राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षक की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है ये जानिए चाणक्य नीति से।

05 सितंबर 2020

 
हर वर्ष हम 5 सितंबर को शिक्षिक दिवस तो मना लेते हैं पर शिक्षक का हमारे जीवन और राष्ट्र के लिए कितना महत्व है ये नही जानते हैं। हर व्यक्ति के जीवन के निर्माण के लिए सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अगर किसी की है तो वे शिक्षक की है, अगर शिक्षक सही शिक्षा विद्यार्थी को दे तो वो महानता को छू लेगा और राष्ट्र व संस्कृति के प्रति जागरूक रहेगा अगर उसको शिक्षक ने सही शिक्षा नही दी तो वो अपने जीवनकाल में हताश निराश रहेगा और कोई महत्वपूर्ण कार्य नही कर सकेगा और राष्ट्र व अपनी संस्कृति के विरुद्ध भी जा सकता है।
 

 

 
आइए चाणक्य नीति से जानते है क्या कहते थे वे शिक्षकों के लिए…
 
आचार्य चाणक्य ने बताया कि शिक्षक गौरव घोषित तब होगा जब ये राष्ट्र गौरवशाली होगा और ये राष्ट्र गौरवशाली तब होगा जब ये राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं का निर्वाह करने में सफल एवं सक्षम होगा। और ये राष्ट्र सफल एवं सक्षम तब होगा, जब शिक्षक अपने उतरदायित्व का निर्वाह करने में सफल होगा। और शिक्षक सफल तब कहा जाएगा, जब वह राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में सफल हो। यदि व्यक्ति राष्ट्र भाव से शून्य है, राष्ट्र भाव से हिन है, अपनी राष्ट्रीयता के प्रति सजग नही है तो ये शिक्षक की असफलता है।
 
और हमारा अनुभव साक्षी है की राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में हमने अपने राष्ट्र को अपमानित होते देखा है। हमारा अनुभव है की शस्त्र से पहले हम शास्त्र के अभाव से पराजित हुए है। हम शस्त्र और शास्त्र धारण करने वालो को राष्ट्रीयता का बोध नही करा पाए और व्यक्ति से पहले खंड खंड हमारी राष्ट्रीयता हुई। शिक्षक इस राष्ट्र की राष्ट्रीयता व सामर्थ्य को जाग्रत करने में असफल रहा। यदि शिक्षक पराजय स्वीकार कर ले तो पराजय का वो भाव राष्ट्र के लिए घातक होगा।
 
अत: वेद वंदना के साथ साथ राष्ट्र वन्दना का स्वर भी दिशाओं में गूंजना आवश्यक है। आवश्यक है व्यक्ति एवं व्यवस्था को ये आभास कराना की यदि व्यक्ति की राष्ट्र की उपासना में आस्था नहीं रही तो तो उपासना के अन्य मार्ग भी संघर्ष मुक्त नहीं रह पायेंगे। अत: व्यक्ति से व्यक्ति, व्यक्ति से समाज, व समाज से राष्ट्र का एकीकरण आवश्यक है।
 
अत: शीघ्र ही व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना होगा। और वह सूत्र राष्ट्रीयता ही हो सकती है। शिक्षक इस चुनोती को स्वीकार करे व शीघ्र ही राष्ट्र का नव निर्माण करने के लिए सिद्ध हो। संभव है की आपके मार्ग में बाधाएं आएँगी, पर शिक्षक को उन पर विजय पानी होगी। और आवश्यकता पड़े तो शिक्षक शस्त्र उठाने में भी पीछे ना हटे।
 
मैं स्वीकार करता हु की शिक्षक का सामर्थ्य शास्त्र है, और यदि मार्ग में शस्त्र बाधक हो और राष्ट्र मार्ग के कंटक सिर्फ शस्त्र की ही भाषा समझते हो तो शिक्षक उन्हें अपने सामर्थ्य का परिचय अवश्य दे। अन्यथा सामर्थ्यहीन शिक्षक अपने शास्त्रों की भी रक्षा नही कर पायेगा। संभव है की इस राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए शिक्षक को सत्ताओ से भी लड़ना पड़े पर स्मरण रहे की सत्ताओ से राष्ट्र महत्वपूर्ण है। राजनैतिक सत्ताओ के हितो से राष्ट्रीय हित महत्वपूर्ण है। अत: राष्ट्र की वेदी पर सत्ताओ की आहुति देनी पड़े तो भी शिक्षक संकोच न करे। इतिहास साक्षी है की सत्ता व स्वार्थ की राजनीति ने इस राष्ट्र का अहित किया है। हमे अब सिर्फ इस राष्ट्र का विचार करना है। यदि शासन सहयोग दे तो ठीक अन्यथा शिक्षक अपने पूर्वजो के पुण्य व कीर्ति का स्मरण कर अपने उतरदायित्व का निर्वाह करने में सिद्ध हो विजय निश्चित है। सप्त सिंधु की संस्कृति की विजय निश्चित है। विजय निश्चित है इस राष्ट्र के जीवन मूल्यों की। विजय निश्चित है इस राष्ट्र की, आवश्यकता मात्र आवाहन की है। – आचार्य चाणक्य
 
हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के साथ आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की तुलना करेंगे तो दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई दिखाई पड़ेगी। गुरुकुल में प्रत्येक विद्यार्थी नैतिक शिक्षा प्राप्त करता था। प्राचीन संस्कृति का यह महत्त्वपूर्ण अंग था। प्रत्येक विद्यार्थी में विनम्रता, आत्मसंयम, आज्ञा-पालन, सेवा और त्याग-भावना, सद्व्यवहार, सज्जनता, शिष्टता तथा अंततः बल्कि अत्यंत प्रमुख रूप से आत्मज्ञान की जिज्ञासा रहती थी। आधुनिक प्रणाली में शिक्षा का नैतिक पक्ष सम्पूर्णतः भुला दिया गया है।
 
शिक्षकों का कर्तव्य-
 
विद्यार्थियों को सदाचार के मार्ग में प्रशिक्षित करने और उनका चरित्र सही ढंग से मोड़ने में स्कूल तथा कॉलेजों के शिक्षकों और प्रोफेसरों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आती है। उनको स्वयं पूर्ण सदाचारी और पवित्र होना चाहिए। उनमें पूर्णता होनी चाहिए। अन्यथा वैसा ही होगा जैसा एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाये। शिक्षक-वृत्ति अपनाने से पहले प्रत्येक शिक्षक को शिक्षा के प्रति अपनी स्थिति की पूरी जिम्मेदारी जान लेनी चाहिए। केवल शुष्क विषयों को लेकर व्याख्यान देने की कला सीखने से ही काम नहीं चलेगा। यही प्राध्यापक की पूरी योग्यता नहीं है।
 
संसार का भावी भाग्य पूर्णतया शिक्षकों और विद्यार्थियों पर निर्भर है । यदि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को ठीक ढंग से सही दिशा में, धार्मिक वृत्ति में शिक्षा दें तो संसार में अच्छे नागरिक, योगी और जीवन्मुक्त भर जायेंगे, जो सर्वत्र प्रकाश, शांति, सुख और आनंद बिखेर देंगे।
 
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