कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं

🚩📆कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं

भारतीय संस्कृति में समय की गणना केवल तारीखों का हिसाब-किताब नहीं रही, बल्कि यह प्रकृति, ऋतु-चक्र, कृषि, समाज और आध्यात्मिक जीवन का सजीव आधार रही है। “कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” का संदेश हमें यह सिखाता है कि आधुनिक व्यवस्था और वैश्विक उपयोगिता को अपनाते हुए भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से विच्छिन्न न हों।
पूज्य Sant Shri Asharamji Bapu अपने प्रवचनों में बार-बार स्मरण कराते हैं कि 1 जनवरी को केवल कागज़ का पन्ना पलटता है, जबकि भारतीय संस्कृति का वास्तविक नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होता है—जो प्रकृति के नवोदय से जुड़ा है।

🪐भारतीय कालगणना: विज्ञान और प्रकृति का संतुलन
भारतीय कालगणना चंद्र-सौर प्रणाली पर आधारित है, जिसका विकास प्राचीन सूर्य सिद्धांत जैसे ग्रंथों से हुआ। इसमें पृथ्वी की सूर्य-परिक्रमा, चंद्रमा की गति, ऋतु परिवर्तन और नक्षत्रों का सूक्ष्म अध्ययन समाहित है। अधिमास और क्षय मास की व्यवस्था के माध्यम से चंद्र वर्ष को सौर वर्ष के साथ संतुलित किया जाता है, ताकि फसल-चक्र, मौसम और पर्व-त्योहार अपने सही समय पर रहें। यही कारण है कि विक्रम संवत और शक संवत जैसे पंचांग आज भी ग्रहण, नक्षत्र और खगोलीय घटनाओं की सटीक गणना में सक्षम हैं।
पूज्य बापूजी बताते हैं कि ईसाई नववर्ष (1 जनवरी) पर न तो ऋतु बदलती है, न कृषि-चक्र में कोई परिवर्तन आता है—यह केवल एक विदेशी कैलेंडर का आरंभ है। इसके विपरीत भारतीय पंचांग जीवन और प्रकृति के गहरे तालमेल को दर्शाता है।

📆विक्रम संवत: इतिहास और सांस्कृतिक चेतना
विक्रम संवत की परंपरा 57 ईसा-पूर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मानी जाती है। लोककथाओं और ऐतिहासिक वर्णनों के अनुसार, सम्राट विक्रमादित्य ने शकों पर विजय के पश्चात प्रजा को ऋणमुक्त कर इस संवत की स्थापना की। पौराणिक मान्यता के अनुसार इसी दिन सृष्टि का आरंभ हुआ, ब्रह्मा द्वारा सृजन और विष्णु के मत्स्यावतार का प्रसंग जुड़ा है। यह संवत ग्रेगोरियन कैलेंडर से 57 वर्ष आगे है और आज भी नेपाल सहित अनेक क्षेत्रों में आधिकारिक रूप से प्रचलित है। हिंदू, जैन और सिख परंपराओं के अधिकांश पर्व इसी कालगणना पर आधारित हैं।

📆 ग्रेगोरियन कैलेंडर: उपयोगिता और सीमाएँ
ग्रेगोरियन कैलेंडर का निर्माण 16वीं शताब्दी में यूरोप में प्रशासनिक और खगोलीय सुधारों के उद्देश्य से हुआ। भारत में इसका प्रवेश ब्रिटिश शासन के दौरान व्यापार और प्रशासनिक एकरूपता के लिए हुआ। स्वतंत्र भारत ने शक संवत को राष्ट्रीय कैलेंडर का दर्जा दिया, परंतु व्यावसायिक और वैश्विक संपर्क के कारण ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग जारी रहा। समस्या कैलेंडर के उपयोग में नहीं, बल्कि उसे सांस्कृतिक पहचान पर हावी होने देने में है। जनवरी की ठंडी ऋतु में “नया वर्ष” मनाना प्रकृति-सम्मत नहीं, जबकि भारतीय परंपरा वसंत ऋतु में नववर्ष का स्वागत करती है।

🚩चैत्र शुक्ल प्रतिपदा: सच्चा हिंदू नववर्ष
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हिंदू नववर्ष माना जाता है। उत्तर भारत में यह हिंदू नववर्ष, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा , और देश के अन्य भागों में विविध नामों से मनाया जाता है। इसी दिन से चैत्र नवरात्रि का आरंभ होता है, जो आत्मशक्ति, संयम और साधना का प्रतीक है। वसंत ऋतु का आगमन, नई फसलें, विशेष भोजन और नीम-पत्ती का प्रसाद—सब मिलकर जीवन के मधुर-कटु अनुभवों का संतुलन सिखाते हैं। पूज्य बापूजी का संदेश है कि इस दिन केवल उत्सव न मनाएँ, बल्कि सुखी जीवन, सात्त्विक विचार और आत्मिक उन्नति का संकल्प लें।

📆आधुनिक चुनौती और समाधान
आज 31 दिसंबर की पार्टियाँ और बाजारवाद युवा पीढ़ी को आकर्षित कर रहे हैं, जिससे पारंपरिक पर्व, भाषा और वेशभूषा उपेक्षित होती जा रही हैं। आयुर्वेद और भारतीय जीवन-दृष्टि रात्रि-जागरण और भोगवाद से सावधान करती है।
✴️समाधान सरल है—
🔅ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग व्यापार और प्रशासन के लिए करें,
🔅पंचांग को संस्कृति, संस्कार और पर्वों के लिए अपनाएँ।
डिजिटल ऐप्स, आधुनिक साधन और शिक्षा के साथ पंचांग का ज्ञान जोड़ें, ताकि नई पीढ़ी आधुनिक भी बने और अपनी जड़ों से भी जुड़ी रहे।

🚩निष्कर्ष
भारतीय कालगणना केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि विज्ञान और अध्यात्म का जीवंत संगम है। “कैलेंडर बदलो, संस्कृति नहीं” का संदेश हमें यह याद दिलाता है कि प्रगति का मार्ग अपनी जड़ों को मज़बूत रखकर ही तय किया जा सकता है। जब संस्कृति सुरक्षित रहेगी, तभी आधुनिकता भी संतुलित और सार्थक बनेगी।

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