02 June 2025
न्याय या अन्याय? 103 वर्षीय लखन की रिहाई और 43 साल लंबा इंतज़ार
एक झकझोर देने वाली कहानी
उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के निवासी लखन को वर्ष 1977 में हत्या के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था। पांच वर्षों की लंबी सुनवाई के बाद, 1982 में उन्हें निचली अदालत ने उम्रकैद की सज़ा सुनाई। लखन ने हमेशा खुद को निर्दोष बताया और उसी वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट में सज़ा के खिलाफ अपील भी दाखिल की।
पर असल त्रासदी तो इसके बाद शुरू हुई। लखन की अपील को अदालत ने स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उस पर निर्णय आने में पूरे 43 साल लग गए। इस दौरान लखन जेल की सलाखों के पीछे ही रहा। न तो कोई अंतरिम राहत मिली, न ही सुनवाई की गति तेज़ हुई। इस दौरान वर्षों बदलते गए, सरकारें आईं और गईं, पर लखन की जिंदगी एक बंद कोठरी में ठहर गई।
रिहाई या एक अधूरी राहत?
आख़िरकार, 2 मई 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लखन को बाइज़्ज़त बरी कर दिया और उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन यह ‘रिहाई’ वास्तव में कितनी राहत दे सकी, जब वह व्यक्ति अब 103 वर्ष का हो चुका है? उसकी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण 43 वर्ष — जो किसी भी व्यक्ति के लिए परिवार, समाज और आत्मनिर्माण के होते हैं — जेल में बीत गए। और वह भी तब, जब अंत में अदालत ने माना कि वह दोषी नहीं था।
कानून की देरी, जीवन की बर्बादी
लखन का मामला केवल एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं है, बल्कि यह भारत की न्याय व्यवस्था की उस खामियों को उजागर करता है, जहां मुकदमों की सुनवाई दशकों तक लटकी रहती है। ऐसी देरी सिर्फ अदालती प्रक्रिया की धीमी रफ्तार का परिणाम नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकारों का गंभीर हनन भी है।
क्या एक निर्दोष व्यक्ति को 43 साल जेल में रखे जाने के बाद सिर्फ “बाइज़्ज़त बरी” कह देना पर्याप्त है? क्या हमारे कानून में ऐसा कोई प्रावधान है जो ऐसे मामलों में मुआवजा या पुनर्वास सुनिश्चित करे? दुर्भाग्यवश, आज भी न्याय व्यवस्था में ऐसी गारंटी का अभाव है।
अब ज़रूरत है बदलाव की
- तेज़ सुनवाई की व्यवस्था हो, विशेषकर उन मामलों में जहां आरोपी जेल में है।
- न्यायिक जवाबदेही तय की जाए, ताकि देरी के लिए ज़िम्मेदार संस्थानों पर कार्रवाई हो सके।
- निर्दोष कैदियों के लिए मुआवजा नीति बने, जिससे उनके पुनर्वास की व्यवस्था हो।
- तकनीकी सुधारों और डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम को अनिवार्य किया जाए, जिससे मुकदमों की स्थिति पारदर्शी और सबके लिए उपलब्ध हो।
निष्कर्ष
लखन की रिहाई कोई जश्न नहीं है, बल्कि यह एक मौन चीख है — उस व्यवस्था के खिलाफ जो देर से जागती है और कभी-कभी तब तक नहीं, जब तक ज़िंदगी थक नहीं जाती। 103 साल की उम्र में रिहा हुआ यह बुज़ुर्ग नायक नहीं, बल्कि हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी विफलता की कहानी है।
अब ये देश, ये कानून, और हम सभी इस सवाल से नहीं बच सकते: क्या यह न्याय है?