गुरू हरगोबिन्द ने धर्म व राष्ट्र की रक्षा के लिए भक्ति और शूरवीरता का पाठ पढ़ाया

17 जून 2019
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🚩गुरू हरगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे । साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है । गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा-दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई । गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा । छठे गुरु ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था । विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया । अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई ।

🚩बदलते हुए हालातों के मुताबिक गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की । वह महान योद्धा भी थे । विभिन्न प्रकार के शस्त्र चलाने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था । गुरु हरगोबिन्दसाहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था । वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने । वह अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोड़ना चाहते थे । गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई । यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड़ लेता है । गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड़ देते हैं । इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने । गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोड़े देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियों ने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की । लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा । गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढ़ने लगे।
🚩धोखे से जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया । इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे । गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे । महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे । जहांगीर की पत्‍‌नी नूरजहांमीयांमीर की सेविका थी । इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया । बाबा बुड्डा व भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया।
🚩जहांगीर ने गुरु जी को कैद से बाहर तो किया, लेकिन गुरुजी बोले उन 52 राजाओं को भी मुक्त करिये फिर जहांगीर ने उन 52 राजपूत राजाओं को भी मुक्त कर दिया । इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा बन्दी छोड़ है।
🚩संवत् 1684 में जहाँगीर की मृत्यु हुई । उसका बड़ा पुत्र शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठा । शाहजहाँ की सेना के साथ गुरु हरगोविंदसिंहजी के चार युद्ध हुए । प्रत्येक युद्ध में यवनों की सेना कई गुना ज्यादा होते हुए भी विजय गुरु हरगोविंदसिंहजी की ही हुई ।
🚩गुरुजी युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे । उनके पास बड़ी सैन्य शक्ति नहीं थी फिर भी मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे । गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी ।
🚩सन्‌ 1688 में नदौन का युद्ध हुआ जो जम्मू के नवाब अलफ खाँ के साथ हुआ था । सन्‌ 1689 में पहाड़ी नवाब हुसैन खाँ ने गुरुजी से युद्ध छेड़ दिया, जिसमें गुरुजी की जीत हुई । सन्‌ 1699 को वैशाखी वाले दिन गुरुजी ने केशगढ़ साहिब में पंच पियारों द्वारा तैयार किया हुआ अमृत सबको पिलाकर खालसा पंथ की नींव रखी ।
🚩खालसा का मतलब है वह सिक्ख जो गुरु से जुड़ा है। वह किसी का गुलाम नहीं है, वह पूर्ण स्वतंत्र है। सन्‌ 1700 से 1703 तक आपने पहाड़ी राजाओं से आनंदपुर साहिब में चार बड़े युद्ध किए व हर युद्ध में विजय प्राप्त की । पहाड़ी राजाओं की प्रार्थना पर गुरुजी को पकड़ने के लिए औरंगजेब ने सहायता भेजी ।
🚩मई सन्‌ 1704 की आनंदपुर की आखिरी लड़ाई में मुगल फौज ने आनंदपुर साहिब को 6 महीने तक घेरे रखा। अंत में गुरुजी सिक्खों के बहुत मिन्नतें करने पर अपने कुछ सिक्खों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़कर चले गए।
🚩सिरसा नदी के किनारे एक भयंकर युद्ध हुआ, इसमें दो छोटे साहिबजादे माता रूजरी बिछुड़ गए । 22 दिसंबर सन्‌ 1704 में ‘चमकौर का युद्ध’ नामक ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें 40 सिक्खों ने 10 लाख फौज का सामना किया । इस युद्ध में बड़े साहिबजादे अजीतसिंह और जुझारसिंहजी शहीद हुए ।
🚩अंतिम युद्ध संवत् 1704 के बाद उन्होंने अपना निवास-स्थान कीर्तिपुर में बना लिया एवं दूर-दूर जाकर सिक्ख धर्म का प्रचार किया । कश्मीर, पीलीभीत, बार और मालवा देशों में जाकर लाखों लोगों को आपने मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर किया । आप अनेकों मुसलमानों को सिक्खी-मण्डल में ले आये एवं देश-देशांतरों में उदासी प्रचारकों को भेजकर श्रीगुरु नानकदेवजी का झंडा फहराया ।
🚩गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्व से एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है।
🚩गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी बहुत परोपकारी योद्धा थे। उनका जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुड़ा हुआ था । यही कारण है कि उनके समय में गुरमतिदर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा । श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण होने जा रहा था।
🚩गुरु जी के इन अथक प्रयत्‍‌नों के कारण सिख परम्परा नया रूप भी ले रही थी तथा अपनी विरासत की गरिमा को पुन:नए सन्दर्भो में परिभाषित भी कर रही थी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब की चिन्तन की दिशा को नए व्यावहारिक अर्थ दे रहे थे। वास्तव में यह उनकी आभा और शक्ति का प्रभाव था। गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्वका गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पड़ने लगा था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई। गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे।
🚩गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिक्ख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोड़ा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था । सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा ।
🚩गुरु जी कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समाए।
गुरुद्वारा पातालपुरीगुरु जी की याद में आज भी हजारों व्यक्तियों को शान्ति का संदेश देता है। भाई गुरुदास ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब की गौरव गाथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है: पंज पिआलेपंजपीर छटम्पीर बैठा गुर भारी, अर्जुन काया पलट के मूरत हरगोबिन्दसवारी,
चली पीढीसोढियांरूप दिखावनवारो-वारी,
दल भंजन गुर सूरमा वडयोद्धा बहु-परउपकारी॥ 
🚩संवत् 1704 में चैत्र शुक्ल पक्ष 5 तदनुसार 3 मार्च 1644 को आपने अपने योग्य पोते श्री हरिरायजी को गुरुगद्दी सौंपकर परलोकगमन किया ।
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