नवंबर 24 का इतिहास हिंदुस्तानी कभी भूलें नहीं…

23 नवम्बर 2021

azaadbharat.org

🚩हिन्दुस्तान में मुगल बादशाह औरंगजेब का शासनकाल था। औरंगजेब ने यह हुक्म किया कि कोई हिन्दू राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाय तथा हिन्दुओं पर जजिया (कर) लगा दिया जाय। उस समय अनेकों नये कर केवल हिन्दुओं पर लगाये गये। इस भय से अनेकों हिन्दू मुसलमान हो गये। हर ओर जुल्म का बोलबाला था। निरपराध लोग बंदी बनाये जा रहे थे। प्रजा को स्वधर्म-पालन की भी आजादी नहीं थी। जबरन धर्म-परिवर्तन कराया जा रहा था। किसी का भी धर्म, जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं रह गयी थी। पाठशालाएँ बलात् बन्द कर दी गयीं।

🚩हिन्दुओं के पूजा-आरती तथा अन्य सभी धार्मिक कार्य बंद होने लगे। मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवायी गयीं एवं अनेकों धर्मात्मा मरवा दिये गये। सिपाही यदि किसी के शरीर पर यज्ञोपवीत या किसी के मस्तक पर तिलक लगा हुआ देख लें तो शिकारी कुत्तों की तरह उनपर टूट पड़ते थे। उसी समय की उक्ति है कि रोजाना सवा मन यज्ञोपवीत उतरवाकर ही औरंगजेब रोटी खाता था…
उस समय कश्मीर के कुछ पंडित निराश्रितों के आश्रय, बेसहारों के सहारे गुरु तेगबहादुरजी के पास मदद की आशा और विश्वास से पहुँचे।
पंडित कृपाराम ने गुरु तेगबहादुरजी से कहा: ‘‘सद्गुरुदेव! औरंगजेब हमारे ऊपर बड़े अत्याचार कर रहा है। जो उसके कहने पर मुसलमान नहीं हो रहा, उसका कत्ल किया जा रहा है। हम उससे छः माह की मोहलत लेकर हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए आपकी शरण आये हैं। ऐसा लगता है, हममें से कोई नहीं बचेगा। हमारे पास दो ही रास्ते हैं- ‘धर्मांतरित हो जाना या सिर कटाना।’

🚩पंडित धर्मदास ने कहा: ‘‘सद्गुरुदेव! हम समझ रहे हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है। फिर भी हम चुप हैं और सब कुछ सह रहे हैं। कारण भी आप जानते हैं। हम भयभीत हैं, डरे हुए हैं। अन्याय के सामने कौन खड़ा हो?’’
‘‘जीवन की बाजी कौन लगाये?’’ गुरु तेगबहादुर के मुँह से अस्फुट स्वर में निकला। फिर वे गुरुनानक की पंक्तियाँ दोहराने लगे-
जे तउ प्रेम खेलण का चाउ। सिर धर तली गली मेरी आउ।।
इत मारग पैर धरो जै। सिर दीजै कणि न कीजै।।
गुरु तेगबहादुर का स्वर गंभीर होता जा रहा था। उनकी आँखों में एक दृढ़ निश्चय के साथ गहरा आश्वासन झाँक रहा था। वे बोले: ‘‘पंडितजी! यह भय शासन का है। उसकी ताकत का है, पर इस बाहरी भय से कहीं अधिक भय हमारे मन का है। हमारी आत्मिक शक्ति दुर्बल हो गयी है। हमारा आत्मबल नष्ट हो गया है। इस बल को प्राप्त किये बिना यह समाज भयमुक्त नहीं होगा। बिना भयमुक्त हुए यह समाज अन्याय और अत्याचार का सामना नहीं कर सकेगा।’’
पंडित कृपाराम: ‘‘परन्तु सद्गुरुदेव। सदियों से विदेशी पराधीनता और आन्तरिक कलह में डूबे हुए इस समाज को भय से छुटकारा किस तरह मिलेगा?’’
गुरु तेगबहादुर: ‘‘हमारे साथ सदा बसनेवाला परमात्मा ही हमें वह शक्ति देगा कि हम निर्भय होकर अन्याय का सामना कर सकें।’’

🚩उनके मुँह से शब्द फूटने लगे :
पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ। कहु नानक तिह जानिए सदा बसत तुम साथ।।
इस बीच नौ वर्ष के बालक गोबिन्द भी पिता के पास आकर बैठ गये।

🚩गुरु तेगबहादुर: “अँधेरा बहुत घना है। प्रकाश भी उसी मात्रा में चाहिए। एक दीपक से अनेक दीपक जलेंगे। एक जीवन की आहुति अनेक जीवनों को इस रास्ते पर लायेगी।”
पं. कृपाराम: ‘‘आपने क्या निश्चय किया है, यह ठीक-ठीक हमारी समझ में नहीं आया। यह भी बताइये कि हमें क्या करना होगा?’’

🚩गुरु तेगबहादुर मुस्कराये और बोले: ‘‘पंडितजी! भयग्रस्त और पीड़ितों को जगाने के लिए आवश्यक है कि कोई ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का बलिदान दे, जिसके बलिदान से लोग हिल उठें, जिससे उनके अंदर की आत्मा चीत्कार कर उठे। मैंने निश्चय किया है कि समाज की आत्मा को जगाने के लिए सबसे पहले मैं अपने प्राण दूँगा और फिर सिर देनेवालों की एक शृंखला बन जायेगी। लोग हँसते-हँसते मौत को गले लगा लेंगे। हमारे लहू से समाज की आत्मा पर चढ़ी कायरता और भय की काई धुल जायेगी और तब…’’
‘‘और तब शहीदों के लहू से नहाई हुई तलवारें अत्याचार का सामना करने के लिए तड़प उठेंगी।’’
यह बात बालक गोबिंद के मुँह से निकली थी। उन सरल आँखों में भावी संघर्ष की चिनगारियाँ फूटने लगी थी।

🚩तब गुरु तेगबहादुरजी का हृदय द्रवीभूत हो उठा। वे बोले: ‘‘जाओ, तुमलोग बादशाह से कहो कि हमारा पीर तेगबहादुर है। यदि वह मुसलमान हो जायें तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।’’
पंडितों ने यह बात कश्मीर के सूबेदार शेर अफगान को कही। उसने यह बात औरंगजेब को लिख कर भेज दी। तब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया। उनके शिष्य मतिदास, दयालदास और सतीदास से औरंगजेब ने कहा: ‘‘यदि तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिये जाओगे।’’

🚩मतिदास: ‘‘शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता।’’
तब औरंगजेब ने मतिदास को आरे से चीरने का हुक्म दे दिया। भाई मतिदास के सामने जल्लाद आरा लेकर खड़े दिखाई दे रहे थे। उधर काजी ने पूछा: ‘‘मतिदास तेरी अंतिम इच्छा क्या है?’’

🚩मतिदास: ‘‘मेरा शरीर आरे से चीरते समय मेरा मुँह गुरुजी के पिंजरे की ओर होना चाहिए।’’
काजी : ‘‘यह तो हमारा पहले से ही विचार है कि सब सिक्खों को गुरु के सामने ही कत्ल करें।’’
भाई मतिदासजी को एक शिकंजे में दो तख्तों के बीच बाँध दिया गया। दो जल्लादों ने आरा सिर पर रखकर चीरना शुरू किया। उधर भाई मतिदासजी ने ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ शुरू कर दिया। उनका शरीर दो टुकड़ों में कटने लगा। चौक को घेरकर खड़ी विशाल भीड़ फटी आँखों से यह दृश्य देखती रही।
दयालदास बोले: ‘‘औरंगजेब ! तूने बाबरवंश को एवं अपनी बादशाहियत को चिरवाया है।’’
यह सुनकर औरंगजेब ने दयालदास को गरम तेल में उबालने का हुक्म दिया । उनके हाथ-पैर बाँध दिये गये। फिर उन्हें उबलते हुए तेल के कड़ाह में डालकर उबाला गया। वे अंतिम श्वास तक ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। जिस भीड़ ने यह नजारा देखा, उसकी आँखें पथरा-सी गयीं।
तीसरे दिन काजी ने भाई सतीदास से पूछा: ‘‘क्या तुम्हारा भी वही फैसला है?’’

🚩भाई सतीदास मुस्कराये: ‘‘मेरा फैसला तो मेरे सद्गुरु ने कब का सुना दिया है।’’
औरंगजेब ने सतीदास को जिंदा जलाने का हुक्म दिया। भाई सतीदास के सारे शरीर को रूई से लपेट दिया गया और फिर उसमें आग लगा दी गयी। सतीदास निरन्तर ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। शरीर धू-धूकर जलने लगा और उसीके साथ भीड़ की पथराई आँखें पिघल उठीं और वह चीत्कार कर उठी।
अगले दिन मार्गशीर्ष पंचमी संवत् सत्रह सौ बत्तीस (24 नवम्बर सन् 1675) को काजी ने गुरु तेगबहादुर से कहा: ‘‘ऐ हिन्दुओं के पीर! तीन बातें तुमको सुनाई जाती हैं। इनमें से कोई एक बात स्वीकार कर लो। वे बातें हैं:

🚩(1) इस्लाम कबूल कर लो।

🚩(2) करामात दिखाओ।

🚩(3) मरने के लिए तैयार हो जाओ।’’

🚩गुरु तेगबहादुर बोले: ‘‘तीसरी बात स्वीकार है।’’
बस, फिर क्या था! जालिम और पत्थरदिल काजियों ने औरंगजेब की ओर से कत्ल का हुक्म दे दिया। चाँदनी चौक के खुले मैदान में विशाल वृक्ष के नीचे गुरु तेगबहादुर समाधि में बैठे हुए थे।
जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवार लेकर खड़ा था। कोतवाली के बाहर असंख्य भीड़ उमड़ रही थी। शाही सिपाही उस भीड़ को काबू में रखने के लिए डंडों की तीव्र बौछारें कर रहे थे। शाही घुड़सवार घोड़े दौड़ाकर भीड़ को रौंद रहे थे। काजी के इशारे पर गुरु तेगबहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। चारों ओर कोहराम मच गया।
तिलक जझू राखा प्रभ ताका। कीनों वडो कलू में साका।।
धर्म हेत साका जिन काया। सीस दीया पर सिरड़ न दिया।।
धर्म हेत इतनी जिन करी। सीस दिया पर सी न उचरी।।

🚩धन्य हैं ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने धर्म में अडिग रहने के लिए एवं दूसरों को धर्मांतरण से बचाने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की भी बलि दे दी।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है। (श्रीमद्भगवद्गीता: 3.35)

🚩भगवत्प्राप्त महापुरुष परमात्मा के नित्य अवतार हैं। वे नश्वर संसार व शरीर की ममता को हटाकर शाश्वत परमात्मा में प्रीति कराते हैं। कामनाओं को मिटाते हैं। निर्भयता का दान देते हैं। साधकों-भक्तों को ईश्वरीय आनन्द व अनुभव में सराबोर करके जीवन्मुक्ति का पथ प्रशस्त करते हैं।

🚩ऐसे उदार हृदय, करुणाशील, धैर्यवान सत्पुरुषों ने ही समय-समय पर समाज को संकटों से उबारा है। इसी शृंखला में गुरु तेगबहादुरजी हुए हैं जिन्होंने बुझे हुए दीपकों में सत्य की ज्योति जगाने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए, भारत को क्रूर, आततायी, धर्मान्ध राज्य-सत्ता की दासता की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर दिया।

(संत श्री आशारामजी आश्रम से प्रकाशित ‘बाल संस्कार केन्द्र पाठ्यक्रम’ पुस्तक से)

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