संत तुकारामजी का जीवन और भारतीय समाज के लिए उनका योगदान…

20 मार्च 2022

 
🚩संत तुकाराम सत्रहवीं शताब्दी के एक महान सन्त कवि थे जो भारत में लम्बे समय तक चले भक्ति आन्दोलन के एक प्रमुख स्तम्भ थे।

 

🚩 तुकारामजी का जन्म पुणे जिले के अन्तर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520, सन्‌ 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है पर सभी दृष्टियों से विचार करने पर शके 1520 में जन्म होना ही मान्य प्रतीत होता है। पूर्व के आठवें पुरुष विश्वम्भर बाबा से इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके कुल के सभी लोग पण्ढरपुर की यात्रा (वारी) के लिये नियमित रूप से जाते थे। देहू गाँव के महाजन होने के कारण वहाँ इनका कुटुम्ब प्रतिष्ठित माना जाता था। इनकी बाल्यावस्था माता कनकाई व पिता बहेबा (बोल्होबा) की देखरेख में अत्यन्त दुलार से बीती, पर 18 वर्ष की अवस्था में इनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़े भीषण अकाल में इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई। ज्वालाओं में झुलसे हुए तुकारामजी का मन प्रपंच से ऊब गया। इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त की शान्ति लिए ये प्रतिदिन गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।
 
🚩प्रपन्चपरान्मुख हो तन्मयता से परमेश्वर प्राप्ति के लिये उत्कंठित तुकारामजी को बाबाजी चैतन्य नामक साधु ने माघ शुद्ध 10 शके 1541 में ‘रामकृष्ण हरि’ मन्त्र का स्वप्न में उपदेश दिया। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। सच्चे वैराग्य तथा क्षमाशील अन्त:करण के कारण इनकी निन्दा करनेवाले निन्दक भी पश्चाताप करते हुए इनके भक्त बन गए। इस प्रकार भागवत धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते हुए अधर्म का खण्डन करनेवाले तुकारामजी ने फाल्गुन बदी (कृष्ण) द्वादशी, शके 1571 को देहविसर्जन किया।
 
🚩तुकारामजी के मुख से समय समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होनेवाली ‘अभंग’ वाणी ही इनकी साहित्यिक कृति है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 अभंग आज उपलब्ध हैं।
 
🚩सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई ‘ज्ञानेश्वरी’ तथा श्री एकनाथ द्वारा लिखित ‘एकनाथी भागवत’ वारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्मग्रन्थ हैं। इस वांङ्मय की छाप तुकारामनई के अभंगों पर दिखलाई पड़ती है। तुकारामजी ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन सन्तों के ग्रन्थों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। इन तीनों सन्त कवियों के साहित्य में एक ही अध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है तथा तीनों के पारमार्थिक विचारों का अंतरंग भी एकरूप है। ज्ञानेश्वरजी की सुमधुर वाणी काव्यालंकार से मंडित है, एकनाथजी की भाषा विस्तृत और रसप्लावित है पर तुकाराम जी की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक है।
 
 
🚩तुकारामजी का अभंग वांङ्मय अत्यन्त आत्मपर होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है।
 
🚩कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी सन्त बन सका, इसका स्पष्ट रूप उनके अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं।
 
🚩प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत्त दिखलाई पड़ते हैं।
 
🚩दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चरम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ है उसकी हृदयवेधकता मराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है।
 
🚩किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकारामजी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकारामजी ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।
 
🚩इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकारामजी के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होंने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरक्षण के साथ साथ पाखंड खंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाज कंटकों की उन्होंने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।
 
🚩इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
 
🚩तुकारामजी की अधिकांश काव्यरचना कैबल अभंग छंद में ही है, तथापि उन्होंने रूपकात्मक रचनाएँ भी की हैं। सभी रूपक काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनकी वाणी श्रोताओं के कान पर पड़ते ही उनके हृदय को पकड़ लेने का अद्भुत सामर्थ्य रखती है। इनके काव्यों में अलंकारों का या शब्द चमत्कार का प्राचुर्य नहीं है। इनके अभंग सूत्रबद्ध होते हैं। थोड़े शब्दों में महान्‌ अर्थों को व्यक्त करने का इनका कौशल मराठी साहित्य में अद्वितीय है।
 
🚩तुकारामनई की आत्मनिष्ठ अभंगवाणी जनसाधारण को भी परम प्रिय लगती है। इसका प्रमुख कारण है कि सामान्य मानव के हृदय में उत्पन्न होनेवाले सुख, दु:ख, आशा, निराशा, राग, लोभ आदि का प्रकटीकरण इसमें दिखलाई पड़ता है। तुकारामजी के वांङ्मय ने जनता के हृदय में ध्रुव स्थान प्राप्त कर लिया है। ज्ञानेश्वरजी, नामदेवजी आदि संतों ने भागवत धर्म की पताका को अपने कंधों पर ही लिया था किंतु तुकारामजी ने उसे अपने जीवनकाल ही में अधिक ऊँचे स्थान पर फहरा दिया। उन्होंने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया तथा भक्ति का डंका बजाते हुए आबालवृद्धों के लिये सहज सुलभ साध्य ऐसे भक्ति मार्ग को अधिक उज्ज्वल कर दिया।
 
🚩संत तुकाराम ने इस बात पर बल दिया है कि सभी मनुष्य परमपिता ईश्वर की संतान हैं और इस कारण समान हैं। संत तुकारामजी द्वारा ‘राष्ट्र धर्म’ का प्रचार हुआ जिसके सिद्धांत भक्ति आंदोलन से प्रभावित थे। उनका तत्कालीन सामाजिक विचारधारा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यद्यपि इसे जाति और वर्णव्यवस्था पर कुठाराघात करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई, किंतु इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि समानता के सिद्धांत के प्रतिपादन द्वारा इसके प्रणेता वर्णव्यवस्था को लचीला बनाने में अवश्य सफल हुए। राष्ट्र धर्म का उपयोग श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज ने सभी वर्गों को एकसूत्र में बाँधने के लिए किया।
 
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