🚩कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं — आज यह सामाजिक रूप से क्यों अनिवार्य हो गया है
✴️25 दिसंबर से 31 दिसंबर के बीच का समय अब केवल साल के अंतिम दिन नहीं रह गया है, बल्कि यह भारत जैसे देश में एक सामाजिक संकट के कालखंड के रूप में उभरता जा रहा है। इन कुछ दिनों में जो घटनाएँ सामने आती हैं, वे यह सोचने को मजबूर करती हैं कि समस्या केवल किसी एक तारीख की नहीं, बल्कि उस सोच की है जो विदेशी उत्सव-संस्कृति के अंधानुकरण से जन्म ले रही है। यही वह बिंदु है जहाँ “कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” का विचार अत्यंत आवश्यक और प्रासंगिक हो जाता है।
✴️ हर वर्ष इस अवधि में समाचार पत्रों, पुलिस रिपोर्टों और अस्पतालों के आँकड़ों में एक समान पैटर्न दिखाई देता है। शराब के नशे में वाहन चलाने से होने वाली सड़क दुर्घटनाएँ अचानक बढ़ जाती हैं। कई युवा, जो पूरे वर्ष संयमित जीवन जीते हैं, केवल “न्यू ईयर सेलिब्रेशन” के दबाव में पहली बार शराब पीते हैं। आधी रात के बाद सड़कों पर तेज़ रफ्तार, नियंत्रण खो चुके वाहन, और लापरवाह निर्णय अनेक परिवारों की खुशियाँ हमेशा के लिए छीन लेते हैं। यह सब किसी त्योहार की स्वाभाविक परिणति नहीं, बल्कि उस संस्कृति का परिणाम है जिसमें नशे और उन्माद को उत्सव का पर्याय बना दिया गया है।
✴️इसी समय महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, सार्वजनिक झगड़े, हिंसा और कानून-व्यवस्था की समस्याएँ भी बढ़ती हैं। पुलिस बल को विशेष अलर्ट पर रखा जाता है, अस्पतालों में आपातकालीन सेवाएँ बढ़ानी पड़ती हैं, और प्रशासन पहले से जानता है कि 31 दिसंबर की रात सामान्य नहीं होगी। यह अपने-आप में एक गंभीर प्रश्न खड़ा करता है—यदि कोई “उत्सव” पहले से ही अव्यवस्था और खतरे का संकेत बन जाए, तो क्या उसे वास्तव में उत्सव कहा जा सकता है?
✴️इस पूरी स्थिति का सबसे चिंताजनक पहलू युवाओं पर पड़ने वाला प्रभाव है। बाज़ार और मीडिया के माध्यम से यह धारणा बना दी गई है कि यदि 31 दिसंबर की रात पार्टी नहीं की, शराब नहीं पी और आधी रात तक जागकर शोर-शराबा नहीं किया, तो मानो जीवन का कोई महत्वपूर्ण अवसर छूट गया। यह दबाव युवाओं को अपने स्वभाव, संस्कार और विवेक के विरुद्ध जाने के लिए प्रेरित करता है। धीरे-धीरे उनके मन में यह बैठ जाता है कि भारतीय पर्व “पुराने ज़माने की बातें” हैं और आधुनिक होने का अर्थ पश्चिमी शैली का अनुकरण है। यहीं से सांस्कृतिक विस्मृति की प्रक्रिया शुरू होती है।
🚩भारतीय संस्कृति में उत्सव का अर्थ कभी भी उन्माद नहीं रहा। यहाँ पर्व जीवन को संतुलित करने के लिए हैं, बिगाड़ने के लिए नहीं। हमारे अधिकांश त्योहार दिन में, परिवार और समाज के साथ, संयम और उल्लास के संतुलन में मनाए जाते हैं। उनका संबंध ऋतु परिवर्तन, कृषि चक्र और सामूहिक मंगल से होता है। इसके विपरीत, 31 दिसंबर की रात का उत्सव न प्रकृति से जुड़ा है, न समाज से; वह केवल उपभोग और क्षणिक उत्तेजना पर आधारित है। यही कारण है कि उसके बाद थकान, खालीपन और कई बार पछतावा भी सामने आता है।
यह भी समझना आवश्यक है कि समस्या किसी एक विदेशी कैलेंडर के उपयोग की नहीं है। प्रशासन, व्यापार और वैश्विक संपर्क के लिए अलग कैलेंडर का उपयोग व्यावहारिक आवश्यकता हो सकती है। वास्तविक समस्या तब उत्पन्न होती है जब उसी कैलेंडर के साथ-साथ मूल्य, आचरण और उत्सव की शैली भी बिना सोचे-समझे अपना ली जाती है। जब संस्कृति भी कैलेंडर के साथ बदलने लगती है, तब समाज में असंतुलन पैदा होता है।
📆“कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” का सार यही है कि आधुनिक व्यवस्था अपनाते हुए भी अपने सामाजिक मूल्यों की रक्षा की जाए। यदि हम उत्सव को फिर से संयम, परिवार और सकारात्मकता से जोड़ें, यदि युवाओं को यह बताया जाए कि आनंद नशे के बिना भी संभव है, और यदि भारतीय नववर्ष तथा पारंपरिक पर्वों को गर्व और चेतना के साथ मनाया जाए, तो समाज अपने-आप अधिक सुरक्षित और संतुलित बन सकता है।
✴️आज 25 से 31 दिसंबर के बीच बढ़ती दुर्घटनाएँ, अपराध और सांस्कृतिक विचलन एक चेतावनी हैं। यह संकेत हैं कि केवल तारीख बदलने से जीवन बेहतर नहीं होता; जीवन बेहतर होता है सही संस्कृति अपनाने से। यदि हमें सुरक्षित युवा, सशक्त परिवार और स्थिर समाज चाहिए, तो यह अनिवार्य है कि हम उत्सव के नाम पर थोपे गए उन्माद पर पुनर्विचार करें और अपनी संस्कृति को केवल याद न रखें, बल्कि जिएं। यही आज के समय में “कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” का वास्तविक और अपरिहार्य अर्थ है।
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