हिन्दू द्वेष व भारत विभाजन की कार्यशाला- जे एन यू

08 अगस्त 2019
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🚩ाहरलाल नेहरु िश्िद्यालय में 370 हटाने पर आधी रात में देशिरोधी नारे लगे थे ऐसा मीडिया में आया था और कुछ समय पूर् भी देश िरोधी नारे लगे थे । ऐसी और भी कई घटनाएं मीडिया में आईं । जो देश  हिन्दू िरोधी कार्य JNU में हुआ है इसके पीछे का रहस्य क्या है े आप जानिए।

🚩बौद्धिक कर्म के लिए ‘अकाश’ एक प्राथमिक शर्त है I इसी अकाश को प्रदान करने के लिए एक आदर्श, कृत्रिम परिेश की रचना करने हेतु जाहरलाल नेहरु िश्िद्यालय कीपरिकल्पना की गयी I जे एन यू द्ारा परिसर के अंदर ही सस्ती एं रियायती भोजन, आास एं अध्ययन की सुिधा उपलब्ध है। यह सब भारत सरकार द्ारा उपलब्ध ित्तीय सहायता से संभ हुआ I कालांतर में गारंटी कृत ‘अकाश’ की परिणिति से एक ‘कृत्रिम पारिस्थितिकी’ या ‘कैम्पस-हैबिटस’ (Campus-Habitus) की रचना हुई है, जो कि ऐसी िचार प्रक्रिया में छात्र-समुदाय के ‘सामाजीकरण’ को बढ़ाा देने के लिये अनुकूल है, जो ास्तिकता में सभी सुिधाओं के लिए भारतीय राज्य पर निर्भरता को एक कृत्रिम परिस्थिति न समझ कर स्भािक िशेषाधिकार (या नैसर्गिक िधान) समझता है. समस्त संसाधनों के लिए राज्य पर निर्भरता, “समाजाद” की आड़ में अंततोगत्ा “राजकीय पूंजीाद” है, और यही िचारधारा अपने अतिादी अतार “माओाद” के रूप में प्रकट होती है। इस तरह के ैचारिक दृष्टिकोण का ‘परम लक्ष्य’, किसी भी प्रकार के साधन से ‘राज्य’ पर अपना कब्जा करना होता है।
🚩भारतीय सन्दर्भ में ऐसा ैचारिक दृष्टिकोण ‘हिन्दूद्वेष’ तथा ‘भारत-तोड़ो’ अभियान के रूप में अपघटित हो जाता है, और ऐसा दो ऐतिहासिक कारणों से संभ हुआ है । प्रथम कारण था नेहरु एं उनके उत्तराधिकारियों का सोियत मॉडल की तथाकथित समाजादी अर्थ-्यस्था को भारत में लागू करने का निर्णय, एं सोियत ब्लाक से उनकी घनिष्ठता । इस कारण अकादमिक संस्थानों के ‘उत्पाद’ जो नेहरु एं इंदिरा के राजनितिक एं आर्थिक कार्यक्रम को एक ैचारिक कलेर पहना सकें, ‘समाजादी’ िचारधारा की फैक्ट्री के रूप में उच्च-शिक्षण एं शोध संस्थाओं को बढ़ाा दिया गया । यहाँ गौर करने की बात यह है कि भले ही साम्यादी/समाजादी िचारधारा के पक्षधर जो चाहे एक राजनितिक दल के रूप में कांग्रेस का िरोध करें या उनके अन्य िचलन ाले रूप (नक्सली, माओादी) एक अतिादी आन्दोलन के रूप में भारतीय राज्य से लड़ते हों, परन्तु भारतीय घरेलु राजनीति में कांग्रेसी राजनीति (िभिन्न र्गों को राष्ट्रीय-हित की कीमत पर तुष्टिकरण करने की नीति तथा ‘निर्धनतााद’  राज्याश्रित रख कर प्रश्रय की बंदरबांट) को प्रति-संतुलित करनेाली सांस्कृतिक  सामाजिक शक्तियों (यथा राष्टादी शक्तियां जो तुष्टिकरण की नीति की िरोधी हैं, तथा, मनो-ैज्ञानिक, अध्यात्मिक, सामाजिक स्लंबन की पक्षधर रही हैं ), से अँध-घृणा, अंततः साम्यादियों/समाजादियों को राजनैतिक दृष्टि से कांग्रेस को ही परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देने पर िश करती हैं ।
🚩और ‘हिन्दूद्वेष’  ‘भारत तोड़ो’ अभियान में साम्यादियों/समाजादियों के अपघटन का दूसरा ऐतिहासिक कारण स्यं साम्यादी/समाजादी िचारधारा की दुर्बलता एं अन्तर्िरोध से उपजा है. राज्य-नियंत्रित अर्थ्यस्था एं िशाल-नौकरशाही तंत्र के इस्पाती ढांचे से उत्पन्न गतिरोध, निम्न-उत्पादकता  निम्न-कार्यकुशलता के बोझ से सोियत-मॉडल धराशायी हो गया । नब्बे का दशक आते-आते ामपंथ  समाजाद का किला, िश् में दो-ध्रुीय ्यस्था का एक स्तम्भ सोियत-संघ ध्स्त हो गया । भारत में भी राज्य-नियंत्रित अर्थ्यस्था से खुली अर्थ्यस्था की ओर दिशा-परिर्तन करने का कारण भी निम्न-उत्पादकता  निम्न-कार्यकुशलता ही थी । कुछ अंशों में राजी गाँधी की आर्थिक नीति  नरसिम्हा रा के अंतर्गत कांग्रेस द्ारा अपनाई गयी नीतियों के मूल में यही तत् प्रधान रहे । यह भारत में भू-मंडलीकरण की शुरुआत कही जाती है। साम्यादियों के लिए यह ैचारिक  राजनितिक पराजय थी ।
🚩भारतीय सन्दर्भ में साम्यादियों को राजनितिक दल के रूप में अन्तराष्ट्रीय समर्थन के िलोप होने से केल घरेलू राजनीतिक गुणा-भाग तक सीमित कर दिया । इस बीच घरेलू राजनीति में राजनीतिक शक्ति-संतुलन में आये परिर्तनों ने उन्हें राष्ट्रादी शक्तियों के उभार से कमजोर हुयी कांग्रेस को समर्थन देने की राजनीति या फिर कांग्रेस से इतर, ‘अस्मिता’ की राजनीति से उभरे दलों से तालमेल करने के दो भिन्न-ध्रुों में डोलने के लिए िश कर दिया. अस्मिताओं के आन्दोलनों के जोर पकड़ने पर साम्यादियों/समाजादियों को भी अपने राजनितिक नारे को “क्लास-स्ट्रगल” यानि “र्ग-संघर्ष” से बदलकर “कास्ट-स्ट्रगल” यानि “र्ण-संघर्ष” में परिर्तित करना पड़ा. अब उन्होंने एक नयी प्रतिस्थापना दी कि भारतीय सन्दर्भ में “र्ण” अथा “जाति-िभेद” ही सही अर्थों में “र्ग-िभेद” है, और इस तथ्य को न समझ पाने के कारण ही उनका राजनीतिक पराभ हुआ है. ठीक यही निष्कर्ष साम्यादी/समाजादी राजनितिक दलों के रूप में “क्रान्तिकारी” परिर्तन लाने में अपनी असफलता से निराश ामपंथी-अतिादी, हिंसक, भूमिगत आन्दोलन चलाने निकल पड़े ाम-समूहों ने भी निकाला. अस्मिता की राजनीति ने भारतीय संिधान  राज-्यस्था द्ारा नागरिक-अधिकारों के संरक्षण हेतु सृजित कोटियों (यथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा र्ग) को अपरिर्तनीय एं परस्पर संघर्षरत नस्ली समूहों (यथा “दलित”, “आदिासी, “बहुजन”, “मूलनिासी” इत्यादि) के अर्थों में रूढ़ कर दिया ।
🚩परन्तु क्या ास्त में “अस्मिता” की राजनीति बिना किसी ैश्िक राजनितिक सन्दर्भ के भारत में अचानक से हाी हो गयी ? और क्या यह राजनीति, एक-ध्रुीय, अमेरिकी र्चस्ाली निर्बाध-अर्थ्यस्था ाली भू-मण्डलीय, िश््यस्था में प्रेश करते भारत में उसकी िशिष्ट घरेलू, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ाली समाज-्यस्था से उत्पन्न तनाों की चरम परिणिति थी?
🚩परन्तु, जैसा कि, सोियत-संघ के पतन से भी पहले, साम्यादियों की ‘िश्-श्रमिकों की क्रान्तिकारी एकता’ का आह्ान, पश्चिमी-पूंजीादी राष्ट्रों द्ारा अपनाये गए ‘कल्याणकारी-राज्य’ की भूमिका अपनाये जाने के बाद उन राष्ट्रों में श्रमिकों के उच्च-जीन स्तर के कारण, फलीभूत न हो पाया । अतः पश्चिमी-राष्ट्रों में ‘ामपंथी िचारधारा’ ने आर्थिक आधार पर राजनितिक िश्लेषण के स्थान पर सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर िश्-दृष्टि िकसित कर नया राजनीतिक रूप धारण करना प्रारम्भ किया, जिसे “नामपंथ’ (New Left) के नाम से जाना गया. ‘नामपंथ’ ने अपना राजनीतिक आधार पूँजी  श्रम के संघर्ष पर न टिका कर, अस्मिता  पहचान के संघर्षों को मूल आधार बना कर खोजना शुरू किया । इसी दौर में न-साम्राज्यादी युद्धों (यथा ियतनाम युद्ध) से उपजी थकान  िश् तेल संकट के परिणामस्रूप अनिश्चितता  आर्थिक गिराट से उत्पन्न मोहभंग ने अमरीका,  पश्चिमी राष्ट्रों में कई छात्र  सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक अशांति को ्यक्त करने लगे । ‘नामपंथ’ को श्रमिकों की क्रान्तिकारी िश्-एकता के अप्राप्य आदर्श के स्थान पर युा समूहों, जातीय समूहों, स्त्री मुक्ति आन्दोलनों,  बाद में समलैंगिक अधिकार के आन्दोलनों, पर्यारण आन्दोलनों इत्यादि में अपनी राजनीति के लिए सामाजिक आधार दिखने लगा ।
🚩और यहीं से पश्चिम-पोषित “नामपंथ” का भारत जैसे देशों में निर्यात अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए, पश्चिमी राष्ट्रों की िदेश-नीति के कूट-अस्त्र के रूप में शामिल हो गया । जे एनयू जैसे संस्थानों में इस नयी राजनीतिक िचारधारा का स्ागत जोर-शोर से हुआ, क्यूंकि एक तो सोियत संघ के असान  भारत की ‘समाजादी’ अर्थ्यस्था का प्रयोग क्षीण होने से कमजोर हुयी कांग्रेस के बदले नए आका पश्चिमी अकादमिक संस्थानों में संरक्षण देने में सक्षम थे, हीँ कुकुरमुत्तों की तरह उग आये एन जी ओ (गैर सरकारी संस्थाओं) के माध्यम से चारागाह भी उपलब्ध करा रहे थे । एक अन्य सुिधा यह भी रही कि ‘पुराने ामपंथ’ का ‘निर्धनताादी’, ंचितों की लाठी बने रहने का चोगा भी उन्हें नहीं उतारना पड़ा ।
🚩‘नामपंथ’ के आकाओं के शस्त्रागार में उनका एक और भी पुराना कूट-अस्त्र था, अंतर्राष्ट्रीय ईसाई मत में परिर्तन कराने ाली संस्थाओं का ृहद तंत्र. मतान्तरित भारतीय इन राष्ट्रों के राजनीतिक प्रभा के लिए एक मजबूत सामाजिक आधार प्रदान करते हैं. आपको शायद यह जानकर अटपटा लगेगा कि भारत के घरेलू मुद्दों पर अंतरष्ट्रीय मंचों पर हस्तक्षेप हेतु दबा डलाने के लिए, निपट कट्टर दक्षिणपंथी ईसाई संस्थाओं  उतने ही निपट, घोषित अनीश्ादी ‘नामपंथी’ अकादमिक बुद्धिजीियों  उनके सहगामी एन जी ओ का असहज तालमेल किस प्रकार संभ होता है?
🚩इन्ही दोनों कूट-अस्त्रों का प्रयोग कर अमेरिका के नेतृत् में जोशुआ प्रोजेक्ट 1, जोशुआ प्रोजेक्ट 2, AD 2000 प्रोजेक्ट, मिशनरी संस्थाएं सी आय ए (अमरीकी गुप्तचर संस्था) के मार्गदर्शन दिशा-निर्देश में मतान्तरण के काम में प्रृत्त हैं. (तहलका जैसी पत्रिका जो घोषित तौर पर कांग्रेसी संरक्षण में चलती है, उसकी 2004 की खोजी रिपोर्ट में इसका िस्तार से र्णन किया गया है). इन संस्थाओं के पास भारत में निास करनेाले असंख्य मान समुदायों की परंपरा, िश्ास, रीति-रिाजों तथा जनसंख्या ितरण को एक छोटे से छोटे क्षेत्र को भी पिन-कोड में िभाजित कर जानकारी एं उन लोगों तक अपने संपर्क सूत्रों की त्रित पहुँच रखने का िशाल तंत्र है ।
🚩नयी मतान्तरण रणनीति को दो चरणों में िभाजित किया गया है. प्रथम चरण में भारत की सामाजिक िभेद की दरारों को चौड़ा करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके लिए ‘दलित’, ‘अनार्य’, ‘बहुजन’, ‘मूलनिासी’, इत्यादि नयी अस्मिताओं का निर्माण कर,’हिन्दू धर्म’ को तथाकथित आर्यों, ( जिन्हें बाहरी आक्रमणकारी प्रदर्शित किया गया  उनका साम्य आज के तथाकथित उच्च र्ण/जातियों से मिलाया गया), की अनार्यों ( जिन्हें मूलनिासी, बहुजन, माना गया  उनका साम्य आज के तथाकथित निम्न र्ण/जातियों से मिलाया गया है ) को सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से दास बनाये रखने की एक र्चस्ादी षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने का एक बलशाली अभियान चलाया हुआ है. इस यूह-योजना में हिन्दू धर्म के कुछ तत्ों को अंगीकार किया जाता है  उन तत्ों में नए अर्थों को प्रक्षेपित कर दिया जाता है. यथा महाराष्ट्र में “शूद्रों-अतिशूद्रों” के ‘बलि-राजा’, को ब्राह्मण देता ामन द्ारा एक शहीद राजा के रूप में प्रचारित करना, (इसके लिए ‘फुले’, जो eमिशनरी िद्यालय के पढे हुए  उनसे प्रभाित एक समाज-सुधारक थे, उनके लिखे साहित्य को आधार बनाया जाता है.) तदुपरांत ‘शहीद राजा’ का साम्य बलिदान हुए, क्रॉस पे लटके, स्र्ग के राजा यीशु से जोडना दूसरा चरण है. यही रणनीति महिषासुर को पहले जाति-िशेष (याद) जो मूलनिासी कही गयी, उसका राजा बताना, फिर दुर्गा देी को ब्राह्मणों की भेजी हुई गणिका बताना, फिर छल से न्यायप्रिय राजा महिषासुर के ध, को बलिदान हुए राजा यानि यीशु से साम्य स्थापित कर उत्तर-भारत में दुहरायी गयी है ।
🚩हिन्दू धर्मं की परम्पराओं से हिन्दू उप-समुदायों को िमुख करना प्रथम चरण है, और तब इन परम्पराओं में , न ईसाई साम्य-अर्थ भरना द्ितीय चरण है । परन्तु इस दुष्प्रचार से पहले जातिगत संगठनों का गठन मिशनरी रणनीति के हिस्से सदा से रहे हैं । ‘सामाजिक न्याय” के आदर्श का अपहरण मिशनरी अपनी कूटनीतिक चाल से कर चुके हैं ।
🚩जे एन यू में भी ‘प्रेम-चुम्बन’ अभियान अथा “किस ऑफ़ ल”, न ामपंथ का उदाहरण है,  ‘गो-मांस  शूकर मांस समारोह’ अथा “बीफ एंड पोर्क फेस्टिल” की मांग करना, “महिषासुर शहादत दिस” मनाना, िजयादशमी में भगान राम के पुतले को फांसी पर लटकाकर, रामजी की ग्लानि से भर कर आत्म-हत्या करनेाला परचा लिखना इत्यादि उदाहरण मिशनरी तंत्र द्ारा परोक्ष माध्यमों से संचालित, जे एन यू के जाति आधारित छात्र-संगठनों का नाम संगठनों के सक्रिय सहयोग से किया-धरा ितंडा-कार्य है । परन्तु, जे एन यू में यह सब कार्यक्रम होने से और भी बड़ी गंभीर समस्या देश के लिए उत्पन्न होनेाली है क्योंकि जेएनयू, पूर्र्णित भारत िरोधी समूहों को ‘ैधता एं अभयारण्य’ दोनों प्रदान करता है. ऐसे समूहों के पक्ष में “सैद्धान्तिक-परिचर्चा” को जन्म देकर, जे एन यू के िद्ान्, देश के िद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों, संघ लोक सेा आयोग के पाठ्यक्रम तथा न्यायपालिका के निर्णयों के लिए तार्किक आधार बनाकर; नौकरशाही, नागरिक समाज (सििल सोसाइटी)  संचार माध्यम (मीडिया) के द्ारा संपूर्ण भारतीय राजनीति की मूल्य-प्रणाली को प्रभाित करते हैं।
लेखक – रिन्द्र बसेरा सर (9 दिसम्बर 2014)
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