12 अक्टूबर 2021
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भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को ऐसी फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है जिनमें हिन्दुओं की भावनाओं का तो मजाक उड़ाया ही जाता है, साथ ही इसमें इस्लाम के गुणगान और मुस्लिमों को अच्छे से अच्छा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। खैर, किसी को अच्छा दिखाने से कोई समस्या न भी हो तो किसी की भावनाओं से बार-बार खेलना, निंदा का विषय तो है ही। आज जिस फिल्म की हम बात करने जा रहे हैं, उसका नाम है– ‘शोले’। सलीम-जावेद की लिखी फिल्म- ‘शोले’।
जी हाँ, 1975 में आई रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’, जिसकी कहानी सलीम-जावेद ने लिखी थी। सलीम खान, सलमान खान के पिता। और जावेद अख्तर के परिचय की कोई ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि वो आजकल सोशल मीडिया पर लड़ाई-झगड़ा करने के लिए अच्छे-खासे कुख्यात हो चुके हैं। बॉलीवुड में ‘लुटेरा बनिया, चुगलखोर ब्राह्मण, अच्छा मुस्लिम और गद्दार हिन्दू’ जैसी परिभाषाएँ इन्हीं दोनों की देन है।
कई बार सलीम-जावेद कह भी चुके हैं कि ‘शोले’ में अमजद खान से अच्छा ‘गब्बर सिंह’ का किरदार कोई नहीं निभा पाता। ऐसा लगता भी है कि इस फिल्म के किरदारों में अमजद खान के कैरेक्टर के लिए कहानी में ज्यादा मेहनत की गई है। कहा जाता है कि वो एक बार में ही इस रोल के लिए सलीम-जावेद को पसंद आ गए थे। खैर, किरदारों का तुलनात्मक अध्ययन हम करेंगे लेकिन उससे पहले फिल्म में दिखाई गई कुछ और चीजें हैं, जिन्हें हमें जानना चाहिए।
रामगढ़ गाँव का सबसे अच्छा, सबसे सच्चा व्यक्ति: मौलवी रहीम चाचा
‘शोले’ फिल्म में अगर कोई एक ऐसा किरदार है, जिसमें सिर्फ अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ हैं और एक भी दाग नहीं है, तो वो है रामगढ़ की मस्जिद के मौलवी, जिन्हें लोग ‘रहीम चाचा’ के नाम से जानते हैं। ‘रहीम चाचा’ सबसे शांत, सौम्य और सरल स्वभाव के हैं। जो भी मिलता है, उसपर प्यार बरसाते हैं। पूरा गाँव उनकी हद से ज्यादा इज्जत करता है। सब उनकी बात मानते हैं और ‘रहीम चाचा’ की सभी मदद भी करते हैं।
70 के दशक की फिल्मों में जहाँ एक तरफ ‘हरे कृष्णा, हरे रामा’ के नाम पर लूटने के किस्से दिखाए जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ मौलवियों का ऐसा चित्रण हो रहा था– जैसे भारत के गाँवों में सबसे अच्छे वही हों। ‘रहीम चाचा’ की एंट्री वाले दृश्य में ही दर्शा दिया गया है कि सारे गाँव वाले उनकी कितनी इज्जत करते हैं। वो बसंती से कहते हैं कि हमेशा कोई न कोई उन्हें छोड़ने के लिए आ ही जाता है। इससे बताया गया है कि गाँव में सबसे ज्यादा सम्मान ‘रहीम चाचा’ का ही है।
‘शोले’ फिल्म में ‘रहीम चाचा’ का चित्रण ऐसा है, जिससे किसी भी मौलवी से सहज ही प्रेम हो जाए और उनके लिए मन में सम्मान की भावना अपने-आप ही आ जाए! इस चित्रण को और अच्छे से समझने के लिए हमें उस दृश्य को देखना पड़ेगा, जिसमें ‘रहीम चाचा’ के बेटे अहमद की लाश के पास सारे ग्रामीण खड़े हैं। अहमद अपने मामा के यहाँ बीड़ी की फैक्ट्री में कमाने जाता रहता है, तभी ‘गब्बर सिंह’ उसे मार डालता है और घोड़े के साथ उसकी लाश गाँव में भेजता है।
इस दृश्य को सिर्फ ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?‘ वाले डायलॉग के लिए ही याद रखा गया है लेकिन इसमें गौर करने लायक और भी बहुत कुछ है। यहाँ ‘रहीम चाचा’ पूरे गाँव में देशभक्त बन कर उभरते हैं और ‘इज्जत की मौत जिल्लत की ज़िंदगी से कहीं अच्छी है‘ जैसे डायलॉग बोलते हुए अफ़सोस जताते हैं कि उनके दो-चार और बेटे होते, जिन्हें वो ‘गाँव के लिए शहीद’ कर देते। यहाँ जय-वीरू के सबसे बड़े ‘Saviour’ वही ‘रहीम चाचा’ हैं।
सबसे बड़ी बात तो ये है कि यहाँ गाँव वाले उस ठाकुर तक से लड़ते हैं, जिसके दो बेटे, एक बहू और एक पोते को ‘गब्बर सिंह’ ने मार डाला है लेकिन उस मौलवी की बात को वो सर-आँखों पर रखते हैं, जिसके एक बेटे की हत्या हो गई है। ये अंतर ही बॉलीवुड की सच्चाई है। साथ ही बैकग्राउंड में लगातार बजती नमाज की आवाज़ और समय होते ही बेटे की लाश छोड़कर ‘रहीम चाचा’ का नमाज के लिए जाना दर्शाता है कि गाँव के सबसे ‘अच्छे व्यक्ति’ यहाँ मौलवी साहब ही हैं।
सलीम-जावेद की ‘शोले’: मंदिर मतलब छेड़छाड़, होली मतलब छेड़छाड़
जहाँ एक तरफ ‘रहीम चाचा’ सबसे अच्छे व्यक्ति हैं और मस्जिद सबसे पवित्र जगह, वहीं गाँव का शिव मंदिर किसी भी नौटंकी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। बसंती बताती है कि वो मौसी के कहने से हर सोमवार शिवजी की पूजा करने जाती है, जिससे उसे अच्छा पति मिलेगा। अब इसपर तंज कसते हुए इसे अन्धविश्वास की तरह प्रदर्शित किया गया है या आस्था की तरह, ये तो नहीं पता लेकिन, इतना ज़रूर है कि मंदिर को ‘लड़की पटाने’ के लिए उपयुक्त जगह बताया गया है।
अगस्त 2014 में अपने पिता और दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की 70वीं जयंती पर राहुल गाँधी ने हिंदुत्व और मंदिरों को महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ के साथ जोड़ा था। ये अचानक नहीं था। बॉलीवुड में सलीम-जावेद जैसों ने ऐसे नैरेटिव बनाने के लिए खासी मेहनत की है। ‘शोले’ भी इसका एक उदाहरण है। ‘बसंती’ के पीछे-पीछे वीरू भी पहुँच जाता है मंदिर और अपनी टाँगें भगवान शिव की प्रतिमा पर टिका कर पीछे खड़े हो जाता है।
मंदिर में शिव प्रतिमा के पीछे खड़े होकर हीरो लड़की के साथ छेड़खानी करता है और लड़की को भी लगता है कि भगवान शिव ही बोल रहे हैं। वो तो भला हो ‘जय’ का, जो समय रहते ‘बसंती’ के सामने इसका खुलासा कर देता है। मंदिरों को इसी तरह की नाटक-नौटंकियों की जगह की तरह दिखाने का चलन रहा है, जहाँ जाकर नायक चिल्लाता है। वहीं दरगाह पर जाते ही शांति छा जाती है, लोगों के सिर झुक जाते हैं। ये नैरेटिव बॉलीवुड में कब से, चला आ रहा है।
अब आते हैं होली पर।
आजकल तो होली पर ‘सीमेन भरे बैलून्स’ के भी अफवाह फैला दिए जाते हैं। होली को ‘Regressive’ त्यौहार कहा जाता है। असल में बॉलीवुड के गानों ने ही इन चीजों का सामान्यीकरण किया है। सलीम-जावेद की लिखी फिल्म ‘शोले’ में ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं‘ गाने में मौलवी साहब भी बड़े प्रेम से बैठ कर रंगों का कार्यक्रम देखते रहते हैं। लेकिन, इस गाने का लिरिक्स या बोल जो है, वो भी गौर करने लायक है-
जा रे जा दीवाने तू होली के बहाने तू
जा रे जा दीवाने तू होली के बहाने तू
छेड़ ना मुझे बेशरम
पूछ ले ज़माने से ऐसे ही बहाने से
लिए और दिए दिल जाते हैं
होली के दिन खिल जाते हैं …
इस गाने के बोल 40 बार फिल्मफेयर के लिए नॉमिनेट होने वाले आनंद बख्शी ने लिखा है। इसका सीधा अर्थ है कि होली मतलब छेड़छाड़, होली के बहाने ही ‘ऐसी-वैसी’ चीजें दी जा सकती हैं। ‘होली के बहाने छेड़छाड़‘ वाले इस नैरेटिव को काफी फिल्मों में प्रयोग किया गया है। इसी का बड़ा रूप आज हम ‘सीमेन भरे बैलून्स’ वाली अफवाह के रूप में देखते हैं। होली जैसे हिन्दू त्योहारों को बदनाम किया जाना तभी से चल रहा है।
लाचार ठाकुर, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता
एक और चीज जो इस फिल्म में गौर करने लायक है, वो है-! ठाकुर का चित्रण। ठाकुर में कोई गड़बड़ी नहीं है लेकिन वह इतना असहाय है कि वो खुद की रक्षा नहीं कर सकता, तो ग्रामीणों की रक्षा क्या करेगा। ठाकुर जमींदार है, पुलिस अधिकारी है, गाँव में उसका प्रभाव है– लेकिन उसके पूरे परिवार को मौत की नींद सुला दिए जाने के बावजूद ग्रामीणों को उतना दुःख नहीं होता, जितना ‘रहीम चाचा’ के बेटे की मौत के बाद।
‘शोले’ ने इस नैरेटिव को आगे बढ़ाने में सफलता पाई है कि ‘ठाकुर तो अपना भी नहीं धो सकता’ तो वो गाँव वालों की रक्षा क्या करेगा? लाचार ठाकुर को चोर-बदमाशों की ज़रूरत पड़ती है, ताकि वो अपने खिलाफ हुए अत्याचार का बदला ले सके। कहते हैं कि ‘शोले’ के अंत में ठाकुर ने ‘गब्बर सिंह’ को मार डाला था लेकिन एंडिंग बदलकर उसके न्यायप्रिय होने के कारण दिखाया गया कि ठाकुर क़ानून अपने हाथ में नहीं ले सकता।
अधिकतर चीजें हॉलीवुड के ‘वेस्टर्न जॉनर’ की फिल्मों से उठाकर उसमें अच्छे ‘रहीम चाचा’ और ‘मंदिर व हिन्दू त्योहारों में महिलाओं से छेड़छाड़’ वाला एंगल जोड़ते ही वो सलीम-जावेद की फिल्म ‘शोले’ बन जाती है। अमिताभ बच्चन ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन द वेस्ट’ (1968) के चार्ल्स ब्रॉन्सन की तरह माउथ ऑर्गन बजाते हैं, ‘गब्बर सिंह’ का पूरा किरदार और हावभाव ही ‘फॉर अ फ्यू डॉलर्स मोर’ (1965) में जायन मरिया वोलोंटे के किरदार से प्रेरित है।
मंदिर में छेड़खानी, मस्जिद मतलब शांति: सलीम-जावेद का रामगढ़, जहाँ ‘रहीम चाचा’ ही एकलौते बेदाग मानुष#Bollywood के हिंदूफोबिक चेहरे को उजागर करने वाली रिपोर्ट#Archives https://t.co/awJDQ2jFFK
— ऑपइंडिया (@OpIndia_in) October 12, 2021
जब सलीम खान और जावेद अख्तर जैसे लोगों का प्रभाव हो तो फ़िल्में ऐसी ही बनती हैं। तब भारत में विदेशी फ़िल्में नहीं देखी जाती थीं, लोगों के पास इंटरनेट नहीं था कि वो तुरंत हॉलीवुड फ़िल्में डाउनलोड करके देख लें! इसका इन दोनों ने खूब फायदा उठाया। कई अन्य फ़िल्में हैं, जिनमें इन दोनों ने हिन्दूफ़ोबिया को आगे बढ़ाया है, जिनकी बात हम इसी सीरीज की अगली कड़ी में करेंगे। बता दें कि अमजद खान ‘शोले’ के बाद इस स्तर का कोई परफॉरमेंस नहीं दे पाए।
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