यह इतिहास आपको जानना जरूरी है, भारत के बंटवारे के समय हिंदुओं की क्या हालत थी ?

15 August 2022

Home

🚩शाम की रुपहली किरणें हमारे साथ की सीमा के बाहर झांक रहीं थीं, किन्तु हमारे भाग्य में उन्हें देखना बदा न था। 15 अगस्त से पूर्व तो हम अपने शहर से एक मील स्टेशन तक सैर को जा सकते थे, किन्तु इधर उधर के अप्रत्याशित कत्लों के भय ने हमें वहां से खींच कर शहर से केवल एक फर्लांग की दूरी पर, नहर की पटरी पर ला पटका। सायंकाल के 5 बजते ही लोग 50-60 की टोलियां बना कर नहर की पटरी तक आते। पुल के किनारे पर बैठते। सामाजिक चर्चा करके फिर जेल के कैदी के समान दिया जलने से पूर्व ही लौट आते व अन्धेरा होते ही शहर के चारों दरवाजे बन्द हो जाते थे।

🚩शहर की बनावट ही विचित्र बनाई है। इस जैसा एक रूप में बना शहर और शायद कहीं हो तो हो चौक में खड़ा मनुष्य सारे शहर को एक ही नजर में देख सकता है। गली के बिल्कुल सामने गली। शहर के चारों ओर परकोटा। वह एक ऐसी स्थिति थी जो इस भयानक तम वातावरण में भी हमें शत्रुओं के आक्रमणों से बचाये हुए थी। सारा दिन भय और चिन्ता में बीतता था, तो रात्रि ‘खबरदार और होशियार’ के नारों से गुंजित रहती थी। शत्रु की दृष्टि में हम पूर्णतया अपनी रक्षा में समर्थ और उसे नीचा दिखाने की क्षमता रखते थे। वह तो भगवान् ही जानता है कि हमारी कितनी तैयारी थी और हम कितने पानी में थे।

🚩रोज रक्षा समितियां होती थीं, किन्तु बातों ही बातों में शहर के कर्णधार समय व्यतीत करके अपने घरों को चले जाते थे। इतना कुछ होते हुए भी चन्द एक युवकों के उत्साह से हम स्थानीय मुसलमानों से हार जाने वाले नहीं थे, ऐसी धारणा शत्रु और मित्र पक्ष की थी।

🚩मुसलमानों के श्रम और स्थानीय हिन्दू अधिपतियों की गाढ़ी निद्रा तथा पाकिस्तानी योजना की अर्थ प्रणाली के फलस्वरूप हमारी विपत्ति की एकमात्र रक्षिका हिन्दू सेना भी हमें भगवान् के सहारे छोड़ करके चली गई थी। म्युनिसिपल कमेटी का कार्य अस्त-व्यस्त हो चुका था। पूर्व कार्यकर्ता काम छोड़ बैठे थे। सफाई का तनिक मात्र भी प्रबन्ध नहीं था। खास शहर क्षेत्र भी चलते-फिरते मनुष्यों से भरे नर्ककुण्ड से भी निकृष्टतर हो चुका था। इर्द गिर्द के देहात के अशिक्षित लोगों के आ जाने के कारण सफाई की प्रणाली और भी बिगड़ चुकी थी। वह बच्चों को शौच निवारणार्थ नालियों में ही बिठा देते थे। इन नालियों की सफाई का कार्य भी शहर के प्रतिष्ठित सज्जनों को करना पड़ता था। ऐसी अवस्था को देख करके उस युग की याद आ जाती थी, जबकि स्वर्गीय अमर शहीद बापू अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ अपने हाथों में झाड़ू और सिर पर गन्दगी की टोकरी उठाये सफाई करते दिखाई देते थे। मकानों को साफ करने वाले मुसलमान भंगी एक समय के १) और २) तक वसूल करते थे। जिन्हें दो समय भरपेट भोजन भी दुर्लभ था, वे इस रकम को कैसे भरते ?

🚩ऐसी विकट परिस्थिति थी, सारा शहर पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान आने को कमर कसे बैठा था। हमारा सब सामान पाकिस्तान की सम्पत्ति समझी जाती थी। मुस्लिम नेशनल बोर्ड के लगातार प्रचार के अतिरिक्त भी हमारे घर की नई मशीनें ३५) को बिक रही थीं। कईयों का सौदा तो १५) और २०) पर भी आ निपटता था। साईकल २०) को और सजाने की शीशें वाली मेजें ३) तक को उठ जाती थीं। कुर्सी १), पलंग ५) और ट्रक आठ आने तक में प्रत्येक घर से मिन्नतों और धन्यवादों से मिल जाता था। ख़ालिस घी १) सेर और चीनी तीन आने में बिक रही थी। कपड़ों और गेहूं को लोग गरीबों में मुफ्त बांट करके परम सन्तोष अनुभव करते थे। चारों ओर, “अंधेर नगरी चौपट राजा। टके सेर भाजी टके सेर खाजा।।” का राज्य छाया हुआ था। ऐसी परिस्थिति में भला कौन वहां रहना चाहता।

🚩पहली स्पेशल गाड़ी आ गई, तो जूते की तह से लेकर के पगड़ी के छोर तक सब कुछ टटोला गया। स्त्रियों के गुप्तांगों को भी, स्त्री वेषधारी कामुकों ने तलाशी लेकर हिन्दू शरीरधारी मानव को मुस्लिम वेष में फिरते नर पशु ने तीन ही वस्त्रों में भेजा। इसमें वे करोड़पति भी थे जोकि आज तक भूमि पर पैदल भी न चले थे। आहें लेती और सिसकियां भरती सन्तानों को अपने तीन वस्त्रों में छिपाये भारत की शान देवी पाकिस्तान को हमेशा के लिए प्रणाम करके भारत को चल पड़ी।

🚩दूसरी और तीसरी स्पेशल गाड़ी के बीच शहर में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए। तीसरी स्पेशल के आने से पन्द्रह दिन पूर्व हमारा शहर से निकलना पूर्णतया बन्द हो चुका था। प्रति शुक्रवार शहर में नमाज के लिए हज़ारों मुसलमानों के धड़-धड़ घुस आने पर हमारा सारा दिन मौत की घड़ियां गिनते बीतता था। लोग अपने-अपने तख़्तपोशों पर और गलियों के सिरों पर मोर्चा बना करके बैठे रहते थे। माताएं और बहिनें घर में भगवान् का नाम लेकर के हमारे सकुशल घर पहुंचने की प्रार्थनाएं किया करती थीं। शहर की आधे से अधिक स्त्रियों के पास सांघातिक विष था, जो किसी भी समय आने वाली मुसीबत के समय संकटमोचन का काम देता।

🚩आखिर वह संख्या आ ही पहुंची, जब कि सबने सुना कि कल 3500 मनुष्यों की एक स्पेशल ट्रेन भारत की ओर जावेगी। टिकट बंट गए ताकि लोग अधिज न आ सकें। सारी रात जागकर लोग तैयारी करते रहे क्योंकि आने वाला प्रातःकाल उनके दुःखों को नष्ट करने के हेतु स्वरूप लुभावना दीख रहा था। सारी रात जागते कटी। रात को यह अफ़वाह फैल गई कि कल बैलगाड़ियां और तांगे स्टेशन की ओर नहीं जायेंगे इसलिए सामान जितना संक्षिप्त किया जा सकता था, किया गया। इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती है, वह भी आ ही पहुंची।

🚩प्रातः 5 बजे मुझे चाचा जी ने बुलाया, जो कि कमेटी के प्रधान थें, और कहा- ‘मुझे एक विश्वस्त सूत्र ज्ञात हुआ है कि इस गाड़ी के साथ एक षड्यन्त्र है, अतः तुम मत जाओ।’

🚩‘मैं बच्चों का बिलखना सुन चुका था। दूध उन्हें मिल नहीं रहा था। ताजी सब्जी के दर्शन दुर्लभ थे। मैं टूट चुका था। गली में स्थान-स्थान पर पड़े कूड़े के ढेरों को देखकर प्रति समय हैजा का भय सताता था। शत्रु के आक्रमण की चर्चा और बलोच सेना के मनमाने अत्याचार हमारी दिन और रात की रोटी का रस सुखाये चले जा रहे थे। ऐसी परिस्थिति में मैंने भी उद्दण्ड सन्तान के समान आज्ञा का उल्लंघन करते हुए जवाब दे ही तो दिया, यहां के घुल-घुल करके मरने से रास्ते में ही कहीं पर मर जाना श्रेयस्कर है।’

🚩इस पर चाचा जी ने मुझे आशीर्वाद दिया और कहा ‘भगवान् तुम्हारा भला करे।’ उनकी चरण रज ले करके हम शहर से बाहर निकले। आठ ट्रक और आठ बिस्तरे तीन परिवारों के थे। बैलगाड़ी पर एक मील के ८०) भर कर हम स्टेशन की ओर चले। पहले स्पेशल रात्रि के समय ही पहुंच जाती थी, किन्तु यह 11 बजे दोपहर को आयी। हमने सारी गाड़ी को झांक डाला, किन्तु हिन्दू सेना का निशान कहीं पर भी न मिला।

🚩सेना-नायक अपनी बलोच सेना को रास्ते का प्रोग्राम समझा रहा था और मन अन्दर से धक्-धक् कर रहा था। आने वाला भय मिश्रित समय हमारे अन्दर निराशा का आसव उड़ेल रहा था। मुस्लिम सेना हिन्दू नवयुवकों को जबरन बाहर निकाल-निकाल करके गाड़ी की छत पर बिठा रही थी। उनकी वे हरकतें हमारे अन्दर छिपे भय को और भी बढ़ा रहीं थीं। हम द्विविध में थे। इधर आग और उधर खाई। हम मन मसोड़कर ही बैठे रहे। मुस्लिम सेना के सैनिक अभी अन्दर घुसने को ही थे कि दूर से हमें एक ट्रक आता दिखाई दिया। उनमें से निकलते मरहट्टा सैनिकों के चेहरों को देख करके सबके सूखे मुख-कमल आशा और प्रसन्नता से निखर उठे। हमने समझा बस अब संकट कट गया, किन्तु हमें क्या पता था कि फूलों के नीचे विषधारी सर्प कुण्डली मारे बैठा है। राख के नीचे सुलगती चिंगारी सबको भस्म करने के लिए अभी जल रही हैं। अमृत मुख पट के अन्दर हलाहल विष छिपा पड़ा है।

🚩फिर भी सब प्रसन्न थे। सबके छिपे चेहरे खिड़की के बाहर झांक रहे थे। बच्चे हँस रहे थे और स्त्रियां सुखमयी वार्ता में लीन थीं। कोई डेढ़ बजे के करीब हम शुजाबाद को अन्तिम प्रणाम करके चल पड़े। हमारे मन में जन्मभूमि का प्रेम उमड़ पड़ा। तब बिलख-बिलख कर रो रहे थे और बिस्मिल के वह शब्द गुनगुना रहे थे- ‘दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं,ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं।’

🚩गाड़ी अपना रास्ता तय करती चली जा रही थी। शुजाबाद कि चौथे स्टेशन पर गाड़ी एक घण्टे के लिए रुकी और उसने दिशा परिवर्तन किया। सबने नलकों से पानी भरा। गाड़ी चल पड़ी। प्रत्येक स्टेशन पर सशस्त्र धर्मांध मुस्लिम सैकड़ों और हज़ारों की संख्या में प्लेटफॉर्म पर ठहरे हमारा स्वागत करते थे। वह सचमुच उन जंगली पशुओं के समान दीख रहे थे, जोकि हिंस्रवृत्ति में उलझे हुए अपने सामने शिकार को आता देख करके अपने से अधिक बलवान् को सामने देखकर दांत पीसकर के रह जाते हैं, ठीक वह दशा उनकी थी। इसी तरह करते-कराते हम (साढ़े आठ) 8:30 बजे पाकपटन स्टेशन पर पहुंचे, जहां पर कि हमारे भाग्य का निश्चय होना था।

🚩यहां पर आकर हिन्दू सेना उतर गई और उसकी जगह पर बलोच सेना के सिपाही अपने कंधे पर संगीनों वाली बन्दूकों को लटकाये आ पहुंचे। उनके आगमन के साथ ही स्टेशन पर का सब पानी बन्द हो गया। बच्चे प्यास से कराह उठे। साढ़े 3 घण्टे एडमिन भी स्टेशन से दूर रहा। हमें क्या पता था कि पानी लेने के बहाने वह हमारे खून लेने का षड्यन्त्र रच रहा था। रात के ठीक 12 बज कर पांच मिनिट पर हमारे गाड़ी पाकपटन की सीमा को पार करती हुई, हमारे दुर्भाग्य पर धुआं उड़ाती हुई चल पड़ी। ठीक 12 बज कर दस मिनिट पर पाकपटन और उसमानवाला स्टेशन के बीचों-बीच मिन्ट गुमरी जिले को आबाद करने वाली, हमारे लिए “अल्लाहो अकबर” और “या अली” तथा “काफ़िरों को मारो” का संदेशा लेकर बहने वाली नीलवाह नदी के किनारे पर आकर के हमारी गाड़ी रुक गई। छुरियों, कुल्हाड़ियों, तेगों और दूसरे प्रकार के शस्त्रों का ताण्डव नृत्य होने लगा। हम कोई आधा घण्टा मृत्यु की छत्रछाया में पड़े करवटें बदलते रहें। गाड़ी के किवाड़ों और खिड़कियों के तख़्ते नहीं थे। सबने उनके आगे ट्रंकों और बिस्तरों को रखकर अन्दर से बन्द कर दिया। जिन्होंने आज तक भगवान् का नाम नहीं लिया था, वे भी अविराम गति से “राम”, “कृष्ण” और “ओ३म्” का जाप करने लगे। स्त्रियां, पतियों और बच्चों की सलामती की मनौतियां मना रही थीं। चंद स्वार्थी नरपिशाच यहां पर भी रक्षा के नाम पर चोर बाजारी धन बटोर रहे थे। हमें बाहरी दुनिया का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। हम तो केवल यही जानते थे कि 12 बजकर 30 मिनिट पर गाड़ी चली और उसमानवाला स्टेशन पर पहुंची, जहां पर कि सुबह छः बजे तक ठहरी रही। वह साढ़े 5 घण्टे हमारे उस कैदी के समान गुज़र रहे थे, जिनको किसी समय भी फांसी की सजा मिल जाये। यहां पर आकर हमें पता चला कि हमारी गाड़ी के तीन छकड़ों के आदमी बिल्कुल समाप्त कर दिए गए हैं।

🚩पशुता का ताण्डव मेरे पास एक बच्चा आया, जिसकी आयु 5 वर्ष थी। वह प्लेटफॉर्म पर मेरा नाम लेकर चिल्ला रहा यह। जब उसे मेरे पास पहुंचाया गया, तो वह रो रहा था। उसकी सिसकियों में एक करुण क्रन्दन था- ‘मेरे माता-पिता मर गये हैं, मेरे भाईयों और बहिनों को किसी ने कुल्हाड़ी से काट डाला है।’ कितना मर्मस्पर्शी दृश्य था वह, जिसे देखकर वहां पर बैठी सभी स्त्रियां फफक फफक कर रो रही थीं। हम उसे धैर्य बंधा रहे थे किन्तु हमारी आंखें गंगा-जमुना बन रही थीं।

🚩जाको राखे साइयां इसी प्रकार एक घटना अगले छकड़े में गुजरी। एक लड़की जिसकी आयु 14 वर्ष की थी दौड़ती हुई चिल्ला रही थी ‘भगवान् मुझे बचाओ।’ चन्द नवयुवकों ने उसे गाड़ी में खींच लिया। वह नंगी थी, उसे कपड़े दिए गए। उसके मुख पर एक निशान था, जो जबरदस्ती लड़कर छूटने में हुआ था। चन्द कामुक मुसलमानों के चुम्बन का घाव उसके मुख पर था, जिससे खून निकल रहा था।

🚩6 बजे हमारी गाड़ी चली और दोपहर को निर्विघ्न कसूर पहुंच गई। वहीं भारत और पाकिस्तान से आने वाली गाड़ियों का अड्डा था उसमानवाला और कसूर के बीच सही सलामत यात्रा करने का श्रेय हम अपने शहर के तहसीलदार और एक राना शफ़ी अहमद को देते हैं, जिन्होंने पाकपटन से कसूर इस आशय का तार दे दिया था कि ‘हमने सारी गाड़ी नष्ट कर दी है’। उसमानवाला स्टेशन पर छः घण्टे की रुकावट ने हमें उस सारे प्रोग्राम से बचा दिया, जो कि रास्ते में हमारे विनाश की घड़ियां गिन रहा था। ‘जाको राखे साइयां मार सके न कोय’ फिर भी हम 3500 मनुष्यों में से 600 को गवां करके अश्रुओं का हार पहिने कसूर पहुंचे।

🚩वहां पर भी भाग्य हम पर अठखेलियां कर रहा था। 2 बजे दोपहर को कोई 5000 सशस्त्र आक्रान्ताओं ने हम पर हमला कर दिया। इनके साथी 137 बलोच सैनिक भी थे जिनके पास युद्ध का सब आधुनिक सामान था। हमारे साथी थे भगवन् और 36 मरहट्टे सैनिक, जिन्होंने दो की आहुति देकर के हमारी रक्षा की। यहां पर हमारे 150 आदमी मरे। छः घण्टे लगातार हम गोलियों की बौछार के नीचे पड़े रहे। हमें दुनिया की सुध-बुध नहीं थी। हम अपना नाता उस परब्रह्म से छोड़ चुके थे जिससे मिलाने के लिए यह गोलियां हमारे ऊपर साय साय करके चल रही थीं। रात भी सर पर आ पहुंची। आक्रमणकर्ता वापिस चले गये। हम भी अन्धकारमयी रजनी में मुर्दों को सिरहाना बना कर लहू की शैय्या पर पड़े रहे। इसका भान हमें तब हुआ, जब कि हम प्रात:काल जागे और अपने सारे वस्त्रों को लहू में घिरा देखा। बरबस मेरे मुख से निकला- “दुर्भाग्य! कभी तो सफेद वस्त्र पर दो धब्बे खून के देखकर न्यायाधीश मनुष्य को फांसी पर चढ़ा देता था, और कहां आज खून से हम चारों ओर लिपटे हुए हैं। किन्तु न्याय नदारद!”

🚩प्रातः 7 बजे ट्रक आये, जो हमें सतलुज से पार भारत की सरहद में ले गये हमने दस माह के बाद अपने मुख से नारा लगाया- “हिन्दुस्तान, जिन्दाबाद” लेखक : श्री इन्द्रकुमार विद्यार्थी,प्रस्तुत : प्रियांशु सेठ [‘वीर अर्जुन’ (साप्ताहिक) के १९४८ अंक से साभार]

🚩इस लेख पढ़ने के बाद भी अपने देश की संस्कृति व देशहित में कार्य नही करता है तो फिर उनका जीना भी बेकार है, देश को तोड़ने वाली ताकतों से अपने देश को बचाने के लिए हर हिंदुस्तानी सतर्क रहें।

🔺 Follow on

🔺 Facebook
https://www.facebook.com/SvatantraBharatOfficial/

🔺Instagram:
http://instagram.com/AzaadBharatOrg

🔺 Twitter:
twitter.com/AzaadBharatOrg

🔺 Telegram:
https://t.me/ojasvihindustan

🔺http://youtube.com/AzaadBharatOrg

🔺 Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

Translate »