‘झांसी की रानी’ में इसी पराक्रम का जिक्र करते हुए लिखा था- ”खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।”

अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आज तिथि अनुसार पुण्यतिथि है। ज्येष्ठ मास की षष्ठी को सन् 1858 को अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं।

रानी लक्ष्मीबाई ने उस दौर में अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए थे, जब युद्ध के लिए सिर्फ पुरुषों को योग्य माना जाता था। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल के साथ उनका मातृत्व धर्म भी इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को वाराणसी में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा था, लोग उन्हें प्यार से ‘मनु’ बुलाते थे।

सिर्फ 4 साल की आयु में ही मणिकर्णिका की मां का निधन हो गया। अपने पिता के साथ मणिकर्णिका पेशवा आ गईं। यहां पेशवा बाजीराव द्वितीय ने उन्हें अपनी पुत्री का रूप में पाला। यहां उन्हें प्यार से लोग छवीली बुलाते थे।

जब वह बड़ी हुईं तो उन्हें युद्ध कला जैसे तलवार बाजी और घुड़सवारी का प्रशिक्षण दिया गया। इस तरह के असामान्य पालन-पोषण के कारण वह अपनी उम्र की अन्य लड़कियों की तुलना में अधिक स्वतंत्र थी।

14 साल की उम्र में मणिकर्णिका का विवाह झांसी के राजा गंगाधर नेवलकर से हुआ। यहीं से उनका नाम बदलकर मणिकर्णिका से लक्ष्मीबाई पड़ा। कुछ वर्षों बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, हालांकि केवल 4 वर्ष की आयु में ही उसका निधन हो गया।

इसके बाद राजा ने दामोदर राव को दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। हालांकि इसके कुछ दिनों में ही राजा की मृत्यु हो गई।

अंग्रेजों ने अवसर देखकर झांसी पर हमला बोल दिया। झांसी ने भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया, इसमें कई अंग्रेज मारे गए। जब रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध शुरू हुआ। युद्ध जब चरम पर पहुंचा, तब रानी दत्तक पुत्र को पीठ पर बांध घोड़े की लगाम मुंह में दबाए दुश्मनों से निर्भीकता पूर्वक युद्ध करने लगीं।

अंग्रे़जों से युद्ध करते हुए वह सोनरेखा नाले की ओर बढ़ चलीं, किन्तु दुर्भाग्यवश रानी का घोड़ा इस नाले को पार नहीं कर सका। उसी समय अंग्रेजों ने उनपर हमला कर दिया। इसी दौरान रानी का एक सैनिक उन्हें लेकर पास के एक सुरक्षित मंदिर में पहुंचा, जहां पुजारी से रानी ने कहा- मेरे बेटे दामोदर की रक्षा करना और अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए। इतना कहते हुए ज्येष्ठ मास की षष्ठी को रानी ने प्राण त्याग दिए। मृत्यु के बाद वहां मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फानन में लकड़ियां एकत्रित कर रानी के पार्थिव शरीर को अग्नि दाह दी।

भारत के सभी वीरांगनाओं को रानी लक्ष्मीबाई के जीवन से अवश्य शिक्षा लेनी चाहिए।

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